Sunday, April 7, 2013

‘नारी-विमर्श के अर्थ’ का निहितार्थ -2


  

                                                      (भाग २)

रचनाकारों की कलम से नारी-विमर्श का अर्थ:
विमर्श का शाब्दिक अर्थ लिया जाये तो सलाह (परामर्श).. नारी विमर्श पश्चिमी देशों से आयातित एक संकल्पना (सामान्य विचार) है. इंग्लॅण्ड और अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में फेमिनिस्ट मूवमेंट से इसकी शुरुआत हुई. यह आन्दोलन लैंगिक समानता के साथ-साथ समाज मेबराबरी के हक के लिए एक संघर्ष था, जो राजनीति से होते हुए साहित्य, कला, एवं संस्कृति तक आ पंहुचा, बाद में यह आन्दोलन विश्व के कई देशों से होता हुआ भारत तक पंहुचा. - विभा रानी श्रीवास्तव

समाज में नारी के प्रति जाग्रति लाना तथा नारी के अस्तित्व की, पहचान को स्थापित करने के प्रयास को ही नारीवाद अथवा नारी विमर्श कहा जाता है.  -पल्लवी सक्सेना

स्त्री विमर्श ने असली जमा तभी से पहना जब से महिलादिवस और स्त्री सशक्तिकरण जैसे मुद्दों और दिनों की शुरुआत हुई... स्त्री विमर्श का सम्पूर्ण अर्थ तभी मायने रखता है जब हम उसके न केवल सकारात्मक बल्कि नकारात्मक पहलू पर भी ध्यान दें. - वंदना गुप्ता

नारी विमर्श आज अधिकारों की स्वतंत्रता की आसपास केन्द्रित हो गया है. काकी-कहीं तो यह विमर्श पुरुष के प्रति विद्रोह और पुरुषविहीन समाज की अव्यवहारिक कल्पना तक जा पंहुचा है.  -डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र

नारी विमर्श क्या है? पुरुष की नजर में कहूँ तो इस विमर्श का सम्बन्ध नारिसौन्दरी, नारी का पहनावा, नारी उत्पीडन , नारी का दुःख , नारी की कमजोरियों से ही होता है. और नारी की नजर में नारी विमर्श का सीधा सम्बन्ध अपनी शक्तियों से परिचित करवाने से है.- गुंजन झाझरिया गुंज

नारीउत्थान की बांते मुझे अक्सर मुखशुद्धि की तरह लगती हैं कि जो कुछ भी खाने के बाद हम खाना चाहते हैं तो सिर्फ अपने उच्छ्रिवासों सुवासित करने के लिए.  - मुकेश कुमार तिवारी    

जब कहीं नारी विमर्श की बात चलती है तो वहां अत्याचार चाहे स्त्री द्वारा हो या पुरुष द्वारा सिर्फ नारी पर होते अत्याचार की बात ही सामने आती है व उसकी दुर्दशा का बखान किया जाता है. बहुत कम जगहों पर नारी उत्थान की बात उसमे शामिल होती है और इस प्रकार चर्चा अधूरी रह जाती है.  -सुनीता पाण्डेय

यह रही एक चार दीवारी जो पाठक की जिज्ञासा को विषय वस्तु के लिए एक आधार भूमि का कार्य करेगी. यह नारीविमर्श की यह चर्चा अधूरी न रहे ऐसा मेरा प्रयास रहेगा. तो आइये जानते है इस विमर्श के मनोविज्ञान को.

नारी-विमर्श का मनोवैज्ञानिक अर्थ:
क्या आपने कभी सोचा है की मानवमन विपरीत लिंग की और आकर्षित क्यों होता है? मैं यहाँ बायोलोजिकल आवश्यकता की बात नहीं कर रहा. यहाँ मनोवैज्ञानिक चर्चा हो रही है जिसका आधार फ्रायड का दर्शन नहीं, भारतीय दर्शन है. इस परिचर्चा के भाग-१ (भूमिका भाग) में इसका संकेतन किया जा चुका है. कोई भी वास्तु जड़ हो या चेतन, अपने मूल से दूर होने के बाद उससे पुनः जुड़ना चाहती है. यह प्रकृति का सर्भौमिक हूँ है. अंश, अंशी से मिलने के लिए सदैव बेकरार और आग्रही रहता है. गृह-पिंड और वतुओं के बीच परस्पर आकर्षण इसी कारण है. पृथ्वी सूर्य से बंधी है तो चन्द्रमा पृथ्वी से, और सूर्य-पृथ्वी-चन्द्रमा, ये सभी आकाशगंगा से. क्रमशः श्रंखलाबद्ध हैं सभी. .. और अंततः सभी मूल कृष्ण विवर (ब्लैक होल) से बंधे हैं. भारतीय दर्शन इसे ही हिरण्यगर्भ कहता है. हिरान्यगार्भ सूक्त की अंतिम पंक्ति में इस हिरान्यगार्भ को प्रजापति (ब्रह्मा) कहा गया है. यह हिरण्यगर्भ ही सृष्टि का प्रथम और प्रलय का अंतिम आधार है.ज्ञानी-विज्ञानी सभी इसे मानते हैं, अब संज्ञा और परिभाषा चाहे जो दें.

हमें सत्य अच्छा क्यों लगता है? सौदर्य और शुभत्व क्यों मन मोह लेते हैं? अच्छाई चाहें कहीं भी हो, बैरी में हो तो भी एक बार अच्छी जरूर लगाती है, आखिर क्यों? इसलिए मूल तत्व का गुण ही वही है–‘सत्यमशिवमसुन्दरम. मूलतत्व, परमतत्व ब्रह्म है. इस ब्रह्म का स्वरूप है सच्चिदानंद (सत+चित+आनंद). ब्रह्म के द्विद्धा विभाजन से बिछुड़कर दो अंग होने जाने के कारण पुरुष और स्त्री रूप में अलग-अलग हो गए हैं. अपने मूल उत्स से मिलने की चाह में दोनों परस्पर जुड़कर एक हो जाना चाहते हैं. एक होने की यह चाहत सामाजिक क्षेत्र में प्रेम की संज्ञा पाती है और आध्यात्मिक क्षेत्र में भक्ति की. स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे हैं, वे घुल-मिलकर ही पूर्णता को, आनंद को, सच्चिदानंद को प्राप्त कर सकते है. इसी आनंद के लिए जाने-अनजाने वे एक दूसरे की ओर आकर्षित होते भी हैं और करते भी हैं. भले ही स्वयं मानव को इसका बोध हो अथवा न हो. पुरुष तत्व और नारी तत्व मिलकर युग्मरूप मिलकर ही सार्थकता प्रदान करते है. लौकिक उदाहरण से इसे इस प्रकार समझा जा सकता है

पुरुष यदि विजय है, तो नारी है उसकी विजयाशक्ति.पुरुष यदि दीपक है, तो स्त्री है उसकी ज्योति, रश्मि, किरण और प्रभा. एक दूसरे के अभाव में है ज्योतिहीन मृत्तिका मात्र.  पुरुष यदि मकान है, तो नारी है-गृहलक्ष्मी. दोनों मिलकर घर बनाते हैं. एक दूसरे के अभाव में वह है- मात्र एक ढांचा, ईंट की चारदीवारी का और कंक्रीट की छत का.इसी प्रकार नारी यदि पूजा है, आराधना है, तपस्या है, वंदना है, तो पुरुष है प्रसाद. नारी यदि पुष्प है, सुमन है, कुसुम है, चम्पा, चमेली, गुलाब है, तो पुरुष है माली. नारी ख़ुशी है, शांति है, प्रगति है, सौन्दर्य है और यही तो मानव का लक्ष्य है. पुरुष इन्हें सदैव ढूंढता रहता है. पुरुष के जीवन में इनका अभाव ही उसे अमर्यादित - कुकर्मी - बलात्कारी - हैवान और राक्षस बना देता है. इसी प्रकार नारी जीवन में पुरुषोचित तत्वों का अभाव ही उसे पतित कर उसे कुलटा - कुलक्षिणी - वैश्या - राक्षसी बना देता है.

परमतत्व का अंग होने के कारण संरचना की दृष्टि से भले ही अलग-अलग सांचे में ढले हों, वास्तविकता यही है कि प्रत्येक पुरुष मन में नारी तत्व का वास है, तो नारी मन में पुरुष का निवास. पुरुष मन में जो सुकोमल संवेदनाएं है वे वे न्नारी तत्वा के कारण हैं, इसी प्रकार नारी मन की सुदृढ़ संकल्पनाएँ पुरुष तत्व के कारण है. गुरु नानकदेव ने इसीलिए कहा था – “नारी पुरखु, पुरखु सब नारी. सब एको पुरखु मुरारी. इसलिए पुरुष को जब पुरुष बनकर सफलता नहीं मिलती, तो वह नारी बनकर सफलता प्राप्त करता है. निर्गुण संतों ने नारी बनकर प्रभु-भरतार को प्राप्त किया था, तो रसानुभूति के लिए राधा ने भी कई-कई बार कान्हा रूप धारा, पुरुष होने का स्वांग रचा था. हां, मीरा प्रभृति संत को पुरुष नहीं बनना पड़ा. अपने  को जागृत कर ही उन्होंने प्रभु-भरतार को प्राप्त किया था. इस दृष्टि से मीरा को श्रेष्ठतर मानना पड़ेगा. मीरा ने दो विवाह किया था- एक लौकिक विवाह भोजराज के साथ और एक अध्यात्मिक विवाह गिरिधर गोपाल के साथ. भारतीय परिवेश में विवाह पवित्र गठबंधन है. यहाँ मानव-तन जड़ होने के कारण यदि विपरीत लिंग की और आकर्षित है तो चेतन-मन चैतन्य होने के कारण भाव-साम्य, भाव-एकत्व और भावनात्मक पूर्णता के लिए आकर्षित है.

अब बात यदि पाश्चात्य देशों की करें तो वहां ऐसी ललक, ऐसा उत्साह और उमंग नहीं है क्योकि वहां दर्शन और चिंतन में ही समानता का भाव नहीं है. वहां पुरुष की स्थिति उस गोजर की तरह है जिसकी एक टांग अलग हो जाने के बाद भी उसके क्रिया-कलापों पर प्रभाव नहीं पड़ता, उसके समस्त कार्य-व्यापार निर्बाध चलते रहते हैं. श्रेष्ठता के दंभ में यदि पुरुष फूला-फूला दम्भी बना रहता है, तो नारी भी उस एक टांग को लेकर गोजर से जुड़ने को उतावली नहीं रहती. अपितु अपने को हीन मानकर घुटती रहती है और बाहर-भीतर कार्य करते हुए भी इस असमानता को दूर कर बराबरी के लिए छटपटाहट का एक भाव कहीं न कहीं मन में दबा पड़ा रहता है और जब भी अन्कुरण के लिए अनुकूल परिष्ठितियाँ मिलाती हैं, वह आक्रोश छलक पड़ता है. वहां यदि पुरुष और स्त्री में लगाव या आकर्षण है भी तो वह मात्र दैहिक है, बायोलोजिकल है. वहां फ्रायड का मनिवैज्ञानिक सिद्धांत कार्यरत है. वहां विआह एक समझौता है, इसलिए यदि विवाह संस्था का अवमूल्यन किया जाता है अथवा विवाह को अस्वीकार/अमान्य घोषित किया जाता है, विवाह से अस्वीकृति की जाती है तो बहुत आश्चर्य नहीं होता. आश्चर्य तब होता है जब वहां स्त्री अधिकार के नाम पर नारीत्व और मातृत्व को नकार देती है. अपने अधिकार के लिए वह नारे लगाती है, आन्दोलन करती है और इसे क्रान्ति का नाम देती है. यह क्रांति शब्द सुनने में बहुत अच्छा लगता है. इस छोटे से शब्द में एक नया इतिहास लिखने और पुराने को बदलने की शक्ति है. लेकिन आज क्रांति के नाम पर नारी ने सिर्फ अपनी जिद दिखलाई है. शायद इसी लिए सकारात्मक परिणाम नहीं दिखाई देते हैं और स्थिति बद से बदतर होती चली गयी है. इससे बदतर स्थिति और क्या होगी जब एक स्त्री स्त्रीत्व से ही इंकार कर दे. नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति का प्रश्न आज सर्वाधिक विचारणीय प्रश्न है. इससे मुख मोड़ना आत्मघाती होगा. आचार-विचार में यह परिवर्तन सैद्धांतिक शब्दविन्यास के कारण है या अर्त्दुर्बोधता के कारण ? बिना इस मर्मभेदन के स्वतंत्रता का लक्ष्य, इसके उद्देश्य की पूर्ति संभव है क्या? 

इस क्रांति के बाद इन देशों में क्या स्थिति है आइये जानते हैं एक प्रत्यक्षदर्शी से इतनी क्रांति के बाद बहुत से क्षेत्रों में अपना अधिकार पानेवाली यूरोपीय नारी आज अनेक मानसिक और शारीरिक परेशानियों से गुजर रही है. हे क्षेत्र में स्वतन्त्रता इस देश की परंपरा है. पर इसकी वजह से छोटी उम्र की मों की संख्या भी बढ़ी है और तलाक की संख्या भी. अतएव पाश्चात्य प्रभाव के कारण उस परंपरा में यदि अधिकारों की मांग और आन्दोलन होते हैं इन विकृतियों से बचने के लिए श्रेष्ठतर तो यही होगा इस आन्दोलन की धारा को उचित दिशा में मोड़ा जाए. (दामिनी जैसों के साथ सबकी संवेदनाएं हैं, उसमे क़ानून अपना काम करेगा, और कड़े कानून भी बनने चाहिए.यहाँ बात तुल्मात्मत हो रही है और उसी रूप में इसे लेना चाहिए.) पाश्चात्य और भारतीय परिवेश में मान्यताओं में भिन्नता के कारण एक ही शब्द स्वतंत्रता और मुक्ति की परिभाषाएं भी बदल जाती हैं     
 “मुक्ति चाहती है स्त्री / उठा था यह नारा पश्चिम में / उठा था किन्तु हजारों वर्ष पूर्व भारत में भी / मुक्ति चाहता है मानव / मुक्ति किससे? / अपनी भीरुता से, अज्ञान से, अशिक्षा से / मुक्ति प्रमाद से, जड़ता से, रुढियों से / भला कौन नहीं चाहता ऐसी मुक्ति / पर नहीं, नारों में खो जाते हैं मूल प्रश्न / कोई नहीं सोचता इस मूल मुक्ति की बाबत / तथाकथित मुक्ति मिली भी तो नारीत्व से / जो उसका गौरव था /.. पुरुषविहीन जीवन को अपनानेवाली स्त्री / क्या एकांगी नहीं होती गयी /.. अर्द्ध नारीश्वर की अमूल्य खोज / जगत को देने वाले इस देश में / हास्यास्पद जान पड़ती है स्त्री विमर्श की बात.

भारतीय परिवेश में मनुहार और प्रायश्चित की पुरानी परंपरा है. इस मनुहार में जो गहराई है, वह एक्स्क्युज मी में कहाँ? इस मनुहार की परंपरा को विकसित करना पड़ेगा. एक्सक्यूज मी का प्रयोग हमारी भावनात्मकता को, संवेदना को बहुत हलकी कर देता है, कार्यालय के लिए तो ठीक है लेकिन मनुहार से पारिवारिक जीवन में जो सर्जनात्मक ऊर्जा प्रतिक्रिया स्वरुप मिलती है उसका कोई जवाब नहीं है.विचारक ने इस मनुहार को पुरुष का स्तुत्य प्रयास कहा है और नारी से भी इसी तरह की अपेक्षा की है एक गुनगुनाता हुआ शर्मिला सा सुकोमल नारीमन, यदि चुप हो जाय तो उसका मनुहार होना चाहिए, स्तुत्य है इस व्यथा निवारण का यह पुरुष प्रयास. परन्तु एक चुप हो चुके पुरुष मन को, मानाने और गुदगुदाने का, समझने और समझाने का नारी प्रयास क्या अर्थहीन है? औचित्यहीन है? और क्यों? सामंजस्य और भावसंतुलन के स्थान पर उसे पाषाण पुरुषकी संज्ञा, आखिर  है क्या? क्रूरता या कायरताकौन करेगा निर्णय? किसने देखा है - पाषाण पुरुष की बेजान चुप्पी में, उसके गहन गाम्भीर्य शान्ति में वल्लियों  उठ रहे कलोल और कोलाहल को? शान्ति सागर में हिलोरें मार रहे ज्वार- भाटा को? क्या यह अवमूल्यन नहीं, चेतना का? बौद्धिकता काचिंतन की वेदना कासंवेदना की स्वतन्त्रता का?

                                              -          डॉ. जय प्रकाश तिवारी


नोट मित्र मंडली के आग्रह पर मूल समीक्षा से पूर्व 'रचनाकारों के कलम से', तथा 'मनिवैज्ञानिक अध्ययन शीर्षक' को जोड़ा गया है . शेष भाग -३ में. कृपया प्रतीक्षा करें.

5 comments:

  1. नर नारी एक दुसरे के पूरक है,सीधे शब्दों में में कहा जाय तो स्त्री और पुरुष एक दुसरे के बिना अधूरे है!!!

    RECENT POST: जुल्म

    ReplyDelete
  2. जब कहीं नारी विमर्श की बात चलती है तो वहां अत्याचार चाहे स्त्री द्वारा हो या पुरुष द्वारा सिर्फ नारी पर होते अत्याचार की बात ही सामने आती है व उसकी दुर्दशा का बखान किया जाता है. बहुत कम जगहों पर नारी उत्थान की बात उसमे शामिल होती है और इस प्रकार चर्चा अधूरी रह जाती है.

    ReplyDelete
  3. Nari se hi purush ki utpatti Hoti hai to phir Uska sharirik aur mansik rup se shosad puroshon k dwara qn?

    ReplyDelete
  4. Nari se hi purush ki utpatti Hoti hai to phir Uska sharirik aur mansik rup se shosad puroshon k dwara qn?

    ReplyDelete
  5. नारी-विमर्श तमाम बौद्धिक प्रगति/अगति और वैचारिक संवेदनशीलता तथा निकृष्ट वर्ग की सोच से मुक्ति की सोच और संवेदनात्मक आयाम व स्वर है।

    ReplyDelete