Thursday, April 26, 2012

हाँ, सो रहा था मैं


कहते हो प्यारे!
तो मान लेता हूँ,
हाँ, सो रहा था मैं.
चहरे पर देखा होगा 
रंग तूने हास का.
मगर तुझे क्या पता?
तब रो रहा था मैं.
हास के दर्द को
तब ढो रहा था मैं.

हर बार आंसू गिरना ही 
रोना नहीं होता.
हर हास भी ख़ुशी का 
प्रतीक नहीं होता.
जैसे हर आंसू भी 
दुःख में सना नहीं होता.
आंसू हर्ष - उल्लास के 
अतिरेक में भी बहते हैं.
शबनम के मोती झरते है.
क्या रोना.. 
उसे तब भी कहते हैं.?

हाँ, सो रहा था मैं..
लेकिन खुले हुए थे नैन.
खुले हुय्र थे बैन,
खुला हुआ था कान.
सोया था या जगा हुआ, 
अब तू ही इसे पहचान.

कुछ जप रहा था, 
कुछ तप रहा था.
क्योकि 
पलायन वादी नहीं,
समाज का रोगी हूँ.
क्या करूँ भोगी नहीं
कर्मठ योगी हूँ.

जब देखती दुनिया 
वाह्य जगत को,
योगी अन्तः जगत 
को देखता.
जब सारी दुनिया 
नींद में होती
योगी दुनिया की 
गति देखता.

                          जय प्रकाश तिवारी
                             26 - 04- 2012