Sunday, June 7, 2015

तुम त्याज्य हो 'का-पुरुष' ! (लघु कथा)

कहते हो -
रिश्ते को तूने मजबूरी मे छोड़ा!
लेकिन छोड़ा, तुम्ही ने उसे तोड़ा !
कैसे मर्द हो?
मर्द हो? या खुदगर्ज हो?
तुम माहौल बदल सकते थे
परिस्थितियों मे अनुकूलता रच सकते थे
परिवार तो परिवार ही है आखिर
तुम्हारे ताप से सब पिघल सकते थे ,
तुम्हारी चाहत मे तीव्रता होती तो
गालों पर लुढ़कते मेरे ये गरम आँसू
तेरी आँखों से भी बह सकते थे ।
मैंने कब चाहा था यह
घर वालों के विरुद्ध हथियार उठा लो?
अरे ! भावुक क संवेदना से तो
पत्थर दिल भी पिघल सकते थे ।
किन्तु संवेदनाओं को ढोंग कहने वाले
हृदयहीन, तुम एक का-पुरुष !,
प्रेम का स्वांग रचनेवाले ढोंगी !
संवेदना की गर्मी कब समझ सकते थे?
जान लो - 'विषमता को तोड़ना ही पुरुषार्थ है',
और नारीत्व की चाहत- 'यही पुरुशार्थ' है ।
मजबूरी तो ढाल है-
कुतर्क है- 'क्लीवता की', 'कायरता की' ।
अपमान यह पुरुष का, पुरुषार्थ का..
नारी ले लिए त्याज्य है वह नर
जिसमे भाव नहीं पुरुषार्थ का ।
अब परिस्थितियों का रोना मत रो !
यहाँ दम हिलाने की जरूरत नहीं,
हमने तो वही किया जो कर सकते थे ॥

डॉ जयप्रकाश तिवारी