Sunday, January 19, 2014

मैं, तुम और माँ




सत्य और आभास,
यथार्थ और सपने
दिन और रात,
पराये और अपने
मैं, तुम और माँ,
त्रिभुज के तीन कोण 
जो जुड़े थे -
प्रेम, सद्भाव, विश्वास से.






त्रिभुज के
शीर्षाभिमुख कोण पर बैठा
देखो न! उलझा हुआ हूँ बहुत से
खट्टे मीठे, चटपटे अटपटे से
लगने वाले बहुत से सवालों से.


तुम्ही बताओ !
यह भी कोई बात हुई
स्वयं से ही लगा हूँ पूछने
कब आओगी तुम?
और उत्तर देता हूँ मैं ही,
तुम गयी ही कब हो?
आज भी तो खड़ी हो यहाँ
याद बन के, संवाद बन के.
क्या मै नहीं जनता
सत्य कि तुम यहाँ नहीं हो
लेकिन दिल मनाता क्यों नहीं?
क्या मेरी सहायता कर सकती हो?
उलझन की इस कठिन घडी में?



तुम्हे याद हो या न हो
मुझे याद है, उसदिन परीक्षा थी
अंतिम वर्ष की प्रयोगात्मक परीक्षा
और मैं भूल गया था
लाना अपना डिसेक्शन बॉक्स
भूल तो गया था माँ के हाथ का
कभी न भूलनेवाला बॉक्स भी.
लेकिन तूने ही दूर किया था
वह समस्या मेरी, उलझन मेरी
अपना डिशक्शन बॉक्स देकर,
डिसेक्शन बोस तो लौटा दिया था
किन्तु मुझे भ गया था तेरा वह लंच
शायद खिला न पाया तुझे वैसा लंच.



माँ कहती थी -
बाहर का खाना मत खाना
किसी का दिया कुछ मत खाना
माँ मुझे रखना चाहती थी
सबसे बचाकरम छिपाकर 
अपने स्नेहिल आँचल के प्रकोष्ठ में,
पहलीबार तूने तब माँ से छीना था.
मैं इस अनजाने कैद को नकारता रहा
बार - बार फटकारता रहा, रास्ते भर,
घर पहुँचा, माँ दौड़ी आयी, डाँट पिलाई
गरम -गरम हलवा बनाकर मुझे खिलाई
लेकिन माँ तो ठहरी माँ, जाने कैसे ताड़ गई?
पूछ बैठी- क्या खाना तूने कहीं और खाई?
हाँ -हाँ और ना -ना के बीच मैंने
सही - सही तेरी सारी बात बताई,
माँ ने झट ले लिया एक निर्णय -
जिसने मुझसे भी अच्छा लांच बनाया
मैं करुँगी अब उसी से तेरी सगाई



और आज..... 
इतने वर्षों  बाद सोचता हूँ
ठगा कौन गया - माँ, मैं या तुम?
माँ तो नहीं है अब इस दुनिया में
लेकिन तुम हो, मुझे नकार कर
ना जाने किस शहर, किस गांव में?
यथार्थ यही है कि तुम यहाँ नहीं हो
सच क्या है - तुम हो या नहीं हो?
नहीं हो तो बात किससे कर रहा ?
हो तो कुछ खिलाती क्यों नहीं?
सदा की भांति खिलखिलाती क्यों नहीं?
क्या आज दूर नहीं करोगी मुझे,
मेरी इस जटिल समस्या से?
जीवन की इस कठिन परीक्षा से?


तब… माँ कहती थी -
किसी का दिया मत खाना
बहार का खाना मत खाना
कोई छीन लेगा मुझे उससे
माँ का डर बेवजह नहीं था
किसी ने छिना था माँ से
मेरे पिता को, कौन थी वो?
माँ ने कभी बताया नहीं,
आज तूने मुझे कहीं का न छोड़ा
माँ ने बड़े विश्वास से रिश्ता था जोड़ा
और तूने उसी विश्वास को तोड़ा,
तेरे व्यक्तित्व का कैसा विरोधाभास?
इसमें क्या है सत्य? क्या आभास?


चाहता हूँ एकबार तू आ जा
मेरी उलझन को सुलझा जा
दुनिया कह रही तुझे बेवफा
आ ! उन्हें कुछ तो बता जा.
वाद रहा, तुझे विदा कर दूँगा
शौक से अपने इन्हीं हाथों, बस
एकबार मुझे मेरा दोष बता जा।
क्या मेरा दोष यह था
कि मैं तुम्हारा सहपाठी था
माँ से तेरी प्रशंसा की थी ?
क्या माँ का दोष यह था
कि तेरे व्यक्तित्व को
उसने मेरे आईने से देखा?
न जाति देखा, न धर्म देखा
न कुल देखा, न स्वभाव देखा,
देखा तो केवल स्नेह देखा
अंतर की कोमल कोपल देखा
संवेदनाएं देखि, प्यार देखा
तेरा वह नेह, समर्पण देखा।


नारी ! तेरे रूप हैं कितने?
ऊपर- ऊपर कितना उज्ज्वल
अंतर में तिमिर घनेरे इतने?
एक औरत ने माँ का घर लूटा
दूसरी ने मुझ पुरुष को लूटा,
यह कैसा चरित्र है जिसने
नर - नारी दोनों को लूटा?
मिट गए माँ - बेटे के सपने
लेकिन फिर भी चाहता हूँ तू आ
टूटने नहीं दूंगा तेरे सपने।
तू जा, वहीँ जा., जहाँ तेरे अपने
किन्तु, वहाँ अब चोरी से न जा
दुनिया कहेगी पता नहीं क्या- क्या?
धोखेबाज, कुलटा और बेवफा भी,
शायद मुझे भी क्रोध आता
वह भी इतना, पता नहीं कितना
यदि तुम मेरी पसंद होती
तू माँ कि पसंद है, इसलिए
तेरी यह ऐडा भी पसंद है।


माँ ने
मुझसे आश्वासन माँगा था
तुझे हमेशा खुश रखने का
बोलो! नाराज हो भी कैसे सकता?
इसलिए शांत भाव से कहता हूँ -
तू आ जा ! मुझसे तलाक-पत्र ले जा
अपना कलंक मुझे थोप जा।
धारण करूँगा यह कालिमा भी
सहर्ष अपने दिव्य भाल पर,
तेरे लिए, हॉ तेरे ही लिए
आखिर मुझे रखना है मान नारी का
हो चाहे वह- प्रेयसी, पत्नी या माँ । 
 

- डॉ जयप्रकाश तिवारी