Wednesday, August 17, 2011

चकवी की आस आज फिर टूटी


कूक रही है कोयक काली,
संध्या की रक्तिम ये लाली.
ऊपर नभ में घटा घिरी है,
नीचे फैली है - हरियाली.

देखो प्रकृति का खेल निराली,
सुरभित मंद पवन मतवाली.
छाई कपोल में देखो लाली,
तुम छिपे कहाँ हो बनमाली?

कूक पिक की हो गयी बंद,
मिल गया उसे पिया का संग.
जाने क्यों भाग्य उसकी है फूटी?
चकवी की आस आज फिर टूटी.

देखकर तप-त्याग चिरैया की,
तरु ने पत्ते भी त्याग दिया.
लेकिन वह कितना है निष्ठुर,
अब तक न उसे है याद किया.

सुनेगा कौन उसकी फ़रियाद?
न जाने कब से कर रही है याद?
कब छातेगी यह रजनी की बेला?
कब आएगा उज्ज्वल प्रात सवेरा?