Wednesday, April 14, 2010

प्रकृति संवेदी को नमन

जीवन तो एक यज्ञ है भाई ! आहुति डालो,
कुछ आहुति डालो... ......यह एक निवेदन हम करते हैं.
स्वागत करने को बेचैन ये तरु की डालियाँ झुकी हुई हैं.
सिर पर मंजरी- कलश लिए ये, धानी चुनरी पहन खड़ी हैं.

सब जिज्ञासु निहार रहीं हैं, मधुरं सुरभित आमन्त्रण दे;
पाने को प्रतिदान, देखो ! पत्तों का विजन डुलाय रहीं हैं.
मानव होता है संवेदी, जान इसे आशा से हमें निहार रहीं हैं,
क्या तुम भी हो पाषण ह्रदय ? यहाँ मानवता अब हार रही है.

धन ने बहुत नचाया हमको, मन ने बहुत सताया है;
इन्द्रियों के इस भोग ने देखो, कैसा दुर्दिन दिखलाया है?
जंगल काटा, बगिया काटा, आँगन का बिरवा काट रहे हो;
कितने वृक्ष लगाए अब तक, क्या इसको भी तुम आँक रहे हो?

ताप बढ़ गया, सूख गया जल, इस संकट को तुम देख रहे हो;
निद्रा तोड़ो, ..तंद्रा छोडो, .....अब पड़े - पड़े यूँ क्या देख रहे हो?
पड़े हुए अज्ञान भवर में......., जीवन स्रोत ना पहचाना;
देता हमें जो प्राण वायु है, उसकी महिमा तो अब जाना.

जपते है नित - "प्राणाय नमो अस्य इदं सर्वं वशे"
कहकर और "प्राण ते आयते नमः अस्तु",
"परयाते नमः अस्तु", "तष्ठाते नमः अस्तु"
कहकर करते पूजन, करते ग्रहण जिस प्राण वायु को.

कुछ और नहीं, पादप जगत का ही उत्सर्जन है.
होगा नहीं यह उत्सर्जन तो समझो इस धरा से
जीवन का ही विसर्जन है........
यज्ञमयी यह सृष्टि सार है, भोगमयी यह है निःसार .

भाग रहे हो भोग के पीछे, कुछ तो करो विचार.
समझ गए जो इस महत्व को, देखो! वे दौड़े आतें हैं.
एक नहीं फिर दर्जन भर, ऊर्जस्वी पौध लगाते हैं.
ऐसे जागृत मानव को हम शत-शत शीश झुकाते हैं.

अब भी तुम बैठे मेरे भैया!
सुनो प्रकृति की करुण पुकार, अब तो करो विचार.
मैं नहीं चाहता कहे कोई कृतघ्न तुझे, याद दिलाना चाहतें है,
कर स्वीकार अनुदान, प्रकृति का मान बढ़ाना चाहते हैं.

जाने-अनजाने जंगल को बंजर भले किया हो,
अब वृक्ष - बाग़ - वन खूब लगना चाहतें है,
वृक्षारोपण के इस अभियान में सभी को हाथ बंटाना है;
करो संकल्प एक नहीं,अब सौ - सौ पौध लगाना है.

2 comments:

  1. bilkul samay ki maang bhi yahi hai...
    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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