Saturday, February 15, 2014

समस्या मानव के शाश्वत प्रश्न की

सुख और शांति ही तो
शाश्वत मांग रही है मानव की
इसी के लिए रचता रहा है प्रपंच
करता रहा है उपयोग-दुरुपयोग
अपनी तीक्ष्णबुद्धि और चेतना का,
मानव मन झूलता ही तो रहा है
सदा से, सतअसत के बीच,
और दोलित होता रहेगा वह
पता नहीं कब तक  ... ,
इस सत और असत के बीच 
कभी अकेला निर्जन एकांत मे,
कभी संगठित किसी समाज मे
वह होता रहा है लगातार दो-चार
मन मस्तिष्क मे हिलोरें ले रही
जिज्ञासामय उत्कंठित तरंगों से।  

मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ?
क्या विश्व अंतिम सत्य है?
क्या समाजसेवा, लोकसेवा ही
अभ्युदय है? नि:श्रेयस है?
क्या लोकमंगल के लिए
जूझ मरना ही है उत्सर्ग?
और सर्वोच्च अंतिम आहुति?
अथवा
सम्पूर्ण जगत ही है निस्सार?
और वैराग्य है आत्मज्ञान का
प्रथम परिष्कृत सोपान?
क्या चित्त-वृत्ति निरोध ही है
सर्वोच्च साधन नि:श्रेयस का?
और अहं का विलोपन ही है
सच्चा उत्सर्ग? अंतिम आहुति?
जिसके लिए रहना चाहिए
सभी को सदैव तैयार?
और यह मोक्ष – कैवल्य - निर्वाण
संकल्पना है, भ्रमजाल है या सत्य?
इस पर गहन चिंतन मूढ़ता है
या मानव चेतना का विकास?
क्या कोई और स्थिति हो सकती है 
इसका समुचित स्वीकृत विकल्प?

        
         (ii)
इन प्रश्नों मे अंतर्निहित है
धर्म और विज्ञान का द्वंद्व,
प्रचलित हैं विभिन्न धर्मों-मतों के
संगत-असंगत, उचित-अनुचित दावे,
साथ ही कम नहीं है, कहीं से भी
लौकिक-समाज के समाजशास्त्रीय दावे।
विचारणीय विंदु यह है कि
धर्म का अस्तित्व मानव जीवन मे
आरोपित है या संस्कारगत?
यदि आरोपित है तो निश्चय ही
उलझा रहा है मानव अब तक
अंधविश्वासों के इस भ्रमजाल मे,
और आज मुक्त हो जाना ही
सर्वथा उचित है इस भ्रमजाल से।
किन्तु धर्म यदि है-
मानवीय संस्कार की उपज तो
स्वीकारना होगा उसका अस्तित्व,
उसका सार्वकालिक महत्व और
धार्मिक दावों का बना रहेगा
यूँ ही अपना अलग महत्व॥

चिंतन तो नित गतिशील है
कबीलाई जादू-टोने-टोटके से
बहुदेववाद, और बहुदेवाद से
एकेश्वरवाद की इस यात्रा मे है 
प्रगतिशील, गतिशील, उन्नतिशील।
अब प्रश्न है, यह एकेश्वरवाद
विज्ञान का जड़वाद है?
या धर्म का अध्यात्मवाद?
यह विज्ञान का न्यूट्रोन है या
अध्यात्म का अर्द्ध-नारीश्वर?

यदि धर्म मात्र पूजा-आराधना तक ही
सीमित, तो है यह भ्रमजाल और यदि
है इसका परिणाम अभ्युदय-नि:श्रेयस
तो है यह पूरक विज्ञान का,
यह मार्गदर्शक भी है विज्ञान का।
और अब तो धार्मिक शब्दावली का
खुला प्रयोग करने लगे हैं शीर्ष वैज्ञानिक भी।
आइंस्टीन कहते हैं – “गॉड प्लेज डाइस”,
तो स्टीफेन हकिंग कहते हैं –
“गॉड डज नॉट प्ले डाइस”॰
यदि इस बहस को छोड़ भी दें कि
किसका उत्तर है सत्य, किसका असत्य
परंतु प्रमाणित हुआ फिर भी यह तथ्य
ईश्वर है, वह लीला करता है, लीलाधर है
यही तो कहता आया है भरता सदियों से
बारंबार, अनेक रूपों मे, अनेक प्रकार से॥


            (iii)
आज भी कुछ लोग
ग्रसित है अपने ही विचारों से
वे कहते हैं, न करो साझा
किसी और को उसके साथ,
क्योकि पसंद नहीं उसको
किसी भी और का साथ,
तो क्या वह ईर्ष्यालु है?
इसपर वे कहते हैं-
वह परम कृपालु, दयालु है
उसके अंग-प्रत्यंग से
स्नेह का निर्झर झरता है
न्याय-झरना कलकल बहता है,
सोचता हूँ, तब वह
इतना तंगदिल कैसे हो सकता?
क्या उसके आसन पर, बगल मे
किसी के लिए भी स्थान नहीं?
क्या कोई गोद मे नहीं बैठ सकता?
उसके कंधे से झूल नहीं सकता?
उसके सिर को सहला नहीं सकता?
इतना भी धैर्यवान, सहनशील,
और स्नेहमयी यदि नहीं है वह,
तो फिर एक पिता वह कैसे?
और जो पिता नहीं बन सकता
वह जगतपिता हो सकता कैसे?
जगन्माता, जगन्नियंता कैसे?
यदि है वह शक्तिमान तो
शक्ति कैसे हो सकती बाधा?
वे तो बताते भी नहीं कि
वह पुरुष है या नारी?
लिंगी है या अलिंगी?
कुमार है या कुमारी?

वे कहते हैं – तू चुप रह!
तू नास्तिक है, मूर्ख है, वाचाल है
तू काफिर है, फिरंगी है, बहुरंगी है।
पूछता हूँ –
वह है जब एक अकेला,
वही जब सर्जक सारे जग का
तो रचकर जगत, परे इसके
रह सकता बहुत दूर वह कैसे?
अपने ही बच्चों से अलगाव
सहन कर सकता वह कैसे?
वे कहते हैं-
वह है असीम, अनिश्चित,
एक अनिवार्य सृजन सत्ता,
कहते नहीं थकते विलक्षण उसको
कृपाशील, दयावान भी उसको,
उसी का फिर लक्षण बतलाते
उस दयावान का भय दिखलाते।

जब पूछता हूँ-
वह आत्मनिष्ठ है या वस्तुनिष्ठ?
अथवा परे है निरा इन भेदों से?
वह सर्वदेशीय है या एक देशीय?
वह विराज है, सूक्ष्म है या महान
या है अणुरोअणियम महतो महीयान?  
जब वह है अज्ञेय और अव्याख्येय
समझ के परे, तो कैसे जान गए आप
उसके अन्तर्मन की गूढ-गोपनीय बात?
वे नाराज हो जाते, हाथ मे डांडा उठाते॥
  

        (iv)
मैंने अबतक यह समझा
संप्रदाय हैं अनेक, धर्म है एक
संप्रदाय पंथ काया हैं, धर्म के
आत्मा नहीं बन सकते वे धर्म के,
धर्म है अस्तित्व, धर्म ही सत्ता
जिसकी अनुपस्थिति से मिट जाए
अस्तित्व, बदल जाए संज्ञा
वही है धर्म, यही उसकी महत्ता,
शब्द और अज्ञान मिलकर
सृजित करते संप्रदाय की सत्ता,
सत्य है एक, परम तत्व एक
लेकिन व्याख्या वाले शब्द अनेक,
भाषा, शैली, और विधि अनेक
व्यक्ति अनेक, ग्रंथ अनेक, पंथ अनेक।
इसी अनेकत्व ने किया है विकसित संप्रदाय
सभी भटक रहे, समझने का अब क्या उपाय?
जो विलक्षण है, उसका लक्षण कैसा?
फिर भी वे शब्दों का भ्रमजाल फैलाते,
सत्य तो होता भी नहीं अभिव्यक्त
शब्दों द्वारा, फिर भी वे समझते हैं
हमे अपने शब्दों के द्वारा ।  
कहता हूँ- ऊपर उठो!
विचारों से, तर्क से, शब्दों से
तब जान पाओगे निर्विचार को
निर्विकार को, शब्दातीत को,
शब्द तो हैं संकेतक मात्र
हम तो शब्द का अर्थ करते हैं
उसमे भी मनमानी करते हैं।
शब्दों की अपनी सीमित शक्ति,
अभिधा-लक्षणा-व्यंजना तक जाती
आगे उसके रुक यह जाती,
अब संकेत-प्रतीक आगे गति करते हैं
थोड़ी और आगे तक दूरी तय करते हैं।

लेकिन
शब्दों-प्रतीकों के प्रति आग्रह ही
पूरी की पूरी बात ही बदल देता
पूरा संदर्भ अब पीछे छूट जाता
और अब उन शब्दों, प्रतीकों की ही
अपनी-अपनी मीमांसा प्रारम्भ हो जाती।
सत्य छिप जाता पीछे और हम
उलझ जाते है शब्दों मे, प्रतीकों मे,
आधुनिक भाषा विश्लेषणवादी
आज क्या कर रहे हैं?
शब्दों मे ही तो उलझ रहें हैं
परिणामतः शब्दजाल फैल रहा है
कलह, द्वेष, नफरत फैल रहा है।

तो क्या सत्य सर्वथा अज्ञेय है?
नहीं, सत्य अज्ञेय तो नहीं,
लेकिन अव्याख्येय अवश्य है,
ज्ञेय है यह, मात्र सत्यानुभूति से
साक्षात्कार से, स्व के बोध से,
सत्य साक्षात्कार के लिए हमे
पंथ और संप्रदाय छोडना होगा।
शस्त्र वचन त्रुटिपूर्ण नहीं हैं
त्रुटिपूर्ण है हमारा ही अर्थ
हमारा निहितार्थ, हमारी व्याख्या,
क्योकि शस्त्र वचन हमारे द्वारा
न दृश्य हैं, न श्रव्य, वे परंपरागत हैं,
अर्थ और निहितार्थ परंपरागत हैं
सत्य प्राप्ति के लिए करना होगा तप
करो चाहे यज्ञशाला मे या प्रगोगशाला मे,
लेकिन इसके लिए तैयार नहीं हम
हमे चाहिए पकापकाया भोजन
रसोइया बनने को तैयार नहीं हम ॥ 

-    डॉ॰ जयप्रकाश तिवारी