Monday, February 14, 2011

आत्मोत्सर्ग का स्वरुप





समाज में व्याप्त अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार शोषण का सामना करते -करते एक दिन वह स्थिति आ जाती है जब अन्दर सोया पुरुषार्थ भी जागृत हो उठता है. नहीं ...अब ...और नहीं...., बहुत दिन सह लिया..बहुत ज्यादा सह लिया..अब और नहीं सहूंगा...मिटा डालूँगा इसे....अन्याय का यह अस्वीकार बोध मानव मन को दो विकल्प उपलब्ध कराता है - प्रथम, हम अन्याय और शोषण की ओर से पूरी तरह विरक्त हो जाय, यह मान लें कि हमारे चरों ओर जो कुछ घटित हो रहा है हम उसके सहभागी नहीं है. हम कुछ नहीं कर सकते. अतएव हमारा कोई दायित्व नहीं. द्वितीय, यह स्थिति अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार से सीधे प्रतिकार और टकराव का है. पहली  स्थिति पलायनवादिता है, विवशता और पराधीनता की स्थिति है. दूसरी स्थिति अन्याय से आमने - सामने जूझने की स्थिति है जहां जीवन का मोह निरर्थक हो जाता है. और मृत्यु का वरण पहली अनिवार्य शर्त बन  जाती है.जहां मृत्यु के अनजाने भय में भी दायित्व का सौन्दर्य और विवेक का प्रकाश दिखाई देने लगता है. मन बोल ही उठता है - 'पहिला मरण कबूल कर जीवन की छड़ आस', यहाँ मृत्यु की कोई चिंता नहीं और जीवन से कोई मोह भी नहीं. बिना तत्त्वज्ञान के यह होता भी नहीं, वह शक्ति -साहस और ऊर्जा तभी मिलती है जब व्यक्ति में ज्ञान और दायित्व का, कर्त्तव्यबोध का उदय होता है. जब ऐसा होता है तो वह अन्याय और भ्रष्टाचार को सहने से इनकार कर देता है. यह स्थिति  पहले भी कई बार आयी है ..और आज भी आ उपस्थित हुई है.... 

परन्तु आज परिस्थितिया बदल गई है, शस्त्र नहीं उठाना है, अपना काम नियम - कानून और संविधान की परिधि में रहकर पूर्णतया अनुशासित ढंग से करना है. इसके लिए एक मात्र ब्रह्मास्त्र है -"वोट का अधिकार'. सोच-समझकर इसका प्रयोग करना है. हमें बलिदान भी देना होगा, शीश भी कटाना होगा: परन्तु वह शीश होगा जातिवाद का, क्षेत्रवाद का, धर्मवाद का, अलगाववाद का. हमें कुनबे की छोटी सोच की कुर्बानी देनी होगी. राष्ट्रीयता को सर्वोपरि और सर्वोच्च मानकर ही अपना अगला कदम उठाना होगा. व्यक्तिगत हितों की, स्वार्थों की, व्यापक हित के लिए होम करना पडेगा. यदि हम राष्ट्र के नाम पर इस दायित्व बोध को समझ सकें तो यही जागृति है, यही आज का आत्मोत्सर्ग है, अह्मोत्सर्ग है. अहंकारोत्सर्ग है, बलिदान है.आखिर आप इस देश के संवेदनशील नागरिक हैं, जागरूक है, शूर वीर है. ऐसे ही शूर-वीरों के लिए कबीर ने कहा था कभी - 'सूरा सोई सराहिये जो लड़े दीन के हेतु / पुर्जा पूर्जा कटि मरे ताऊ न छड़े खेत //' . यहाँ मरना नहीं है, मन को मारना है, वह भी स्व के लिए, सर्व के लिए जूझना है मैदान छोड़कर भागना नहीं है..

हम चार दीवारी के अन्दर भले ही हिन्दू रहे या मुसल्मान , चार दीवारी  के बाहर हम भारतीय हैं और केवल भारतीय हैं.. आज का राष्ट्रधर्म और व्यक्ति धर्म दोनों ही यही है. यहाँ केवल सृजन है...., निर्माण है..., नवीन भारत का पुनर्जागरण है. यह किसी राजनीतिक की भाषा या प्रचार प्रसार नहीं, अपने अंतर्मन की आवाज है जो सिर्फ मित्रों और दोस्तों को हो सुनायी जा सकती है, दूसरों को नहीं. आज यही कार्य एक दायित्व मानकर राष्ट्रीयहित में एक आह्वान और एक निवेदन दोनों है. हमें अवांछनीय कार्यो को दृढ़ता से रोकना होगा. शार्टकट के सारे रास्ते और सुविधाशुल्क के प्रचलन पर दृढ़ता से रोक लगाना होगा. कम से कम हम स्वयं तो यह कार्य न करें. न अपनों को करने दे. संख्या हमारी अवश्य बढ़ेगी. आखिर हम भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार को कब तक सहें........?