राम के निवेदन का निहितार्थ (भाग-२)
(धर्म का सेतु - विज्ञानं)
मैंने एक सत्संग में सुना था, ..वहाँ कथावाचक महोदय 'सेतुबंध' की चर्चा और चित्रण कर रहे थे .... सभी वानर - रीछ शिलाखंड ला-लाकर नल और नील को दे रहे थे. और वे दोनों उन शिला खण्डों पर राम -राम लिख कर सेतु का निर्माण कर रहे थे. राम ने भी बंदरों का साथ देने की सोची. उन्होंने अपने हाथों से शिलाखंड उठाया और सागर में जल के ऊपर रख दिया. परन्तु यह क्या..? शिलाखंड तो डूब गया. हनुमान यह दृश्य देख रहे थे, लगे तालिया बजा-बजा कर हँसने..., फिर तो सभी वानर - भालू हैरान से रह गए...इस घटना की आगे क्या व्याख्या कथावाचक महोदय ने प्रस्तुत की, यह तो मै नहीं जानता परन्तु तत्क्षण ही मन-मष्तिष्क में राम द्वारा 'रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग' की स्थापना का उद्देश्य कौंध गया, और वह उद्देश्य था -'धर्म को विज्ञान से जोड़ने का' . राम तो स्वयं ही विज्ञान रूप हैं - "सोई सच्चिदानंद घन रामा / अज विज्ञानं रूप बल धामा //".
धर्म और अध्यात्म से विज्ञान को जोड़ना उस समय आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी था. राम के शिवलिंग पूजन का उद्देश्य वानर - भालुओं को, वन - नरों को, अशिक्षितों और पिछड़ों को अध्यात्म और विज्ञान दोनों प्रकार के ज्ञान से ओत-प्रोत कर देना था. आत्मा और शरीर का भेद, आत्मा की अजरता - अमरता के सिद्धांत को जानकर ही समाजद्रोही, संविधानद्रोही, प्रकृति द्रोही और संस्कृतिद्रोही से लोहा लिया जा सकता है. सामाजिक और राष्ट्रीय हित के कार्य भी अध्यात्म और विज्ञान के सामंजस्यपूर्ण मेल से ही किया जाना श्रेयष्कर होता है. राम द्वारा 'शिवलिंग पूजन' का उद्देश्य इस वन - नरों को यह भी बताना था कि व्यक्ति राम, दशरथिराम, वनवासी राम अथवा राजाराम श्रेष्ठ नहीं है. सारी श्रेष्ठता शक्ति और कला, नियम और सिद्धांतों में सन्निहित है और जो इसे चरित्र में, आचरण में, कार्य में सम्मिलित करेगा वही श्रेष्ठ है... नल और नील ने इसी 'राम सूत्र' और 'राम सिद्धांत' का पालन किया. सिद्धांत बल से ही शिला सागर में तैर सकती है, और यदि इस नियम का पालन नहीं किया गया तो वह सिद्धांत कार्य नहीं करेगा, भले ही यह कार्य स्वयं राम द्वारा ही क्यों न किया गया हो. 'राम सिद्धांत' व्यक्ति राम, दशरथिराम, सीतापतिरम, वनवासी राम अथवा राजाराम...., इन सभी से बड़ा है.
राम ने अपने सहयोगियों को सागर तट पर एकत्र किया. डॉ. पुष्पारानी गर्ग ने इसका बहुत ही मनोरम काव्य विंब प्रस्तुत किया है - बोले रघुबर / सब सखा सुनो / मेरे मन में / संकल्प उठा / शिव पूजन हो / जलनिधि तट पर / यह उचित समय / सुन्दर अवसर / शिव ही है मेरे ईष्टदेव / शिव ही जग के आदि पुरुष / पर ब्रह्म रूप / यह प्रकृति उन्ही की माया है / .......सही महाकाल / माँ पार्वती महाकाली हैं / असुरों का संहार हेतु / बस कालरूप / ...शिव गौरी दोनों हैं अभिन्न / जो पार्थिव शिव हैं लिंगरूप / जलधारी उनकी पार्वती ", .राम ने उपस्थित सभी सहयोगियों को समझाया - सृजन और प्रलय इस सृष्टि का शाश्वत नियम है. यह सम्पूर्ण सृष्टि, अनंत ब्रह्माण्ड इस विन्दु से, इस आत्म तत्त्व से उद्भूत है. हम सभी उसी अजर - अमर आत्मा के अंश हैं. जीवात्मा हैं. यह अनंत सृष्टि प्रलयकाल में इस विन्दु रूप आत्म तत्त्व में समाहित हो जाती है, इसी में विलीन हो जाती है.यह विन्दु ही सर्वोच्च सत्ता है.इस लिए लंका पर आक्रमण से पूर्व इस विन्दु सत्ता, आत्म सत्ता, शिव सत्ता की अराधना - पूजन कर लेना सर्वथा उचित है.जिस विन्दु में यह ब्रह्माण्ड विलीन हो जाता है , यह 'लिंग' उसी परम सत्ता का प्रतीक है - " लयं गच्छति भूतानि संहारे भूतानि निखिलं यतः / सृष्टिकाले पुनः सृष्टिस्तस्माद लिंगमुदाहृतं //" ( लि. पु. ९९.८ ) अनंत सृष्टि की उत्पत्ति 'एक विन्दु से', अनंत ब्रह्माण्ड का विलय 'एक विन्दु में'.... इस अजूबा विन्दु की आराधना, विन्दु का पूजन, विन्दु में सिन्धु समाहित होने की बात वानरों की समझ में नहीं आयी...... तब राम ने मुट्ठी भर रेत हाथ में लेकर गोलाकार / अंडाकार एक पिंड बनाया, मंत्रोच्चार कर उसकी स्थापना की. राम समझाते रहे....... - यही पिंड 'शिव लिंग' है, 'शालिग्राम' है, ब्रह्मा -विष्णु - महेश का प्रतीक है. शास्त्र वचन है - "मूले ब्रह्मा तथा मध्ये विष्णुस्त्रिभुवनेश्वरः / रुद्रोपरि महादेवः तयो: सम्पूजनान्तायम देव देवाश्च पूजितौ //" . पिंडरूप में यही परम शिवतत्त्व है, सर्वस्व है, विलक्षण है . इसे न केवल अध्यात्म तक सीमित किया जा सकता है और न केवल विज्ञान तक. यह असीम है, कल्याणकारी है, शिवं है. इसलिए यह न पुलिंग है, न स्त्रिलिंग है और न ही नपुंसकलिंग. यह मात्र ब्रह्माण्ड लिंग है. यही राम का आराध्य है, यही राम को सर्वप्रिय है - " लिंग थापि विधिवत करि पूजा / सही समान मोहि प्रिय न दूजा //".
वानरों की समझ में अब भी कुछ नहीं आया. तब राम ने लिंग के नीचे एक अर्घा (जलहरी) बनाया और अपनी व्याख्या को और भी सरल किया. यह गोलाकार /अंडाकार पिंड, 'ब्रह्माण्ड पुरुष सिद्धांत है' और यह जलहरी ब्रह्मांड नारी सिद्धांत'. युग्म रूप में यही 'शिव-शक्ति सिद्धांत' है. यही 'अर्द्ध नारीश्वर' है.यही युग्म अखिल ब्रह्माण्ड प्रसूता है, सृजनहार है - " लिंग देवी महा देवी लिंग साक्षात् महेश्वरः / तया सम्पूजनानित्यं देवी देवाश्च पूजितौ //" यही 'महाकाल' है, और यही नटराज हैं, खूब नाचते हैं ये ..कभी शिव रूप में..., कभी पार्वती रूप में... और कभी साथ-साथ ..यह नृत्य ही स्पंदन है, गति है, संवेग है, ऊर्जा है, सृजन है तो ध्वंश भी...हनुमान की समझ में बात पूरी तरह आगई. उन्होंने शेष वानरों को भो उनकी मातृभाषा में और भी सरल करके समझा दिया. इस प्रकार ब्रह्माण्ड सत्ता का प्रतीकात्मक पूजन 'शिव लिंग' स्थापित कर पूर्ण किया गया और इसी क्रम में आत्मा, आत्मा की अजरता-अमरता तथा इसके चार चरण, 'आत्मा -पुनर्जन्म - कर्मफल - मोक्ष' सिद्धांत की भी विशद व्याख्या की गयी.
इधर जिज्ञासु वृति के संवाहक और सेतु निर्माण के कुशल अभियंता नल और नील को संदेह के आवरण ने घेर लिया. पहले तो वे चुप रहे, मनन - मंथन करते रहे परन्तु जब मन की गुत्थी नहीं सुलझी तो अपनी जिज्ञासा उन्होंने दल के बयोब्रिद्ध मुखिया जामवंतजी से प्रकट की. जामवंतजी ने यह जिज्ञासा हनुमान के समक्ष रखी. अपने बालपन में ही 'सूर्य सिद्धांत' को उदरस्थ करने वाले विद्वान् खगोलशास्त्री हनुमान ने 'सूर्य' और 'तारे' की जन्म प्रक्रिया से लेकर उसके मृत्यु तक. उसके जीवन के विभिन्न चरणों, प्री-प्रोटोस्टार, प्रोटोस्टार, स्टार, सुपरनोवा, और इसके बाद की संभावित परिणति - 'श्वेत वामन' - 'न्यूट्रोन तारा' अथवा 'ब्लैक होल' (कृष्ण विवर) में परिणति के संभावनाओं और कार्यरत सिद्धांत को समझाया. इसी ब्लैक होल में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपने सैकड़ों - सहस्रों सौर परिवारों, सैकड़ो मंदाक्नियों, अपने आकाशगंगाओं समेत विलीन हो जाता है और एक सुदीर्घकाल तक पडा रहता है... यही प्रलय है, यही ब्रह्मा की 'अहोरात्री'. शिव की 'महासमाधि' है, विष्णु की 'योगनिद्रा' इसे ही कहा गया है. हम भली भांति जानते हैं कि खगोल विज्ञान जिसे 'ब्लैक होल' कहता है, उसे ही अध्यात्म ने 'हिरन्यगर्भ' ( कास्मिक एग, गोल्डेन एग., यूनिवर्स एग.) कहा गया है और उसकी पहचान 'प्रजापति सिद्धांत' के रूप में हुआ है.. आगे चलकर यही थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ 'ब्रह्मा सिद्धांत' और 'विश्वकर्मा सिद्धांत' के नाम से भी व्याख्यायित और वर्णित है.यह सृष्टि ब्रह्मा का दिवस काल है...उषः काल की संध्या बेला में ब्रह्मा , सदाशिव की तपश्चर्या करके ओमकार (प्रणव) शक्ति द्वारा 'महानाद' / 'स्फोट' (शब्द ब्रह्म) सिद्धांत (बिग बैंग) से सृष्टि सरंचना प्रारंभ होकर पूर्ण करते है. यह "नाद / शब्द" ही स्पंदन है, गति है, प्रारम्भक है, प्राईम मूवर है, ...यह संवेग ही तत्त्वों में आपसी अभिक्रिया का हेतु है. सृष्टि का निर्मात्री है. अब इसे 'पुरुष-प्रकृति की लीला' कहें, ''शिव शक्ति का नृत्य' अथवा 'एलेक्ट्रोन- प्रोटोन का खेल' ; अंतर यहाँ मात्र शब्दों का है.... सिद्धांत रूप में इसे अध्यात्म और विज्ञान दोनों ने स्वीकार किया है. केवल गोल रूप पिंड 'न्यूट्रान' रूप; है, अर्घ सहित पिंड 'अर्द्ध नारीश्वर / हाईद्रोजन रूप' है. और दिव्य ओमकार ..ऊर्जा रूप है. ..यही आदित्य है...विद्युत् है...प्रकाश है, ...ध्वनि है....' -"सहज प्रकाश रूप भगवाना / नहीं तह पुनि विज्ञानं विताना // ". ऊर्जा और द्रव्यमान का यह अनूठा खेल अध्यात्म और विज्ञान दोनों को सम्मोहित किये हुए है. भाई नल - नील! यह द्रव्यमान बड़े काम काम की चीज है. यह 'द्रव्यमान चरित्र' ही निर्धारित करता है कि कौन सा टारा श्वेत वामन बनेगा, कौन न्यूट्रान तारा, कौन पल्सर और कौन 'कृष्ण विवर'? चंद्रशेखर लिमिट से अधिक द्रव्यमानवाला तारा कृष्ण विवर बनता है, इसी का पुनर्जन्म होता है. तुम्ही सोचो! आखिर यह कर्मफल और पुनर्जन्मसिद्धांत नहीं तो और क्या है? अध्यात्म जिसकी व्याख्या चरित्र सिद्धांत, पाप-पुण्य से करता है. विज्ञान उसी को 'द्रव्यमान सिद्धांत' से. इसमें जितना अधिक गोता लगाओगे, उतना ही रहस्य का पर्दा एक-एक कर उठता चला जाएगा.
बूढ़े जामवंत ने प्रश्न किया, हनुमान! रावण भी शिव भक्त है, विद्वान् है, आर्ष ग्रंथों का विधिवत परायण किया है उसने, परन्तु उसकी वृत्ति इतनी भिन्न क्यों है? दृष्टिकोण भेद जामवंत जी!, दृष्टिकोण भेद है इसका कारण. हनुमान ने वहीँ बैठे -बैठे, रेत में ही उँगलियों से एक ग्राफ बनाया और निकट बुलाकर समझाया - ब्रह्माण्ड ऊर्जा तरंग रूप है, प्रायः तरंग रूप में गति करती है, नाम रूप धारण कर जगत की संरचना करती है, भौतिक आकार- प्रकार का निर्धारण करती है. जिसकी दृष्टि मूल अक्ष से प्रारम्भ होकर, अक्ष पर ही समाप्त होती है, वह मातृ सत्तात्मक दृष्टि है. यह दृष्टि अंग्रेजी भाषा के 'M' अक्षर से मेल खाती है (M = Mother) .यह दृष्टि संसार के नारियों को मातृवत, श्रद्धावनत होकर देखती है. यह देव दृष्टि है.और जिसकी दृष्टि फल और विस्तार से प्रारंभ होकर, विस्तार और फल पर ही समाप्त होती है, वह भोग दृष्टि है. स्वरुप और संरचना कि दृष्टि से तरंग ऊर्जा में अंग्रेजी के 'W" अक्षर से मेल खता है - ( W = Wife or Women) यह दृष्टि संसार की नारियों को काम भाव से देखता है, काम - वासना की तुष्टि के लिए नारी को पत्नी या उप-पत्नी (रखैल) बनाना चाहता है. प्रलोभन या छल -बल से अपना उल्लू सीधा करता है. उसके लिए नारी मात्र भोग कि वस्तु है. यह भोग दृष्टि आज भी सृष्टि पर, इस विश्व पर एकाधिकार की बात सोचता है. दूसरे देशों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष आक्रमण करता है है, अव्यवस्था फैलाता है, मानवता का शोषण करता है. इसी दृष्टि भेद के कारण महाज्ञानी होते हुए भी रावण भटक गया है, पाप कर्म में प्रवृत्त हो गया है. उसकी वृत्ति काम प्रधान -भोग प्रधान हो गयी है. वह लोकेश्नाओं में उलझ कर रह गया है. सत्ता और वैभव के मद में, शक्ति के अहंकार में उसे उचित - अनुचित का अंतर नहीं जान पड़ रहा है. भौतिकता और विलासिता की ही वहाँ प्रधानता है. कहने को भोग और तप भी वहाँ हैं, यज्ञ भी हो रहे हैं परन्तु वह लोक मंगल के लिए नहीं है, निजी स्वार्थ के लिए है. नितांत वैयक्तिक है, अधिक से अधिक अपने परिवार, अपनी कौम, अपनी जाति, के लिए है.
इसके विपरीत मातृ सत्तात्त्मक दृष्टि इस जगत को माँ से निःसृत एक परिवार के रूप में देखता है. 'Y' अक्ष पर जो आवर्त 'M' का स्वरुप बनता है, वही 'X' अक्ष पर 'S' का स्वरुप बनता है. (S = Sister, S = Son, S = Sun, S = Sweet., .) यह दृष्टि सृष्टि केवल मातृ सत्तात्मक ही नहीं, भाई- बहन के समान सहोदर भी है, पूर्ववर्ती होने के कारण अग्रज भी . इसी विन्दु से विश्वबंधुत्व की सोच, विश्वबंधुत्व की परिकल्पना को एक सबल सांस्कृतिक - आध्यात्मिक बल मिलता है, एक दर्शन और चिंतन मिलता है. यह दृष्टि भारतीय संस्कृति को विलक्षण और महान बनाती है; तथा दार्शनिक रूप में हमें प्रदान करती है एक परिभाषा - "ईशावास्य इदं सर्वं यत किंच जगत्यां जगत.." अतएव इस दृष्टि से इस प्रकृति से हमारा सुमधुर सम्बन्ध स्थापित हो जाता है. यहाँ 'पृथ्वी' और 'नदियाँ' माँ हैं तो 'चंद्रमा' है - 'मामा'. वनस्पतियाँ- वृक्ष पूज्य हैं तो प्रस्थर और पहाड़ - आराध्य.यह हमारी मूर्खता नहीं महनीयता है, यह हमारी आंतरिक संवेदना, दृष्टि का विकास है. दृष्टि के अनुरूप ही वृत्ति बनती है, भाव उत्पन्न होते हैं, मन और इन्द्रियाँ वृत्ति के अनुरूप ही कृतकार्य होते हैं. जामवंत जी! वहाँ विभीषण भी है परन्तु उसकी वृत्ति को रावण फटकारता है, कुचल देना चाहता है. सभी जिज्ञासु संतुष्ट होकर अपने विश्राम स्थल की ओर लौट गए.
परन्तु यह क्या..? नल और नील तो पुनः लौट पड़े... उन्होंने हनुमान से अपनी अगली जिज्ञासा प्रकट की - हे हनुमान जी! आधुनिक भौतिकी के लब्ध प्रतिष्ठित व्याख्याकार, स्टेफेन हाकिंग का मानना है कि काल का प्रारंभ 'बिगबैंग' की घटना के साथ हुआ. इसके पूर्व काल का कोई अस्तित्व नहीं. कार्ल सगन ने भी बिगबैंग को ही आधार मानकर एक ब्रह्माण्ड कैलेण्डर की रचना की है. फिर 'काल' और 'महाकाल' की बात..., क्या आपस में असामंजस्य्पूर्ण नहीं है...? हनुमानजी ने शंका समाधान प्रस्तुत किया - हाकिंग ने काल मापन हेतु बिगबैंग की घटना को 'आदि घडी' के रूप में परिकल्पित किया है. वे उसी घडी से समय का मापन कर रहें हैं, और उसे ही काल बता रहें है. परन्तु ध्यान देने की बात यह है कि क्या उस समय 'काल' विद्यमान नहीं था जब यह घडी बंद थी...? अथवा घडी थी ही नहीं . घडी की कौन कहे घड़ीसाज भी तब क्या अस्तित्व में था ..? इसका उत्तर तब प्राप्त होगा जब हाकिंग जैसे वैज्ञानिक 'Befor the Bigbang' 'महानाद से पूर्व की स्थिति' पर गंभीर चिंतन करेंगे..... और जैसे ही वे इसपर विचार करेंग, वे काल को भूलकर महाकाल 'शिवतत्त्व' का संधान कर लेंगे. उनकी समझ में आ जाएगा कि जिसे वे 'काल' कह रहे हैं, वस्तुतः वह 'काल खण्ड' है. वे और उनके अनुयायी अभीतक तो यही कह रहे हैं कि महानाद से पूर्व की बात करना उसी प्रकार निरार्थक है जिस प्रकार उत्तरी द्रव के पश्चात् अक्षांश रेखाओं की बात करना. परन्तु प्यारे नल-नील! उत्तरी ध्रुव के पश्चात क्या ब्रह्मांड में कुछ शेष नहीं बचता? क्या उत्तरी ध्रुव के पश्चात् उत्तर दिशा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है? जिस अन्तरिक्ष में पूरा सौर मंडल है, सहस्रों मंदाकिनियाँ है, क्या उसके अस्तित्व को नकारा जा सकता है? .इसलिए निश्चित रूप से यह तर्क भ्रामक है और एक अर्थ में पलायनवादी भी. लेकिन संतोष का विषय यह है कि महानाद से पूर्व की स्थिति पर चर्चा प्रारंभ हो चुकी है और वैज्ञानिकों ने इसकी पृष्ठ भूमि में 'डार्क एनर्जी' की पहचान की है, और यह 'डार्क एनर्जी' ही तो 'महाकाली' हैं. और जो महाकाली तक पहुच गया उसे महाकाल तक पहुचने में विलम्ब कितना?
तभी मेरे कंधे पर जोर पडा, देखा - श्रीमतीजी हैं, कह रहीं है - 'जहां देखो वहीँ पाता नहीं कहाँखो जाते हैं या सो जाते हैं ? '. चलिए उठिए! आरती का समय हो गया. मेरी तंद्रा टूटी. तबतक शायद कथावाचक महोदय की दृष्टि मुझ पर पड़ चुकी थी. क्योकि वे टिप्पणी कर रहे थे, सत्संग में तीन तरह के व्यक्ति आते हैं - श्रोता, सोता और सरौता. भले ही मै उनकी दृष्टि में इस समय 'सोता' कोटि का था, परन्तु वह क्या था जो मैंने साक्षात देखा और सुना... ? नीद. सपना या समाधि..? इसकी संज्ञा चाहे जो दी जाय परन्तु इसकी उपयोगिता और उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता. वापस घर लौटते समय जब सोचता हूँ कि बूढ़े सम्पाती की यह उक्ति - "आज सबहि कह भच्छन करऊ / दिन बहु चले आहार बिनु मरऊ // 'कबहूँ न मिलि भरि उदर अहारा / आजु दीन्ह विधि एकहिं बारा// डरपे गीध वचन सुनि काना / अब भा मरन सत्य हम जाना //" सुन कर प्राण जाने के भय से सहम जाने वाले भीरू वानर दल के शौर्य, अभय और अप्रतिम वीरता का दर्शन जब हमें लंका के रण क्षेत्र में होता है, रावण के दरबार में होता है तब हमें राम क़ी दूर-दर्शिता, तत्दर्शन का मर्म, और सद्ज्ञान के प्रभाव का, आत्मा क़ी अजरता -अमरता के सिद्धांत का प्रभाव समझ में आता है .युद्ध कार्य में प्रस्थान से पूर्व जिस आत्मज्ञान, आत्मबल और अभय क़ी आवश्यकता थी, वह इस शिवलिंग पूजन से पूर्ण हुआ. परन्तु यहाँ एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है की पूजित यह रूप - आकार और प्रतिमा, न ब्रह्म है न शिव. क्योकि स्थापित प्रतिमा चाहे रेत की हो, काष्ठ की हो, या सोना -चाँदी की; वास्तव में पूजन उस प्रतिमा में स्थापित 'सिद्धांत ब्रह्म', 'सिद्धांत शिव' की होती है. इस 'शिव शक्ति', 'शिव सिद्धांत' को जानने का कार्य विज्ञान अपने तरीके से कर भी रहा है.अध्यात्म में पूजन कार्य का निहितार्थ भी 'सिद्धांत अनुसंधान' ही है.
मित्रों!
वर्तमान में भी कुरीतियों, कुसंस्कारों और भ्रष्टाचार से लोहा लेने के लिए इसी तत्व दर्शन और अभय वृत्ति, सत्साहस क़ी आवश्यकता है. क्या लोकमंगल के इस अभियान में आप हमारा साथ देंगे...?...यह निवदन ..है... और आमन्त्रण ...भी...तो ....आइये! ...बढ़ाइए ...अपना .....कदम!!........और हम लोग जुट जाय नए भारत के निर्माण में........ .
भूलसुधार -
ReplyDeleteकृपया दोहे को इस प्रकार पढ़े - 'लिंग थापि विधिवत करि पूजा / सिव सामान प्रिय मोहि न दूजा' //
छोटी-छोटी और भी टंकड़ त्रुटिया रह गयी है. पाठक बन्धु कृपया सुधार कर पढ़े. अपनी असावधानी के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ.
इस जानकारी के लिए आभा। हम तो बस यही कहेंगे कि,
ReplyDeleteहरि अनंत हरि कथा अनंता ।
कहहिं सुनाहिं बाहुबिधि सब संता ।।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विलायत क़ानून की पढाई के लिए
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteविज्ञानं और अध्यात्म के समन्वय का सटीक विश्लेषण है,परन्तु राम द्वारा शिव -लिंग पूजा का उल्लेख लोगों को भटकने से बचने नहीं देगा ;क्योंकि राम वेदों के अनुयायी थे;यज्ञ की रक्षा के लिए बच्बन में ही ले जाये गए थे.मूर्ती पूजा वेदों के विपरीत गुलाम भारत में प्रचलित हुयी थी.राम आज से ९ लाख वर्ष पूर्व हुए थे ,तब मूर्ती पूजा का प्रश्न ही नहीं था,रावन चूंकि सामराज्य्वादी-विस्तारवादी था इसलिए उसे परस्त किया गया था,राष्ट्रवाद की रक्षा हेतु.
ReplyDeleteमाथुर साहब!
ReplyDeleteमैंने पूज का अर्थ और औचित्य दोनों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है तथा वह आधुनिक विज्ञानं के साथ कैसे औचित्यपूर्ण संगत केवल बैठता ही नहीं अपितु उसे अनुसरण करने का मार्ग भी दिखलाता है. विज्ञान के आधुनिकतम प्रश्नों का जवाब लाखों वर्ष पूर्व देना क्या हमारी प्रगति शीलता और चिंतन की द्द्र्दार्शिता नहीं है. इस विन्दु पर गौर करने की आवश्यकता है.
युद्ध कार्य में प्रस्थान से पूर्व जिस आत्मज्ञान, आत्मबल और अभय क़ी आवश्यकता थी, वह इस शिवलिंग पूजन से पूर्ण हुआ. परन्तु यहाँ एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है की पूजित यह रूप - आकार और प्रतिमा, न ब्रह्म है न शिव. क्योकि स्थापित प्रतिमा चाहे रेत की हो, काष्ठ की हो, या सोना -चाँदी की; वास्तव में पूजन उस प्रतिमा में स्थापित 'सिद्धांत ब्रह्म', 'सिद्धांत शिव' की होती है. इस 'शिव शक्ति', 'शिव सिद्धांत' को जानने का कार्य विज्ञान अपने तरीके से कर भी रहा है.अध्यात्म में पूजन कार्य का निहितार्थ भी 'सिद्धांत अनुसंधान' ही है.