Monday, February 23, 2015

ध्वज संस्कृति का लहराएँगे

जन्म से लेकर मृत्यु तक
जो काल खंड है जीवन है
जन - जीवन होता कैसा
चिंतन होता उसका जैसा
चिंतन देन है संस्कार की 
शिक्षा निखार ले आती है
चिंतन मे यदि आई विकृति
इस सिर को वही झुकाती है
संस्कार देंन है संस्कृति की
औचित्य का प्रश्न उठती है
भटके मन को दीप दिखाकर
सन्मार्ग पथिक बनाती है
मानव है वरदान प्रकृति का
यह संस्कृति उसे निखारती है
इस देश को ऐसे रचा प्रकृति ने
नित जल से पाँव पखारती है
बनाया देश को जगत गुरु
कोई और नहीं वह संस्कृति थी
जो रखती सामंजस्य प्रकृति से
इस देश की ऐसी संस्कृति थी
हो रहा क्षरण इस संस्कृति का
इस संस्कृति को हमे बचाना है
सौहार्दर प्रेम और नैतिकता का
उज्ज्वल मशाल जालना है
पाश्चात्य सभ्यता को अपनाकर
सोचो! क्या खोया, क्या पाया है ?
बन गया शत्रु, भाई का भाई
बहनों ने यहाँ लाज गवाया है
कब देंगे आहुती विकृतियों की?
उन्नत सन्सकार कब अपनाएँगे?
जिसे देख कर, परिवार समाज
सन्मार्ग पाठ कदम बढ़ाएँगे ।
दृष्टि मे सूक्ष्मता वाणी मे संयम
औ मृदुलता व्यवहार मे लाएँगे
कह उठे शेष जग वाह ! वाह !!
ध्वज संस्कृति का लहराएँगे ।
मिलजुल कर यदि करें प्रयास
पुनः हम जगत गुरु बन जाएंगे
पवित्रता दृष्टि मे,वाणी मे संयम
औ मृदुलता व्यवहार मे लाएँगे ॥

डॉ जयप्रकाश तिवारी