Tuesday, September 27, 2011

यशोधरा का पत्र बुद्ध के नाम

मेरी काया की नाथ चिंता इतनी?
यह तो मिट्टी है, ..,माया है,
मेरे अंतर्मन की चिंता क्यों नहीं?
जो हमराज पिया, तेरी साया है..

काया को अमर- अजीर्ण बनाकर
हे नाथ ! बोलो क्या पाओगे ?
कर गए अनाथ, इस दुधमुहे को,
जब पूछेगा,क्या कुछ भी कह पाओगे?

तूने जो सब अधिकार दिया था,
क्या छल था? भ्रम या दिखावा था?
दिया न विदा करने का हक़,
क्यों लिया छिन मुझसे मेरा हक़?

मै थी, मैं हूँ , अब भी क्षत्राणी,
दोनों राजवंश की कुल-कल्याणी.
जाते स्वामी जब समभूमि को.
तब निभाती 'विदा-धर्म' क्षत्राणी.

योग भूमि भी समर भूमि है,
हक़ था मेरा तिलक लगाने का.
लेकिन गए छिपकर तुम चोरी से
किया कलंकित जीवनभर शर्माने का.

क्या विश्वास नहीं था मुझ पर?
क्या दुःख यह झेल न पाउंगी?
रोकूंगी बल भर अपने प्रिय को,
नहीं तुम्हे योग भूमि पठाउंगी ?

हठ, क्या कभी तोड़ा था मैंने?
क्या रोक लेती तुझे मै? हे विराट!
देते अधिकार विदाई का जब,
गर्विता सा चमकते मेरे ललाट.

तुम लाद गए मुझपर भार,
मातु-पिता-पुत्र का पालन भार.
यहाँ पर भी किया तूने मनमानी.
दिया न मरने का अधिकार..

अब बन के कलंकिनी बैठी हूँ,
उजाले से भी अब डरती हूँ.
डर जो वैरी है क्षत्राणी का,
हाय! अब गले लगा उसे बैठी हूँ.

मुह छिपा-छिपा मैं चलती हूँ.
दिन - रात वेदना सहती हूँ.
लगे राजमहल यह सूना-सूना,
भूत का डेरा, फिर भी रहती हूँ.

हे नाथ! मुझे समझा -'अबला',
हूँ क्षत्राणी, मैं भी - सबला'.
जीतूँ मैं, हर एक समरभूमि,
हो रण की भूमि, या योग- भूमि.

मै निर्वाण तत्व को क्यों जानू?
साधना- आराधना क्यों जानूं?
मेरी जप-तप-साधना, सब तुम हो.
तुम्हे छोड़ मैं दूजा क्यों जानूँ?

जो भटका दे अपने दायित्वों से,
अधिकारों और कर्त्तव्यों से,
बहका दे जो, राजधर्म से,
मातु-पिता से, पुत्र-पत्नी-कुटुंब से.

कैसे मानूँ, सर्वोच्च आदर्श उसे?
कैसे कह दूं उसको परम ज्ञान?
तुझे भले उसपर अभिमान.
मेरे लिए तो बस अपमान.

हे नाथ ! चाहती हूँ अवसर,
तुम्हे ख़ुशी-ख़ुशी मैं विदा करूँ.
जो ललाट विधि ने लिखा,
सहर्ष सभी कुछ सहा करूँ.

आशा पर जग यह टिका है सारा,
क्यों छोडूं मै दिन फिरने की आशा?
मेरे प्रियतम! कर दो सच इसको,
कहीं रह न जाय, कोरी मेरी आशा. ,

मिटा दो! दाग, कलंक ये मेरा,
हे नाथ ! सविनय यह कहती हूँ.
निवेदन मान यदि जाओगे,
कर दूँगी क्षमा, मै सच कहती हूँ.