Thursday, April 4, 2013

'नारी-विमर्श के अर्थ’ का निहितार्थ



                                    
                       (भाग १)

संचारक्रांति ने अंतर्जाल के माध्यम से जहाँ वैश्विक ज्ञान-विज्ञान को अद्यतन रूप में समृद्ध और सर्वसुलभ कराया है, वहीँ मानवमन की अन्तःचेतना को भी गहराई तक झकझोरा है. उदासीन रहनेवाला संवेदनशील चिन्तक भी अब अपना मौन और झिझक छोड़कर अंतर्जाल पर मुखर हो चुका है. अब वह स्वयं जहाँ दूसरे की विचारों की समीक्षा करता है, वहीँ उसके अपने विचार की भी सम्यक समीक्षा होती रहती है. कहना न होगा इस पूरी प्रक्रिया में महिलाओं की उपस्थिति अपेक्षाकृत अधिक है. इस आपसी विचार-विनिमय में, वैचारिक प्रस्तुति में समस्याओं पर स्पष्टता और प्रौढ़ता के साथ जहाँ गहन अनुभूति है तो तीव्र आक्रोश भी. इस क्रम में जब नारी मुक्तिआन्दोलन, महिला सशक्तिकरण और स्त्री विमर्श जैसे विषय जब राजनितिक और सामाजिक क्षेत्र में चर्चा-परिचर्चा का प्रमुख विन्दु बना हुआ है तो भला साहित्य क्षेत्र ही अछूता कैसे रहे? उपन्यासों और कविताओं के माध्यम से इस विन्दुओं को कई बार और कई तरह से उठाया गया है. प्रारंभ हो चुकी इस चिंतनधारा को आगे बढ़ाते हुए अंतर्जाल की संवेदी कवयित्री और विदुषी चिन्तक रश्मि प्रभा जी ने इस नारी-विमर्श के अर्थ को जानने और इसके निहितार्थ को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करने का समसामयिक निर्णय लिया, सहयोगियों के आलेख-निबंधों को संपादित किया और निष्कर्ष रूप में अब यह नारी-तत्व और नारी-अस्मिता पर केन्द्रित एक बहुआयामी साहित्यिक परिचर्चा नारी-विमर्श के अर्थ शीर्षक से ही हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होकर जनमानस के समक्ष प्रकाश में आया है. नारी-विमर्श के क्षेत्र में मंथन तो चल रहा है ... और किसी न किसी बहाने लम्बे समय से चल रहा है. कभी यह जोर पकड़ता है तो कभी नेपथ्य में चला जाता है. आलोच्य पुस्तक की समीक्षा के पूर्व विषयवस्तु की पृष्ठभूमि पर एक संक्षिप्त सिंहावलोकन उचित होगा. इसे हम दो विन्दुओं पर देखेंगे - 
(अ) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 
(ब) दार्शनिक पृष्ठभूमि.

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
पाश्चत्य देशों में पिछले ५-७ दशकों में नारी-विमर्श के नाम पर काफी कुछ विष-वमन हो चुका है.. विष-वमन उन्हें इसलिए कहना पड रहा है क्योकि उनमे प्रायः एकांगी आक्रोश है, विद्रोह है और व्यवस्था को धराशायी करने का प्रबल आह्वान है. यूरोप में सिमोन दि बाउवा की पुस्तक दि सेकण्ड सेक्स और अमरीका में बेट्टी फ्रीडन की पुस्तक दि फेमिनिन मिस्टिक ने नारी अस्तित्व को पुरुष के साथ सह-अस्तित्व की अवधारणा से अलग एक स्वतंत्र निकाय के रूप में देखने और प्रचारित करने का प्रयास किया. इस आन्दोलन की प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय चेयरपर्सन चुनी गयी अस्तित्ववादी चिन्तक सिमोन दि बाउवा. सिमोन ने दो काम किया- पहला, नारी को पुरुष से अलग कर दिया और नाम दिया अन्या और दूसरा काम यह किया कि विवाह नमक संस्था को अनावश्यक घोषित कर डाला तथा नारी स्वतंत्रता के नाम पर मुक्त-सेक्स की मांग कर डाली. गर्भस्थ शिशु को जन्म देने, न देने का पूर्ण अधिकार उसका अपना होगा और बच्चों के पालन का दायित्व सरकार का होगा. यह चिंतन का एकांगी अतिरेक था और विकृत भी. विकृत इसलिए कि बिना विवाह के गर्भस्थ शिशु जब दुनिया में आएगा तो उसका रिश्ता-नाता किसी स्त्री या पुरुष से क्या होगा? क्या विवाह के अभाव में भावी समाज एक पशु-समाज नहीं बन जाएगा जहाँ न कोई किसी का बाप होता है, न भाई, न बहन, न ही अन्य कोई रिश्तेदार .. और दूसरा विकल्प, कोई गर्भस्थ-शिशु जब पैदा ही नहीं होगा, तो क्या धरती पर मानव प्रजाति का विलोपन नहीं हो जायेगा? फिर कैसी सरकार? और किसका पालन-पोषण? इस प्रकार दोनों ही विन्दुओं पर वह अस्वीकार्य था. प्रख्यात चिन्तक और नोबल पुरस्कार विजेता ज्यां पाल सार्त्र ने बिना विवाह सिमोन के साथ एक छत के नीचे दम्पति की तरह कुछ वर्ष व्यतीत किया, परन्तु मतभेद के कारण अलग हो गए और सिमोन का आन्दोलन भी कमजोर पड़ गया. दूसर और अमरिका में बेट्टी फ्रीडन के चिंतन में भी व्यापक बदलाव आया. अपने बाद के अनुभवों को उन्होंने इस प्रकार लिखा मैं नारी आन्दोलन के अभिमानपूर्ण नित्यप्रति के झगड़ों से तंग आ चुकी हूँ,.. शेषकाल अब मैं अपना जीवन जीना चाहती हूँ.. जिस बराबरी के लिए हम लड़े, वैसा जीवन जीने में कुछ गड़बड़ लगता है, ..कुछ धुंधला प्रतीत हो रहा है, इसमें कुछ गलत हो रहा है... मैं पीड़ा और घबराहट के स्वर सुनने लगी हूँ... ८० के दशक में डायना शा जैसी प्रखर महिलाओं ने नारी मुक्ति-समर्थकों की आलोचना की. उनका कहना था समकालीन नारी आन्दोलन ने हमें उन मूल्यों को तिरस्कृत करना सिखाया है जो परंपरागत रूप से स्त्री जाति के साथ जुड़े हुए हैं. यह नारी मुक्ति आन्दोलन नहीं है, इससे मैं थक गयी हूँ... यह तो नारी मुक्ति का लेबल है.. बाद का विमर्श प्रायः इसी त्रिकोण के बीच दोलायमान रहा है.

दार्शनिक पृष्ठभूमि:
पाश्चात्य देशों में नारी समानता का आन्दोलन तीव्र गति से उठा, क्यों उठा इतने आक्रोशित रूप में? इसका कारण है एक दार्शनिक मिथ. वह मिथ यह है कि आदिम स्त्री (हौवा इव) की उत्पत्ति आदिम पुरुष की एक पसली से हुई थी. सिमोन ने इसे जंघे की पसली कहा है. उस पसली के अलग हो जाने से पुरुष कं नहीं हुआ, परन्तु स्त्री तो एक छुद्र अंग ही बनी रही. वह दीन-हिन् बनी रही और पुरुष दम्भी बना रहा. पुरुष के अंतर्मन में वही श्रेष्ठता और नारी मन में वही हीनता का भाव कायम रहा. 

लेकिन भारतीय चिंतन में असमानता वाला मिथ नहीं है.उपनिषद स्पष्ट कहते है कि सृष्टि के प्रारंभ में पुरुष (ब्रह्म) अकेला था. उसने अपना सामान रूप से द्विधा विभाजन किया, दाल के दो फांक की तरह एकदम बराबर-बराबर. वृह. उप.(१.४.३) में महर्षि याज्ञवल्क्य ने इस प्रकार इसकी व्याख्या की है दिव्य पुरुष ने अपने ही शारीर के दो भाग किया, उससे पति और पत्नी हुए जैसे मटर के दो अर्द्ध भाग. अर्ध नारीश्वर रूप. यह उदहारण बताता है की एक के बिना दूसरा अधूरा है. यह बहुत बड़ा अंतर है पाश्चात्य और भारतीय चिंतन में. इस वैचारिक पृष्ठभूमि, परिवेश और वातावरण के आलोक में एकबार पुनः लौटते हैं आलोच्य पुस्तक नारी-विमर्श के अर्थ पर.



                                 - डॉ. जयप्रकाश तिवारी



नोट भाग-२ में आलोच्य पुस्तक नारी-विमर्श के अर्थ पर समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जायेगा. कृपया प्रतीक्षा करे.








8 comments:

  1. भूमिका ने ही बांध लिया फिर समीक्षा का तो कहना ही क्या होगा

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  2. bahut sundar gahan prastuti ..................bhumika ne hi sama bandh liya .pratiksha rehgi doosari post ki bhi , hardik badhai

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  3. kabhi sapne ki ghatiyon me bhi aayiye

    http://sapne-shashi.blogspot.com

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  4. सभी सुधी पाठकों, शुभेच्छुओं को प्यार भरा नमस्कार. आपने इतनी प्रशंसा कर दी और मेरे मित्रों ने पढकर फोन द्वारा अनुरोध किया की इसे अब केवल एक अंक में न समेटिये. इसकअ विश्लेषण कम से कम तीन -चार अंकों में करें. मेरी समस्या यह है की की अपनी सीमा और समर्थ्य्मै जनता हूँ, मगर मित्रगन हैं की मानते ही नहीं. पता कितनी बड़ी उम्मीद लगा लेते हैं. फोन पर मन भी नहीं कर पाया... तब से बैठा हूँ ..आगे हरी इच्छा....

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  5. नारी विमर्श पर सार्थक लेख..

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