Monday, May 14, 2012


गुरु पूर्णिमा पर्व




जिसने मुझको नाम दिया है,
बहुत बड़ा सम्मान दिया है.
है जो मेरे व्यक्तित्व का सर्जक,
सब कुछ मुझ पर वार दिया है.
उसी का तन मन अर्पित उसको
श्रद्धा सुमन समर्पित है उसको.
ये सब भी, अब कहाँ है मेरा.
सर्वस उसका नहीं कुछ मेरा.

उस सु-नामी का नाम मैं क्यों लूँ?
धो डाला कलुष कषाय जो मैला.
उसे अमूर्त-अनाम-अरूप रहने दो
क्यों करूँ विराट का रूप मैं बौना.

विद्यार्थी, शिष्य और गुरु



विद्यार्थी, शिष्य और गुरु 

हर छात्र जो जाता है विद्यालय
विद्यार्थी वह कहलाता है,
लेकिन सब छात्र नहीं विद्यार्थी
अधिसंख्यक हैं उसमे शिक्षार्थी.

शिक्षार्थी का लक्ष्य जीविकोपार्जन
सुख भोग के खातिर वह पढता है,
विद्यार्थी का लक्ष्य कुछ जानना है
जिज्ञासा शमन को वह पढ़ता है.

जब तीव्र हो उठती जिज्ञासा
अभीप्सा वही तब बन जाती,
धीरे धीरे विद्यार्थी को तब
यही अभीप्सा शिष्य बनाती.

अभीप्सा की प्रगाढ़ता में ही
यह शिष्य भक्त बन जाता है,
जिसे जान गया, पहचान गया
वही होने का उपक्रम करता है.

समर्पण ही तो रूपांतरण है
शिष्य भक्त का, गुरु सत्ता में,
गुरु सत्ता तब विह्वल होकर
निज आसन पर उसे बिठाती.
गुरु मान इस योग्य शिष्य को
अपना शीश चरणों में झुकाती,
यही गुरु-शिष्य की है परंपरा
दीखती कहाँ अब यह परंपरा?