Saturday, October 9, 2010

खोज अदृश्य ऊर्जा की: दृष्टि प्रज्ञान-विज्ञान की




मानव की संवेदनशीलता उसे शांत बैठने नहीं देती, औचत्यपूर्ण प्रश्नों के समाधान की ललक उसे सतत गतिशील और अन्वेषी बनाए रखती है. इस संवेदनशीलता के कई चरण है और कई रूप. कुछ सुन्दर, अतिसुन्दर तो कुछ कुरूप और विद्रूप भी. वर्गीकरण करने वाले मनीषियों ने इन संवेदनशीलों का एक सामान्य रूप निर्धारित किया है (i) तांत्रिक (ii) दार्शनिक और (iii) वैज्ञानिक. सभ्यता के विकास की दृष्टि से इससे असहमत भी नहीं हुआ जा सकता. इन चिंतकों में सबसे बड़ी एकता इस तथ्य में है कि ये सभी अदृश्य सत्ता, (अदृश्य पदार्थ / अदृश्य प्रभावी तत्त्व) का अस्तित्व मानते हुए उसकी खोज में ईमानदारी से प्रवृत्त रहे हैं.(यहाँ वंचको / मायावियों ) कि बात नहीं हो रही. लगभग सभी चिन्तक इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि इस सृष्टि का जितना सत्य ज्ञात है, उससे कई गुना ऐसा सत्य है जो अभी तक है पूरी तरह अज्ञात और अदृश्य. ब्रह्माण्ड में यह अज्ञात / अदृश्य भाग कितना है इसके उत्तर में नवीनतम वैज्ञानिक गणना है - 96 प्रतिशत. थोड़ी और गहराई तक जाँय तो इसमें भी 74 प्रतिशत अदृश्य ऊर्जा (डार्क एनर्जी) और 22 प्रतिशत अदृश्य पदार्थ (डार्क मैटर) के रूप में.

यहाँ यह बतलाना उचित होगा कि जब वैज्ञानिक या चिन्तक अदृश्य शब्द का प्रयोग करते हैं तो वे विद्युत् चुम्बकीय वर्णक्रम के सभी माध्यमों के लिए 'अदृश्य' शब्द का उपयोग करते हैं, केवल नग्न आँखों से या सूक्ष्मदर्शी से न दिखने वाले पदार्थ के लिए नहीं करते. अतएव अदृश्य पदार्थ वह है जो उपकरणों की क्षमता के बाहर है. किन्तु दृश्य जगत सम्पूर्ण ब्रह्नांड का मात्र ४ प्रतिशत है, और इस सामान्य ४ प्रतिशत का भी लगभग ६० प्रतिशत ही अवलोकन में आया है. इस विश्लेषण पर विश्व मोहन तिवारी जी अपने आलेख 'अदृश्य पदार्थ की खोज' में टिपण्णी करते है -"जिस ब्रह्माण्ड का हम ४ प्रतिशत भी नहीं जानते, उस जानने को यदि हम मिथ्या कह दें तो गलती ती नहीं करेंगे, क्योंकि न जानते हुए भी हम समझते हैं की हम जानते हैं." यह टिप्पणी हमें बरबस ही भारतीय अध्यात्म क्षेत्र की याद दिला देती है कि आखिर भारतीय मनीषियों ने इस जगत को मिथ्या - भ्रम और क्षणभंगुर क्यों कहा? और इतने दावे के साथ क्यों कहा कि जगत भौतिक विद्या द्वारा अज्ञेय है. क्यों चेताया हमें कि यह अदृश्य आत्म सत्ता न प्रवचन के द्वारा लभ्य है, न बुद्धि के द्वारा और न भौति यंत्रों द्वारा ही, न यह शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति को लभ्य है और न ही प्रमादी को, न मन्मत्त - उन्मत्त अहंकारी को ही - "नायमात्मा प्रवचेनलभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन .., नायमात्मा बलहीनेनलभ्यो न च प्रमादात्तापसे"

अब प्रश्न यह है कि वैज्ञानिकों ने किस आधार पर अदृश्य की सत्ता को स्वीकार किया? इस प्रश्न का उत्तर वैज्ञानिकों ने पदार्थ की परिभाषा के आधार पर दिया है. पदार्थ है - द्रव्यमान और ऊर्जा का संघात. पृथ्वी और चन्द्रमा का संयुक्त द्रव्यमान, पृथ्वी और चन्द्रमा के अलग - अलग द्रव्य्मानो से अधिक है. यह अधिक द्रव्यमान किसका है? वह आखिर है क्या जो द्रव्यमान में तो है परन्तु दृश्य नहीं. दृश्य न होने के कारण ही इसे अदृश्य कहा गाया. द्रव्यमान की तुलना में अत्यधिक व्यापकता के कारण उसे अदृश्य ऊर्जा कहा गाया. विज्ञानं नहीं जानता की वह पदार्थ है या प्रति पदार्थ? यह प्रति - पदार्थ (anti matter) भी तो नहीं है, क्योकि यहाँ गामा किरने भी नहीं दिखती जो पदार्थ और प्रति-पदार्थ के टक्कर से उत्पन्नं होती है. यह तारे या मंदाकिनियोंके रंग -रूप का भी नहीं है, तो क्या यह ब्लैकहोल के रंग का है काला और डरावना....?

विगत कुछ दशकों में जब से स्टीफें होकिंग, कार्ल सगन, ली स्मोलीन और उनके समीक्षकों की रुझान से डार्क एनेर्जी और डार्क मैटर के प्रति तीव्र रुझान ने वैज्ञानिको को चौकन्ना कर दिया है. उन्हें इस कक्षेत्र में नोबल पुरस्कार की खुशबू सी आने लगी है. यही कारण है कि जैसे ही विज्ञानिकों को ऐसा कोई भी अवलोकन पकड़ में आता है जिसकी व्याख्या प्रचलित सिद्धांतो से नहीं हो रही हो, वे अदृश्य पदार्थ और अदृश्य ऊर्जा की शरण में चले जाते है,

तांत्रिक विधा:
यदि इस अदृश्य सत्ता को नितांत भारतीय द्रष्टि से देखें तो वर्तमान युग में तांत्रिक और झाड-फूंक की अवधारणा को सिरे से नकार दिया गाया है और इसे यहीं पर छोड़ देना श्रेयस्कर है. (यह और बात है की संचार क्रांति के अर्थ युग में अभीभी इस विद्या से अर्थोपार्जन का लुभावना प्रयास, और इससे चमत्कार की बात विभिन्न चैनलों पर आज भी देखा जा सकता है.) परन्तु कुल मिलाकर इतना तो फिर भी मानना पड़ेगा की प्राचीन काल में भी 'अदृश्य की सत्ता' की उपस्थिति का आभास उन्हें था. वर्तमान वैज्ञानिकों की तरह उनकी यह भी अवधारणा थी कि वह 'अदृश्य सत्ता' हमारे चारों ओर व्याप्त है. इस 'अदृश्य सत्ता' के दो रूप थे - (i) सकारात्मक और सहयोगी (ii) नकारात्मक और बाधक. जो नकारात्मक है वह धुंधली है, रहस्यमयी है, क़ाली है, डरावनी और भयकर है. यही काली-रहस्यमय और डरावना शब्द अब गुण वाचक न होकर स्वरुप वाचक हो गाया. जो उपयोगी सार्थक है वह दैवी है, देवी है और जो नकारात्मक है, बाधक है वह शैतान है, प्रेतात्मा है. 'काली' एक शक्ति हो गयी, अलौकिकता से सम्पन्न. अब उसकी पूजा उपासना होने लगी, विभिन्न प्रकार के तंत्र-मन्त्रों कि परिकल्पना समाज ने कर ली. चरों दिशाओं में व्याप्त होने के कारण कहीं उसे चतुर्भुज तो कहीं दसभुजी रूप में, और कभी- कभी तो भूत-प्रेत, हांकिनी-डंकिनी भयंकर रूप में भी कल्पित कर लिया. कालक्रम से यह विधा वंचकों और कामुकों के हाथ पड़कर, पञ्च मकारों की अनिवार्य रूप से स्वीकार्यता के कारण बहुत बदनाम और घ्रणित हो चुकी है.

दार्शनिक विधा:
दार्शनिक चिंतन का प्रथम सुस्पष्ट रूप हमें ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (दशम मंडल १२९) में मिलता है जहाँ 'अदृश्य सत्ता' की व्यापक चर्चा है, उस समय नाम-रूपमय कुछ भी विद्यमान नहीं था, ..सर्वत्र यदि था तो केवल और केवल घोर अँधेरा. उस अँधेरा के मध्य एक चेतना अस्तित्वमान थी, तप में निरत थी. अपनी समस्त क्रियाशीलता को ओने में ही समेटे.(पाठकों को यह पूरा सूक्त पढ़ना चाहिए). तप में निरत यह अदृश्य सत्ता पदार्थ नहीं है यह अचेतन नहीं है. यह पूर्ण चैतन्य है और चेतना इसका आकस्मिक नहीं अनिवार्य और स्वाभाविक गुण है. वही 'अदृश्य सत्ता' , अदृश्य ऊर्जा संवेदनशीलता के कारण, स्वेच्छा से (एको अहम् बहुस्याम के संकल्प से) दृश्य बन जाता है, नाम-रूप धारण करता है इस प्रकार जो अदृश्य सत्ता पहले स्याह थी..., धुंधली थी ...क़ाली थी..., डरावनी थी ..वही अज्ञानता का नाश होने पर वह क़ाली न रही. ज्ञान के धवल प्रकाश में वह गोरी हो गयी है.गौरी शक्ति हो गयी है. दार्शनिक क्षेत्र में गौरी शक्ति क्रियाशीलता का ही दूसरा नाम है. संतुलन हेतु एक अक्रियाशील तत्त्व की आवश्यकता देखते हुए एक अक्रियाशील सत्ता की परिकल्पना दीखती है, और वह परिकल्पना है -'पुरुष'. इस प्रकार पुरुष-प्रकृति, 'शिव-शक्ति के युग्म द्वैत को इस सृष्टि के प्रथम कारण और कारक के रूप में मान्यता मिली. इसे युग्म रूप में अल्पित करने कि आवश्यकता वह बाध्यता हो सकती है जिसे तुलसीदास जी ने बड़े सरल शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है - "ज्ञान कहै अज्ञान बिनु तम बिनु कहै प्रकास, औं कहै जो सगुन बिनु सो गुरु तुलसीदास." वास्तविक बात जो भी हो सांख्य दर्शन जहाँ इसकी पूरी तर्क संगत दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करता है. वहीँ श्रीमदभागवद महापुराण सहित अन्यान्य पौराणिक ग्रंहों का सृजन हुआ. और गीता इसे आद्यात्मिक और धार्मिक स्वरुप और व्याख्या प्रस्तुत कर स्पष्ट किया.आगे चलकर भारतीय दर्शन और भी सूक्ष्मतर विन्दु पर पहुच कर वेदांत इसके धार्मिक स्वरुप और दार्शनिक व्याख्या में एकरूपता प्रस्तुत कर पूर्णता की प्राप्ति करता है और अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना और पूर्ण परिभाषा- व्याख्या प्रस्तुत कर दोनों में एकरूपता को सिद्ध करता है.. . तब से लेकर आज तक जितने भी विचार और व्याख्याएं आयीं वे सभी किसी न किसी रूप में अद्वैतवाद की ही परिक्रमा, शोधन-परिशोधन है. यह चिंतन आज भी रुका नहीं है.. विज्ञान के साथ- साथ गतिमान है.

आज आवश्यकता विज्ञान और प्रज्ञान के सम्यक अध्ययन की है. केवल विज्ञान का विकास माना को धनपशु बना देगा, माना संतुलित मानव, नैतिक मानव, जिम्मेदार मानव, संवेदनशील मानव बना रहे. देवत्व तक पहुचने की ललक - लालसा - जिजीविषा बची रहे.....इन सब के लिए आवश्यक है कि विज्ञान और आध्याम में संगम विन्दु कि खोज किया जाय. इस जगत से ही उदाहरण प्रस्तुत कर, सामान्य और विशेष सभी वर्गून को संतुष्ट किया जाय भौतिक धरातल पर भी और आध्यात्मिक धरातल पर भी. किसी एक विन्दु पर जोर और उसकी ग्राह्यता हमारे चिंतन - ज्ञान और प्रगति को अपूर्ण बना देगा. हिमालय को मैंने एक संग विन्दु के रूप में देखा है. आइये आप भी देखें, परखें......और इस अभियान में जुट जाय....

ये प्रस्थर यह हिमालय
हिमालय से झरता यह
निर्झर झरना - नदियाँ.
यही है - संगम विन्दु.
इस धरा पर दर्शन -
अध्यात्म और विज्ञान का.

प्रस्थर और प्रस्थर के
टक्कर से निकली प्रातः
स्फुलिंग और चिंगारी ने
जहाँ विज्ञान से कराया
प्रथम परिचय ऊर्जा का.
प्रथम रूप-स्वरुप-गुण का.

वहीँ झरने
और नदियों की धार से
उत्पादित जलविद्युत् ने
पूरी तरह से बदल कर
रख दिया है -
भौतिक विज्ञान का
रूप - स्वरुप.

दूसरी ओर गिरिजा -
शैलजा - शैलपुत्री....ही
है अध्यात्म जगत की
प्रथम अलौकिक शक्ति.
यही है ब्रहमाणी-रूद्राणी-
कमला और कल्याणी
दुर्गा - अम्बा - जगदम्बा
गौरी और काली.
अध्यात्म जगत में
छाई है इन्हीं की भक्ति.

शैलपुत्री ने है स्वयं को
बहुत तपाया ब्रह्मचारिणी
रूप में अपर्णा - पार्वती
बनकर भोले शिव को
है पति रूप में पाया.
इसी युग्म को
दर्शन शास्त्र ने
चिंतन विन्दु बनाया.

इसी चिंतन विन्दु पर
आदि से लेकर अब तक
अनवरत - लगातार
छिड़ा हुआ है - अभियान. .
विमर्श और शोध का है
यह अलौकिक विन्दु.
क्षेत्र चाहे दर्शन हो,
अध्यात्म हो या विज्ञान.