हे काव्य! तुम्हारा गुरु है कौन?
कुछ तो बोलो, क्यों हो तुम मौन?
कहाँ से पाई सूक्ष्मतर दृष्टि यह?
अतल - वितल तेरे रहता कौन?
कैसे करती शब्द श्रृंगार तुम?
यह विरह कहाँ से लाती हो?
रहस्य रोमांच का सृजन कैसे?
पल भर में तुम कर जाती हो.
कभी लगती हो तुतलाता बच्चा,
कभी किशोर बन जाती हो,
क्षण भर में तु रूप बदलती कैसे?
कैसे कुलांच भर जाती हो?
तेरी एक झलक पा जाने को,
कुछ नयन ज्योति बढ़वाते हैं.
कुछ तो हैं इतने दीवाने,
नित नए लेंस लगवाते हैं.
नजर नहीं आती फिर भी तुम,
क्या इतनी भी सूक्ष्म रूप हो?
दिखती फिर तुम सूर को कैसे?
तुलसी घर चन्दन क्यों घिसती हो?
बैठ के कंधे पर तुम रसखान के,
कबिरा के संग खूब घूमती हो.
रास रचाए तू संग बिहारी के,
घन आनंद प्यारे को क्यों छलती हो?
नीर की बादल बनी है महादेवी,
यशोधरा गुप्त है दिनकर उर्वशी,
प्रसाद है खेलत संग कामायनी के,
पन्त है छेड़े चिदंबरा रागिनी.
वीणा बजाये निराला के संग तू,
मीरा को खूब तू नाच नचाये है,
कालि के मेघ को नभ में नचावत,
श्याम का चेतक धूम मचाये है.
केशव बैठ के केश निहारत,
उम्र बढ़ी पर कवि ना कहायो,
रचा ग्रन्थ को हठ्वश अपने,
कठिन काव्य के प्रेत कहायो.
ग्रन्थ लिखाए तू व्यास के हाथ से,
राधा की तन पर कान्हा नचायो है,
जाना रहस्य ना कोई तुम्हारा,
उम्र तलक तुम नाच नचाये है.
क्या तुम महेश की मानस पुत्री?
अथवा विरंचि की भार्या हो?
या हो वाग्दत्ता बाल्मीकि की,
या हिंद की लाडली आर्या हो?
क्या 'क्रौंच आह' से जन्म तेरा?
अश्रु स्वरों तेरी धार बही?
अगणित है बधिक अब घूम रहे,
क्यों ना उनके अंतर कोई आह उठी?
याद करो! तू ने ही कहा था -
"सन्देश नहीं मै स्वर्ग लोक का लाई,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आई."
संकल्प तेरा क्यों टूट रहा अब?
ये कौन सी रीति तुने अपनाई है,
सोचा बहुत पर सोंच न पाया.
बात क्या तेरे ह्रदय में समायी है?
जान न पाया तुम्हे अब भी मै,
गुरूद्वारे का अब तो मार्ग बताओ.
हे काव्य तुम्हारा गुरु है कौन?
कुछ तो बोलो, क्यों हो तुम मौन?
बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
ReplyDeleteबस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से
सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteJI BAHUT BADHIYA....
ReplyDeleteKUNWAR JI,
ati sundar
ReplyDeleteThanks to all for comments.
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