यूँ तो माँ को गुज़रे हुए
हो गए हैं, कई वर्ष .
किन्तु लगता है......,
वह है बहुत निकट.....,
यहीं कहीं, आस पास ही.
मनाता हूँ अब भी श्रद्धा से -
'श्राद्ध', उसकी पुण्य तिथि को
प्रत्येक वर्ष, वैसे ही जैसे
कभी वह मनाती थी -
मेरा जन्मदिन हरसाल- हरवर्ष.
हाथ जोड़कर, विनीत भाव में
आज मांगता हूँ,उससे सन्मार्ग,
आशीर्वाद, उन्नति और उत्कर्ष.
आज फिर उसकी पुण्य तिथि है,
उसके चित्र को झाड - पोंछकर,
फूलमाला से सजाकर रखा है उसी
परंपरागत केक वाली चौकी पर.
समर्पित किया है - पुष्पं , पत्रं
और मधुरं उसे, श्रद्धा भाव से.
जलाया है दीप, चढ़ाया है चन्दन,
दिखाया है - अगरबत्ती औए धूप.
देखता हूँ आज - धूप के सुगन्धित धूम्र में,
माँ, आ खडी हुई है, लिपटी श्वेतवस्त्रों में.
अब दीख रही है माँ.., मेरी प्यारी माँ...
..अब साडी, उड़ रही है, हवा में धीरे ..धीरे...
माँ, हिला रही है ....हाथ; ...हौले....हौले.....
और अब विलीन हो गयी, हवा में...व्योम में....
हवा अब बदल गयी है, ..... मेघ....में,
मेघ संगठित होकर नभ में छा गया है,
हल्की, रिमझिम बूंदें बरसा गया है.
मेघ से तो बरसा था ......पानी;
पानी तरल था, .....बूंद रूप था,
पानी ठोस था, ...ओला स्वरुप था,
ध्यान आया सघन - संगठित
ओला ही तो है, हिमवान - हिमालय.
लगा सोचने, ..माँ तो ....गंधरूपी थी,
धूम्र बनी.., वायुरुपी थी.., जलरूप बनी .
तो क्या हिमनद रूप माँ का ही है ?
क्या ये नदियाँ..., दरिया.., ये झरने,
सब .....माँ का ही प्रवाह हैं.?
हां, तभी तो करते हैं,
पालन पोषण, माँ के समान.
और ये फलदार वृक्ष ?
ये ठूंठ ...सूखे ..से पेड़ ?
क्या इसने नहीं पाला है,
हमे माँ के समान ?
क्या इससे बने पलंग, कुर्सियां, सोफे ..
अनुभूति नहीं कराते, माँ की गोद का ?
दरवाज़े बनकर क्या नहीं करते सुरक्षा ?
छत बनकर क्या नहीं करते, हमारी रक्षा?
परन्तु, आश्चर्य है, यह बात पहली बार,
आज क्यों समझ में आ रही है?
क्योंकि, आज तुने सन्मार्ग पूछा है- माँ से.
प्रगति और उत्कर्ष का मार्ग पूछा है- माँ से.
पहली बार श्राद्ध किया है तूने श्रद्धा से.
माँ, अब तुझे सन्मार्ग दिखा रही है,
प्रगति का, उत्कर्ष ka मार्ग बता रही है.
सबमें अपने अस्तित्व का बोध
करा रही है, मानो कह रही हो,
बेटे! चित्र को छोड़ो, ..तस्वीर को भूलो.
सृष्टि में मेरा ही रूप देखो, वही हूँ मैं,
वही है मेरा असली रूप, मेरा स्वरुप....
सचमुच, इस दिव्य ज्ञान के आलोक में
देखता हूँ -दर्शन के 'सर्वेश्वरवाद' को ..
यह जल अब पानी नहीं, - 'माँ' है,
यह वायु अब हवा नहीं, - 'माँ' है.
यह वृक्ष अब लकड़ी नहीं, - 'माँ' है
यह अरण्य और आरण्यक,
ये सब कुछ और नहीं, - 'माँ' है.
ये प्रस्थर...ये शैल..माँ है, माँ है.
अरे हाँ, तभी तो कहा गया है माँ को
"शैलपुत्री", 'शैलजा' और 'गिरिजा' ,
धर्म ग्रंथों में. यह हिमनद "ब्रह्मचारिणी" के
तप से है द्रवित, स्नेह से है गतिमान,
माँ है - 'हिमाचल पुत्री', गिरिराज किशोरी.
अज्ञानता की जब तक है,
घनी धुँध छायी; वह 'क़ाली' है.
भद्रक़ाली - कपालिनी - डरावनी है.
ज्ञानरूप जब चक्षु खुला,
देखा, अरे! वह 'गोरी' है, 'गौरी' है.
वह अब अम्बा है, जगदम्बा है
ब्रह्मानी रूद्राणी कमला कल्याणी है
चेतना हुई है अब जागृत,
माँ ने इसे कर दिया है- झंकृत.
सचमुच आज सन्मार्ग दिखाया है,
मुझे सत्य का बोध कराया है.
लेते हैं संकल्प अभी से, संग तुम भी ले लो मेरे भाई.
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "वायु प्रदूषित".
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "जल को दूषित".
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "ध्वनि प्रदूषित".
अब पेड़-पौध लगायेंगे, इसकी संख्या बहुत बढ़ाएंगे.
माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे, अब माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे.
हे माँ ! तुझे नमन, तुझे वंदन, बहुत बहुत अभिनन्दन.
सर बहुत ही प्रेरक बातें कह गए आप।
ReplyDeleteऔर हां .....
ReplyDeleteमाँ का क़र्ज़ चुकायेंगे, अब माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे.
हे माँ ! तुझे नमन, तुझे वंदन, बहुत बहुत अभिनन्दन.
मनोज जी
ReplyDeleteब्लॉग पर आने और सकारात्मक टिप्पणी के लिए आभार. माँ से सद्ज्ञान तो हमेशा ही मिलता है लेकिन पर्व और परंपरा की एक अपनी निराली छटा है. श्राद्ध की घटती जा रही मर्यादा के कारण इसे संयुक्त रूप से जोड़ने का एक प्रयास किया है. आपको पसंद आयी हमें संतुष्टि मिली. माँ के प्रति घटते लगाव को बढ़ने यादे यह पोस्ट कुछ कर पायी तो ही इस रचना की सफलताहै.
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ...
ReplyDeleteमातृशक्ति को नमन। यह शरीर भी पंचतत्वों से ही बना है। इन तत्वों के प्रति आस्था के साथ जागरूकता का भाव आ सके,तो जीवन प्रकृतिस्थ बने और सरकार के अरबों रूपये का भी अन्य मदों में उपयोग हो सके।
ReplyDeleteXitija ji, shikshaa mitr ji
ReplyDeleteHeartly thanks for creative comments and visit my blog.
लेते हैं संकल्प अभी से, संग तुम भी ले लो मेरे भाई.
ReplyDeleteअब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "वायु प्रदूषित".
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "जल को दूषित".
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "ध्वनि प्रदूषित".
अब पेड़-पौध लगायेंगे, इसकी संख्या बहुत बढ़ाएंगे.
माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे, अब माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे.
हे माँ ! तुझे नमन, तुझे वंदन, बहुत बहुत अभिनन्दन.
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ...
Heartly thanks for creative comments and visit my blog.
ReplyDeleteप्रभावशाली भाव निरूपण
ReplyDeleteनवरात्रा स्थापना के अवसर पर हार्दिक बधाई एवं ढेर सारी शुभकामनाएं आपको और आपके पाठकों को भी!!
आभार!!
धर्म ईश्वर की ओर से होता है
ReplyDeleteजनाब सतीशचन्द गुप्ता जी की ओर से किसी ने मेरे कथन को उद्धृत करते हुए उस पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। दरअस्ल दुनिया बहुत से दार्शनिकों के दर्शन, कवियों की रचनाओं और लोक परंपराओं के समूह को हिन्दू धर्म के नाम से जानती है। मनुष्य की बातें ग़लत हो सकती हैं बल्कि होती हैं। इसलिए उन्हें मेरे कथन पर ऐतराज़ हुआ लेकिन मैं ईश्वर के उन नियमों को धर्म मानता हूं जो ईश्वर की ओर से मनु आदि सच्चे ऋषियों के अन्तःकरण पर अवतरित हुए। ईश्वर के ज्ञान में कभी ग़लती नहीं होती इसलिए धर्म में भी ग़लत बात नहीं हो सकती। ऋषियों का ताल्लुक़ हिन्दुस्तान से होने के कारण मैं उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहता हूं।
@ धर्म से है मनुष्य का कल्याण
धर्म नहीं तो कल्याण नहीं। आओ धर्म की ओर, आओ कल्याण की ओर। इसी को अरबी में ‘हय्या अलल फ़लाह‘ कहते हैं। मस्जिदों से यही आवाज़ लगाई जाती है, सिर्फ़ मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि सब के लिए लेकिन सब तो वहां क्या जाते, मुसलमान भी कम ही जाते हैं और वहां जाने वाले भी अपने कर्तव्यों का पालन करने में सुस्ती दिखाते हैं।
4/10
ReplyDeletegood
बहुत ही सुन्दर,शाश्वत,सटीक व्याख्या,प्रकृति मां का रूप है। इसके प्रति असीम श्रृद्धा का नाम ही श्राद्ध है। इसलिए मां की शुचिता और पवित्रता के लिए किए जाने वाले संकल्प शिरोधार्य है और होने ही चाहिए।आप द्वारा दी गयी ज्ञानमयी,वाग्मयी प्रस्तुति का मैं नतमस्तक होकर सराहना करता हूँ
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