Tuesday, March 2, 2010

मेरा परिचय

परिचय क्या पूछते हो?
दो कदम साथ चलकर के देखो जरा,
मान जाओगे खुद,जान जाओगे खुद,
एक चिन्तक हूँ मै,काम चिंतन मेरा.

चिन्तक कभी सोता नहीं,
उसकी चिति स्वयं संवेदी होती है,
चिंतन प्रक्रिया स्वप्न में भी विमर्श करती है.
पथ चलते- चलते अपना उत्कर्ष करती है.
मौन में भी यह चिंतन धारा सतत प्रदीप्त है,

यह मौन चिन्तक का हो,या संस्कृति का;
अथवा यह हो ब्लैक होल और प्रकृति का.
यही मौन सृजन का पूर्वार्द्ध है;बाकी उत्तरार्द्ध है.
पूर्वार्ध का चिन्तक उत्तरार्द्ध का कवि है;
कवि की वाणी मौन रह नहीं सकती;
मजबूर है वह; चेतना उसकी मर नहीं सकती.
लेखनी इस पीडा को देर तक सह नहीं सकती.

संवेदना विचार श्रृंखला को; विचार शब्दविन्यास को,
और शब्द विन्यास - अर्थ, भावार्थ, निहितार्थ को
जन्म देते है.ये शब्दमय काव्य, रंगमय चित्र,
आकरमय घट, सतरंगी पट; सभी मौन का प्रस्फुटन है;
उसी मृत्तिका और तंतु का विवर्त है.

संवेदना के इस दर्द को; सृजन के इस मर्म को,
क्या कभी समझेगा यह जमाना ?
ये हृदयहीन लोग कवि की कराह पर,
दिल की करुण आह पर, वाह! वाह!! करते है.
फिर भी हौसला तो देखो; अंडे पड़े या टमाटर,
ये चिन्तक अपनी बात कहने से कब डरते है?

इस बात की हमें बड़ी टीस है

हम बातें तो बड़ी-बड़ी,धर्म और दर्शन की करते हैं;
"ईशावास्य इदं सर्वं" का उद्घोष और जगत में,
"खुदा की नूर" देखने की वकालत खूब करते हैं.
परन्तु जन्मे-अजन्मे बच्चे में,वृद्धों और मजबूरों में,
अपंग - अपाहिजों में, उसी ईश्वरत्व और
'खुदा के नूर' को देख क्यों नहीं पाते ?
हम इतनी सी बात समझ क्यों नहीं पाते कि
कृति के बिना आकर्षक शब्दों का मूल्य कुछ भी नहीं.

शब्दों का मूल्य,उसके अर्थ और आचरण में सन्निहित है.
आचरण की सभ्यता के ये तथाकथित पुजारी,
ईश्वरत्व के संवाहक होने का दावा तो बढ़-चढ़ कर
करते हैं; परन्तु वह दीखता क्यों नहीं आचरण में?
और पग-पग पर फरिश्तों का गुणवान करने वाले,
आज शैतान के तलवे चाटते नजर क्यों आरहें है?

ये महानुभाव पुष्प-दीप तो सरस्वती चित्र पर
चढाते हैं, परन्तु हंस के नीर-क्षीर विवेक की जगह,
'लक्ष्मी-वाहन' के, आदर्श को क्यों अपनाते हैं?
और मजा यह कि वक्त आने पर साफ़ मुकर जातें हैं.
इनकी नैतिकता धन में, आदर्श धन में, ईमान धन में,
और राष्ट्रीयता, मानवता, सब धन में, बह जाती है.
अरे ! ये तो धन-पशु हैं, और कुछ तो उनसे भी बीस हैं;
पूरे नर-पिशाच हैं - ये अपने भाई-बन्धु, राष्ट्रीयता तक,
नहीं पहचानते, इस बात की हमें बड़ी टीस है.