Tuesday, December 7, 2010

शब्दों का माधुर्य खो गया


सद्भाव शब्द को भूलता मानव
विष को प्रेम में घोलता मानव,
प्रकृति से होता रूखा मानव
रस की धार से सूखा मानव.

जहर बोल में घोलता मानव,
कर्त्तव्यों से च्युत होता मानव,
नातों-रिश्तों को तोड़ता मानव
बिना लक्ष्य के दौड़ता मानव.

अब शब्दों का माधुर्य खो गया
अर्थों की धुल गयी मर्यादा,
कैसे - कैसे गीत बने हैं.....
नंग-धडंग, कहींकम- कहींज्यादा.

जाने कहाँ से आयी यह संस्कृति
जिसने फैलाई यह ....विकृति,
अब तक सहमी थी सीमित थी
मिलने लगी इसे सामाजिक स्वीकृति.

क्या हम ऐसे ही सहते जायेंगे?
अपनी परंपरा-विरासत मिटायेंगे,
अथवा कुछ सोच विचार करेंगे.
देखो कैसी हो गयी अपनी मनोवृत्ति