Saturday, August 30, 2014

गंगा को निर्मल बहने दो


लक्ष्मीपति का चरणोदक यह तो, ब्रह्म कमंडल वासिनी है 
शम्भू की जटा सुशोभित यह तो, भगीरथ की आराधिनि है 
भागीरथी अलकनंदा सहित जाह्नवी धार उज्जवल रहने दो 
नदी नहीं, सुरसरि है यह तो, इसको तुम निर्मल रहने दो । 

तट पर गाँव औ नगर  बसाकरसुन्दर-सुन्दर घाट बनाकर 
समृद्धिशील बनाने वाली, सभ्यता - संस्कृति सिखानेवाली 
कल्याणी विपुल जलराशि को, कल - कल निनाद करने दो
नदी नहीं, सुरसरि है यह तो, इसको तुम निर्मल रहने दो । 

यह तूने क्या कर दिया मानव? बाँध बनाकर रोक दिया !
नाले, सीवर, कूड़ा, कचरे से, इसको कितना शोक दिया 
कब तक सहेगी अत्याचार? तुम माँ के धैर्य को मत मापों 
नदी नहीं, सुरसरि है यह तो, इसको तुम निर्मल रहने दो ।

होकर अंध-श्रद्धा के वशीभूत, तुम मूर्ति विसर्जित करते हो 
पत्र - पुष्प विसर्जित करते, शव भस्म विसर्जित करते हो  
मल-मूत्र विसर्जित करके, यह कैसा कुकृत्य तुम करते हो?
नदी नहीं, सुरसरि है यह तो, इसको तुम निर्मल रहने दो । 

चाहते नहीं यदि सत्यानाश, चाहते जीवन में यदि उल्लास 
तो अपने हाथों, अपने विनाश का, सूत्रपात क्यों करते हो?
इस तारणहार, पावन धारा को, अविरल तुम बहते रहने दो 
नदी नहीं, सुरसरि है यह तो, इसको तुम निर्मल रहने दो । 

सुरसरि यदि इसे नहीं मानते, एक बड़ी नदी तो मानोगे 
लेकर नाम विज्ञान जगत का, कर ली तूने खूब विकास 
कहकर विकास, स्व विनाश का, कपटी सिद्धांत रचते हो
नदी नहीं, सुरसरि है यह तो, इसको तुम निर्मल रहने दो । 

    - डॉ जयप्रकाश तिवारी