Sunday, June 19, 2011

साहित्य और पाठक का मनोविज्ञान



हाथ में आने के बाद कोई भी साहित्य चाहे वह कविता हो, कहानी हो, या आध्यात्मिक सन्देश; जिसे रचा हो किसी अनामदास या भगवानदास ने अथवा किसी नवीनचंद और फकीरचंद ने. इस नाम का कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता. फर्क इसका भी नहीं पड़ता कि इसका रचनाकार कौन है, कोई नया कवि या पुराना घिसा-पिटा कहानीकार, क्योकि पुस्तक हाथ में उठाने से पूर्व पाठक इस ऊहापोह की स्थिति और ग्रन्थ चयन की उधेड़बुन से कब का बाहर आ चुका है. अब सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम उस ग्रन्थ को पढ़ते कैसे हैं ? पढ़ते - पढ़ते सो जाते हैं? जागते हैं अथवा पात्रों पर हँसतें हैं ठहाका लगाकर ? करते हैं विचार, चलो अच्छा हुआ - वह दुष्ट था, विलेन था...मर गया. और वह बच गया. उसे तो अंततः बचना ही था. वह क्यों बच गया.. ? क्योंकि आप जानते हैं अच्छे बुरे का भेद. अच्छे और बुरे की शक्ति को. लेकिन क्या कभी सोचा है आपने, जो पात्र मरा, वह मर क्यों गया ? और आखिर कौन था वह ? क्या हमारे मन का ही, अपने अन्तःपुर का ही विकृत मनोभाव नहीं था ?




क्या समय - समय पर हमने भी जाने -अनजाने समाज से छिप -छिपाकर, कुहासे और अँधेरे में नहीं जिया है वैसा ही जीवन? यदि हाँ तो निश्चित जानिये, एक दिन वह भी आयेग, हमरा - आपका - सबका, जो भी हैं इन प्रवृत्तियों के संवाहक, एक दिन यही हस्र होगा. साहित्य की समझ का एक मात्र निहितार्थ यह है कि हम अपने अन्तः करन के रावण और कंस का वध करें. हँसते तो रहें हैं हम सदियों से, रावण जैसों का पुतला फूंककर. परन्तु प्रत्येक वर्ष वह आ धमकता है पूरे दल -बल और चमक -दमक के साथ. जब तक हम हँसते रहेंगे वाह्य रावण पर, रावण मरेगा नहीं .... और बढ़ेगा. आज रावण गली - गली में है, चौराहे - चौराहे पर है. अब तो वह घरों में भी प्रवेश कर चुका है और कर लिया है कैद उसने हमारी सुख - शान्ति को, हमारे चैन, हमारी संवेदनाओं को. कर लिया है अपहृत विश्वास रूपिणी सद्भावरूपी सीता का, और छोड़ दिया कंचन मृग को........उसी कंचन मृग के पीछे हम सब भाग रहें है.....तेज गति से....



राम तो गए थे सीता के आग्रह पर, परन्तु लक्ष्मण गया है, आज का राम पूरा माल हड़प न ले. तीर दोनों छोड़ते है, आपस में लड़ते हैं, एक दूजे को पछाड़ते हैं. यह कहानी या कविता घर-घर क़ी है. रामायण हो या महाभारत या फिर कोई आधुनिक रचना, जो उसे पढता है और हँसता है; समझो कहानी क़ी समझ नहीं है उसे. जो रोता है, कहानी क़ी परख उसे भी नहीं, और जो सीने पर रख कर सो जाता है, अब उसे क्या कहें ? क्या सोचते हैं आप ? वह मूर्ख है.. ? अनाड़ी.. है, कहानी और कविता उसके समझ में नहीं आयी ? अरे! खूब आयी समझ में......इतनी कि खुद पात्र बन गया वह. उसकी मनो विकृतियाँ जो मरने लगीं हैं......., वह पुलिस अधिकारी बने हीरो से बचने का उपाय ढूढने लगी है.




अब हो जाइये सावधान! जो व्यक्ति किसी साहित्य को, कविता या कहानी को सीने पर रख कर सो जाता है या करता है विश्राम. वास्तव में वह मन ही मन हो गया है परेशान ... अब उसका मन ही नहीं तन भी हो गया है शिथिल.. और अब वह कर रहा है आराम. वह भाग रहा है कहानी से, कविता से, सत्य से, दिन के उजाले से, अपने दायित्व और कर्त्तव्यों से...लेकिन कब तक भागेगा ? कहाँ तक भागेगा..? अंततः वह पकड़ा जाएगा और कृत कर्मों का फल पायेगा. लेकिन मूर्ख ही है वह...क्यों ? क्योकि अंततः जो बाजी जीतता है , वह कौन है? अरे! वह भी तो वही है, वह इसे जान ही नहीं पाता. दंड और प्रायश्चित ने उसकी विकृतियों को मार डाला है और वह अब बन गया है - 'कहानी का नायक', 'महा नायक' और 'असली हीरो'. दिव्य पुरुष, पुरुषार्थी और महा-पराक्रमी. और यही अंततः किसी भी कविता, किसी भी कहानी या साहित्य की जीत है. यही बर्बरता पर मानवता का जयघोष है..., विजय नाद है ..., छलकता निनाद है....

नोट: सभी चित्र गूगल के सौजन्य से.