पूछना चाहता हूँ उन महानुभाओं से,
समाज के ठेकेदारों से जिन्होंने अपनी
अंतरात्मा की आवाज़ को कुचल कर
जमा कर किया है, अकूत सम्पति.
बनाया है - अट्टालिकाएं और महल.
महल तो बना लिया परन्तु ,
सोचो! .....जिसे कहते है;
'घर एक मंदिर' ..वह कहाँ से लाओगे?
चाँदी के पलंग पर सेज तो बिछा ली,
बोलो प्यारे! - नींद कहाँ से लाओगे?
अलमारी को बना लिया दवाखाना,
बोलो - स्वास्थ्य कहाँ से लाओगे?
घर में पक रहे होंगे छप्पन भोग,
तुम बिस्तर में पड़े पड़े ललचाओगे.
भीड़ चाहे जितनी एकत्र कर लो.
बोलो!- एक मित्र कहाँ से लाओगे?
घड़ियाँ चाहे जितनी खरीद लो,
बोलो! समय को पकड़ पाओगे?
रिंग चाहे जितनी उँगलियों में पहनो,
अर्धांगिनी कहाँ कहाँ से लाओगे?
जब भाई को भाई नहीं मानोगे,
भार्या की बात को भी ठुकराओगे,
घिरे रहोगे चाटुकारों में, निश्चित ही
एक दिन वह भी आएगा जब ......,
कोई हनुमान तुम्हारी लंका को जलाएगा.
तू पड़ा-पड़ा पछतायेगा,रो भी नहीं पायेगा.
भीड़ चाहे जितनी एकत्र कर लो.
ReplyDeleteबोलो!- एक मित्र कहाँ से लाओगे?
घड़ियाँ चाहे जितनी खरीद लो,
बोलो! समय को पकड़ पाओगे?
रिंग चाहे जितनी उँगलियों में पहनो,
अर्धांगिनी कहाँ कहाँ से लाओगे?
बहुत खूब एक एक शब्द सोचने के लिये मजबूर करता है। धन्यवाद्
कोई हनुमान तुम्हारी लंका को जलाएगा.
ReplyDeleteतू पड़ा-पड़ा पछतायेगा,रो भी नहीं पायेगा.
-विचारणीय!!
आपको नव संवत्सर की मांगलिक शुभकामनाएँ.
दीदी, प्रणाम !
ReplyDeleteभाई साहब, आप को भी प्रणाम !!
उत्साह वर्द्धक टिपण्णी के लिए आभार, कोई लेखक / कवि नहीं हूँ, कुछ दिनों से यह शौक सा बन गया है. आशा है मेरा ब्लॉग ऐसे ही पढ़ती रहेंगी / पढ़ते रहेंगे और आप लोगों का स्नेह मिलता रहेगा..
आपका एक भाई जय प्रकाश तिवारी, जनपद बलिया (उत्तर प्रदेश)