Thursday, November 11, 2010

Duality in Upanishad उपनिषद् में द्वैतवाद

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।
यमेवैष वृणुते लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्‌॥
- कठोपनिषद् १.२.२३

शब्दार्थः
न = नहीं
अयम = यह
आत्मा = आत्मा या ब्रह्म (God or Brahman)
प्रवचनेन = प्रवचन से, शास्त्र-अध्ययन से
लभ्य = प्राप्त किया जाता है ।
न = नहीं
मेधया = बुद्धि द्वारा,
न = नहीं
बहुनाश्रुतेन = बहुत श्रवण करने से ।
यम्‌ एव एषः = जिस किसी को ही यह परमात्मा
वृणुते = वरण करता है, चुनता है, अधिकारी मानता है, मनोनीत करता है,
तेन लभ्यः = उसके द्वारा ही वह प्राप्त हो पाता है ।
तस्य = उसके लिए (for that Individual Soul)
एषः = यह
आत्मा = आत्मा या ब्रह्म (God or Brahman)
स्वाम्‌ = अपने
तनूम्‌ = स्वरूप को
विवृणुते = उद्घाटित – प्रकाशित कर देता है, उसके प्रति ही वह प्रकट होता है ।

This Atman (God) cannot be attained by mere discourses – by the study of the Vedas, or by intelligence, or by much hearing of the sacred books. It is attained by him alone whom It chooses. To such a one Atman (God) reveals Its own form.

इस उपनिषद् मन्त्र में मुख्य बात यह कही गई है कि ईश्वर साक्षात्कार के लिए साधक को अपनी योग्यता बनानी चाहिए । केवल योग्य व्यक्ति ही इस कार्य में सफल हो सकता है । शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म तथा शुद्ध उपासना सम्पन्न साधक को ईश्वर योग्य – अधिकारी समझ कर अपने अत्यन्त विचित्र, अलौकिक व परम कल्याणकारी स्वरूप का परिज्ञान = साक्षात्कार समाधि अवस्था में कराता है । केवल शाब्दिक ज्ञान, प्रवचन-कौशल, श्रवण, तर्क शक्ति इत्यादि से व्यक्ति ईश्वर साक्षात्कार नहीं कर पाता । ईश्वर की दृष्टि में हम योग्य बने तब ही सफलता मिलती है, अन्यथा नहीं । इस मन्त्र पर विचार करने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उपनिषत्कार ईश्वर तथा जीव के भेद को भी मान्य करता है । जैसे कि –

(१) यहां ब्रह्म-प्राप्ति की बात की गई है । ब्रह्म को कौन प्राप्त करना चाह्ता है? – जीव । ब्रह्म स्वयं अपने को प्राप्त करना या अपना ही साक्षात्कार करना चाहता है - ऐसा कहना तो सर्वथा अनुचित है ।

(२) प्रवचन, श्रवण, मेधाशक्ति का प्रयोग – ये सब कर्म - क्रियाएं अल्पज्ञ जीव ही करता है, सर्वज्ञ ब्रह्म या ईश्वर नहीं ।

(३) ईश्वर या ब्रह्म अपना स्वरूप किसको प्रकाशित करता है? – जीव को ।

अतः यही सिद्धान्त ठीक है कि ईश्वर (ब्रह्म = परमात्मा) और जीव (=जीवात्मा) एक नहीं हैं, परन्तु पृथक्- पृथक् हैं । उपनिषद् अद्वैतवाद का समर्थन नहीं, बल्कि प्रकारांतर से खण्डन ही करता है ।