Wednesday, October 6, 2010

इंसान: शैतान से भगवान तक

सहसा
क्यों लगने लगता है कोई
इतना अच्छा इतना महान?
जैसे बन गाया हो इंसान से
साक्षात् देवता और भगवान्.

यह क्या है ?
व्यक्तित्व का उत्थान,
अपना भ्रम - विभ्रम
या मन का माया जाल?
जीवन का उत्कर्ष है
या उसका अवसान?

क्यों दिखता है
उसमे उषा का प्रभात,
अंशुमाली का प्रकाश,
सावन की सी बरसात,
माघ की खिली धूप,

रमणी सा मृदुल रूप.
जो हर लेता है -
तन - मन का शोक,
जैसे खड़ा कोई -'अशोक'.

क्यों दिखता है?
वह अल्हड स्वतंत्र.
कोई पीरहरण मन्त्र.
तिमिर को पी जाने
वाला गायत्री सा कोई
प्यारा - न्यारा छंद.
विघ्ब विनाशक,
मृत्युंजय सा अचूक मन्त्र.

कैसे बन जाता है
कोई कृष्ण सा सारथि?
मंदिर की आरती,
मस्जिद की अजान
जैसे कई जन्मो
की पहचान.......

जानता हूँ
इस दोरंगी दुनिया में
ढेरों हैं यहाँ - शैतान.
भेड़िये के रूप में यहाँ
घूमते हैं गलियों में इंसान.

बुद्धि कहती है -
मत झांको किसी के अंतरतम
गहराइयों की अंतिम सीमा तक.
मत उड़ान भरो - बहुत ऊँचे,
अन्तरिक्ष - आसमान तक.

मत मनो किसी को भी
इंसान से भगवान तक.
पर दिल है कि मानता नहीं,
इस बुद्धि को पहचानता नहीं.

क्या सच कोई बतलायेगा?
यह पर्दा कौन उठाएगा?
मै तो ठहरा निपट अनाड़ी,
क्या मार्ग कोई दिखलाएगा?