सहसा मन में यह प्रश्न उठा.
'नेत्रों' से नहीं जो देख सका,
हुआ 'चक्षु' से संभव कैसे ?
एक उठी चेतना सी मन में,
मन भी अब कुछ गंभीर हुआ.
वह भूल गया सारी चंचलता,
गुह्य ज्ञान की अब व्याकुलता.
यह नेत्र 'त्रयी' का पोषक है.
बसते - काम, क्रोध और लोभ.
यह नेत्र काम का कारण है,
नेत्र ही काम का जारण है.
नेत्र यह है - चंचल अपार,
लालची, यह धन का लोभी है.
राज्य भोग छोड़ा था जिसने,
उसे आज लोभ ने घेरा है.
नेत्र ने ही फंसाया सीता को,
हम दोष स्वर्णमृग को क्यों दे?.
दम्भ ने फंसाया रावण को,
सारी लंका को दोष क्यों दे?
फांसा था क्रोध ने क्रूर कंस को,
संबंधो को हम दोष क्यों दें ?
काम ने फंसाया नारद को,
मोहिनी को हम दोष क्यों दे ?
है किसको छोड़ा नेत्रों ने ?
अपने स्वभाव में पक्का है.
हम दोष उसे फिर क्यों दे ?
संकल्प तेरा जब कच्चा है.
संकल्प तेरा जब पक्का होगा,
तब दिव्य चक्षु खुल जायेंगे.
अब तुझे नहीं कुछ करना है,
चाबी तब सद्गुरु खुद लायेंगे.
है काया यह जिनका निज गृह,
बंद किया उसी ने ताला है.
सौपी है चाबी देख उन्हें,
पी रहे जो 'स्नेह की हाला' हैं.
वात्सल्य की अनुरक्ति में देखो
माताओं ने 'चक्षु' को पाया था.
साख्य भाव में हो के समर्पित
पार्थ ने भी 'चक्षु' को पाया था.
सबने निज नेत्र गवाया था,
बदले में इसको पाया था.
चक्षु प्रतीक है चार तत्त्व का,
अपने अंतर के 'पुरुषार्थ' का.
जोड़ो 'धर्म' को 'अर्थ' से भैया,
'काम' को जोड़ो 'मोक्ष' से.
होता देखो फिर आगे क्या?
तुम्ही बताओ मै बोलूं क्या?
दिव्य नेत्र ही चक्षु है,
मलिन चक्षु है -'नेत्र'.
इसके आगे की चर्चा,
स्वयं करेंगे अब 'त्रिनेत्र'.
.
आपने तो बहुत सरल तरीके से दिव्य दृष्टी दे दी.अब यह लोगों पर है कि वे अपने नेत्र -चक्षु खोल लें.
ReplyDeleteMathu Sahab Namaskar!
ReplyDeleteApka sneh aur samarthan sada se saath hai aabhari hun is nirmal sneh ke liye...
क्या बात है!!!
ReplyDeleteनेत्र और चक्षु के माध्यम से आपने बहुत ही सही संदेश दिया है। काव्य की धारा, भावना और उसमें निहिर विचार ने मन को छुआ।
आभार इस प्रस्तुति के लिए।
एक बेहद उम्दा प्रस्तुति। यदि नेत्र और चक्षु के मध्य का अंतर समझ लिया जाए तो दिव्यता प्राप्त होने से कोई नहीं रोक सकता। आभार आपका।
ReplyDeleteManoj ji, ZEAL ji !!
ReplyDeleteMany-many thanks for your kind visit and valuable comments please.
हमारे भी चक्षु खुल गये ये रचना पढ कर। धन्यवाद।
ReplyDeleteसंकल्प तेरा जब पक्का होगा,
ReplyDeleteतब दिव्य चक्षु खुल जायेंगे.
अब तुझे नहीं कुछ करना है,
चाबी तब सद्गुरु खुद लायेंगे.
इसके बाद करने को कुछ नही रहेगा
सब स्वयमेव ही हो जायेगा
तू खुद ही स्वंय को पा जायेगा
तुझसे तेरा अन्तर मिट जायेगा
एक बेहद उम्दा और प्रशंसनीय प्रस्तुति।
आपकी पोस्ट की चर्चा कल (18-12-2010 ) शनिवार के चर्चा मंच पर भी है ...अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव दे कर मार्गदर्शन करें ...आभार .
ReplyDeletehttp://charchamanch.uchcharan.com/
दिव्य नेत्र ही चक्षु है,
ReplyDeleteमलिन चक्षु है -'नेत्र'.
बहुत गहन और मननीय प्रस्तुति.आभार
बड़ा सुन्दर विश्लेषण है...!
ReplyDeleteyatharth ko baya karti....aadhyatm ka dyotak sundar rachna.....badhai ho
ReplyDeleteवाह अद्भुत और विलक्षण . ज्ञान चक्षु को नेत्रों से देखा .
ReplyDeleteनेत्र और चक्षु के मध्य का अंतर, क्या बात है!!! उम्दा प्रस्तुति ..
ReplyDeleteनमस्कार मित्रों!!
ReplyDeleteआप लोगों के पधारने और बहुमूल्य टिपण्णी / समालोचना के लिए बहुत- बहुत आभार. ...मै चाहूँगा की कुछ आलोचना और सुझाव भी रहे तो मुझे भी सुधार का अवसर मिलेगा...अभी मेरा ब्लॉग जीवन एक वर्ष का भी नहीं है अनुभवी समीक्षकों से निवेदन है मेरी तृतीया भी बताये...स्वागत करूंगा जोर-शोर से और ग्राह्य भी......