तो एक बार
तुम दर्पण देखो.
अब तक का
अपना अर्पण देखो.
देख सको तो
मुझे भी देखो,
उसमे मेरा
समर्पण भी देखो.
नहीं रहा हूँ
छुद्र भाव कभी
नहीं संकुचित
मेरा मन .....
किया समर्पित
सर्वश अपना
मान लिया है
जिसको अपना.
तोड़ दिया
उसको ही तुमने
जिसे था गढा
इन हाथों से.
कितने स्नेहिल
जज्बातों से....
याद नुझे है
अब तक सब कुछ
क्या कहना
अब बातों से...
गर देख सको
तो एक बार..
तुम दर्पण देखो.
अबतक का
अपना अर्पण देखो..
.
बहुत सही संप्रेषण है। बात मन तक पहुंच रही है। संदेश भी स्पष्ट है। प्रवाह और लय तो इस कविता की जान है। एक शे’र कहने का मन बन गया,
ReplyDeleteजो नहीं सच्चाई को स्वीकारते हैं
है सुनिश्चित वे लड़ाई हारते हैं
जो न देखे देखकर देखे हुए को
रास्ते ठोकर उसी को मारते हैं।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार-परम्परा
हिन्दी साहित्य की विधाएं - संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत
बेहद गहन्…………ऊपर से देखने मे आम मगर अन्दर कितनी गहनता समाई है ……………अध्यात्मिक दृष्टि से अलग ही भाव उभर कर आता है।
ReplyDeleteJai Prakash Tiwari ji
ReplyDeleteजीवन के अनुभवों से संप्रेषित कविता ..हमें आईना दिखाती है ...शुक्रिया
जय प्रकाश जी,
ReplyDelete`देख सको तो दर्पण देखो `
दर्पण तो हम रोज ही देखते हैं मगर आप जिस दर्पण को देखने की बात कर रहे हैं अगर लोग उसमें अपने को देखने लगें तो दुनियाँ से सारे विकार स्वयं ही दूर हो जाएँगे और फिर आदमी इंसान बनाने में ज्यादा समय नहीं लगेगा !
बहुत सुन्दर रचना !
बधाई हो!
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
मन के दर्पण में देखने को बाध्य करती अच्छी रचना
ReplyDeleteDr JP Tiwari ji,
ReplyDeleteSir, you have placed my Hindi article "Duality in Upanishad" in your name on this blog and not mentioned its source or author's name. Is it proper Sir? Kindly clarify.
= Bhavesh Merja
दर्पण सब कुछ स्पष्ट कर देता है , यह जगत भी तो एक दर्पण ही है !विचारनीय रचना !
ReplyDeleteदेख सको तो दर्पण देखो-सच कहा आपने। आईना वही रहता है चेहरे वदल जाते हैं। वास्तव में हमें आत्म-मंथन की जरूरत है ताकि हम स्वयं अपना विश्लेषण कर सकें।
ReplyDeleteबहुत गहन सन्देश देती प्रवाहमयी अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर..आभार
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना...मेरा ब्लागःः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे....धन्यवाद।
ReplyDeleteदेख सको
ReplyDeleteतो एक बार
तुम दर्पण देखो.
अब तक का
अपना अर्पण देखो.
darpan jhhuthh na bole, sundar rachna ,badhai
परम आदरणीय प्रकाश तिवारी जी
ReplyDeleteप्रणाम !
आपके ब्लॉग पर आ'कर सुखद अनुभूति हुई …
विविध सामग्री से सुसज्जित समस्त् प्रविष्टियां सराहनीय हैं ।
प्रस्तुत काव्य रचना भी
देख सको
तो एक बार
तुम दर्पण देखो.
अब तक का
अपना अर्पण देखो
अच्छी भावाभिव्यक्ति है ।
पद्मश्री नीरज जी के एक गीत का मुखड़ा याद आ गया -
देखती ही रहो आज दर्पण न तुम
प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा …
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 14 -12 -2010
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
देख सको तो
ReplyDeleteमुझे भी देखो,
उसमे मेरा
समर्पण भी देखो.
प्रवाह में लिखी ... भावप्रधान ... आनंदित करती रचना है ...
सभी सम्मानित पाठकों / समीक्षकों का हार्दिक आभार. रचना का उद्देश्य ही अपने संवेदनाओं को प्रदर्शित करना होता है. और इस प्रदर्शन के पीछे एक मात्र उद्देश्य उस सामाजिक विकृति, अनिन्मिता की ओर ध्यान अक्रिस्ट कर उसका निराकार करके मूल्यपरक, लोकमंगलकारी बनाना है.... इसमें यदि रचना जन मानस का ध्यान आक्रिस्ट कर पाने में सफल है तो यही रचना की सफलता है. मै अपने को भाग्यशाली मानता हूँ जो आप जैसे लोग मेरे मेरे विचारों को न केवाल पढ़ते है अपितु मूल्यवान टिप्पणी भी देते है. एक बार पुनः सभी का आभार ...हां 8 दिन बाद नेट पर आ पाया इसके लिए क्षमा...
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