Thursday, December 16, 2010

नेत्र बनाम चक्षु



बैठा था एक दिन साधना पर
सहसा मन में यह प्रश्न उठा.
'नेत्रों' से नहीं जो देख सका,
हुआ 'चक्षु' से संभव कैसे ?

एक उठी चेतना सी मन में,
मन भी अब कुछ गंभीर हुआ.
वह भूल गया सारी चंचलता,
गुह्य ज्ञान की अब व्याकुलता.

यह नेत्र 'त्रयी' का पोषक है.
बसते - काम, क्रोध और लोभ.
यह नेत्र काम का कारण है,
नेत्र ही काम का जारण है.

नेत्र यह है - चंचल अपार,
लालची, यह धन का लोभी है.
राज्य भोग छोड़ा था जिसने,
उसे आज लोभ ने घेरा है.

नेत्र ने ही फंसाया सीता को,
हम दोष स्वर्णमृग को क्यों दे?.
दम्भ ने फंसाया रावण को,
सारी लंका को दोष क्यों दे?

फांसा था क्रोध ने क्रूर कंस को,
संबंधो को हम दोष क्यों दें ?
काम ने फंसाया नारद को,
मोहिनी को हम दोष क्यों दे ?

है किसको छोड़ा नेत्रों ने ?
अपने स्वभाव में पक्का है.
हम दोष उसे फिर क्यों दे ?
संकल्प तेरा जब कच्चा है.

संकल्प तेरा जब पक्का होगा,
तब दिव्य चक्षु खुल जायेंगे.
अब तुझे नहीं कुछ करना है,
चाबी तब सद्गुरु खुद लायेंगे.

है काया यह जिनका निज गृह,
बंद किया उसी ने ताला है.
सौपी है चाबी देख उन्हें,
पी रहे जो 'स्नेह की हाला' हैं.

वात्सल्य की अनुरक्ति में देखो
माताओं ने 'चक्षु' को पाया था.
साख्य भाव में हो के समर्पित
पार्थ ने भी 'चक्षु' को पाया था.

सबने निज नेत्र गवाया था,
बदले में इसको पाया था.
चक्षु प्रतीक है चार तत्त्व का,
अपने अंतर के 'पुरुषार्थ' का.

जोड़ो 'धर्म' को 'अर्थ' से भैया,
'काम' को जोड़ो 'मोक्ष' से.
होता देखो फिर आगे क्या?
तुम्ही बताओ मै बोलूं क्या?
 
दिव्य नेत्र ही चक्षु है,
मलिन चक्षु है -'नेत्र'.
इसके आगे की चर्चा,
स्वयं करेंगे अब 'त्रिनेत्र'. 
.

स्वीकारोक्ति


मै खुले दिल से स्वीकार करता हूँ की मेरे ब्लॉग पर तीन रचनाये ऐसी हैं जो मेरे द्वारा रची नहीं हैं....वे मुझे अच्छी लगी, लोक मंगलकारी थी और भारतीयता को प्रकट कर रही थी, उन्हें मैंने अपने ब्लॉग पर भारतीयता के प्रचार-प्रसार और उससे अपने विचारों की साम्यता प्रकट करने के लिए दिया था. अब कुछ मित्रों ने मेरी इस त्रुटि की ओर ध्यान दिलाया है. यह मारा स्पष्टीकरण है,  मूल लेखको से विनम्रता पूर्वक अपना दोष स्वीकार रहा हूँ. तीनो रचनाओं का नाम निम्न लिखित है ---
!- उपनिषद् में द्वैतवाद
२-आइन्तीं टगोर परिचर्चा
३-आइन्स्टीन टगोर परिचर्चा का हिंदी अनुवाद.