Saturday, November 15, 2014

एक आहुति हूँ

एक आहुति हूँ
एक समिधा हूँ मैं
जीवन के यज्ञ कुण्ड में
तिल तिल कर जलाता हूँ
जितना ही हूँ जलता हूँ 
उठती उतनी ही तीव्र सुगंध
देख इसे हर्षित होता हूँ
जब होती दूर भीषण दुर्गन्ध
मेरी इस समिधा में मिश्रित
सत्कर्मों की मर्यादा है
कर्तव्यपरायणता की इसमें
सुगन्धि भरी कुछ ज्यादा है
समर्पण मुझमे कूट कूटकर
भरा है मेरी संस्कृति ने
विकसित हुआ इसी में जीवन
फूला फैला इसी संस्कृति में
पूर्वजों के प्रति अत्यंत विनीत
उन्हीं का तो नवनीत हूँ मैं
बीते वन्दगी में सारा यह जीवन
उनकी छंदों का गीत हूँ मैं
बना इसीलिए आहुति समिधा
इसमें रची बसी है सभी विधा
मुझे इसी में आता है मजा
यही तो मेरी मधुमय हल है
मैंने आहुति बनकर देख लिया
जीवन यह यज्ञ की ज्वाला है.
डॉ जयप्रकाश तिवारी