Tuesday, February 24, 2015

‘गर्भस्थ कली’ मुस्काई (कहानी)


अभी कुछ माह पूर्व ही मैंने देखा था पीयूष और सुजाता को चमकते–दमकते, खुशियाँ बांटते, मिठाइयाँ खिलाते। मुझे स्मरण हो आए वे पुराने दिन जब वे दोनों रहते थे कितने उदास और हताश, निराशा मे उनकी जिंदगी जैसे एक बोझ सी बन गयी थी। बड़े-बड़े शहरों मे नामी-गिरामी चिकित्सकों से इलाज करने के बाद मंदिरों-मजारों की भी खूब खाक छानी थी उन्होंने। अभी विकासशील इस नयी-नवेली कालोनी मे अपना गृह निर्माण कराते समय निर्माण सामाग्री के लेन-देन मे जान-पहचान हुयी थी और व्यापारियों वाली चालाकी न होने कारण पीयूष मुझे व्यापारी कम, विचारक अधिक लगा था। धीर-गंभीर आकर्षक व्यक्तित्व का धनी लगने के कारण यह परिचय शीघ्र ही मित्रता मे परिणत हो गया था। उनकी समस्या सुनकर मैं ही साथ ले गया था उन्हे, अपने पारिवारिक चिकित्सक के पास जो बहुत नामी तो नहीं थे परंतु दवा के साथ-साथ प्राकृत-चिकित्सा पर बहुत बल देते थे और उनसे लाभान्वित हुये थे कई निराश परिवार, जिनके सूने आँगन मे उतर आए थे गगन के चहकते-दमकते चाँद-तारिकाएँ। और, इस दंपति की भी आशा बंधने पर अपने सार्थक परामर्श पर एकबार पुनः तब कितना गर्वित था मैं भी।
परंतु, परंतु क्या हो गया है आज...? इतना तनावपूर्ण ... इतना बोझिल वातावरण ..., मन कांप उठा था किसी अनिष्ट की आशंका से...। लेकिन पूछूँ भी तो कैसे?
प्रश्नवाचक दृष्टि से मैंने पीयूष की ओर देखा, उसने दृष्टि झुका ली। ‘क्यों, सब ठीक तो है?’ इस छोटे से वाक्य मे भी मुझे जैसे कुछ अतिरिक्त बल लगाना पड़ा था। कलतक पुंसत्व प्रामाणिकता और संतति के लिए चिंतित–परेशान और हताश इस पतिदेव के भाव आज कितने बदल चुके थे। मेरी उत्सुक तीक्ष्ण-दृष्टि और संवेदनात्मक शब्दों को वह देर तक झेल नहीं पाया। एक लंबी-सी सांस लेकर धीमे से बोला – “सर जी, जांच रिपोर्ट आई है... ‘बेटी है’,... ‘बेटी’ ..”।
मेरी आँखों मे अचानक वितृष्णा, क्रोध और नफरत के संयुक्त भाव उमड़ आए.... कलतक चूहे-बिल्ली जैसे तक को जन्म नहीं दे पाने वाली पत्नी को कायरों-सा ताना देने और कोसने वाला यह व्यक्ति आज रंग बदलने मे देखो कैसे गिरगिट को भी मात कर रहा था आज। मेरे मस्तिष्क मे कभी, गैरकानूनी कार्य करने वाले डाक्टर के पवित्र श्वेत एप्रिन पर कभी गहरा काला-धब्बा उभरता, तो कभी पीयूष का यह विकृत चेहरा...।
क्रोध और नफरत के शब्दों मे मैंने कहा था – “क्यों मिस्टर! ‘प्रकृति’ को भूल गए? प्रकृति कभी किसी को माफ नहीं करती। प्रकृति का ‘अग्नि-तत्व’ ही उर्वरा मिट्टी मे घुल कर तुम्हारे आँगन की ‘कली’ बना है और वही कली तुझे आज चुभ रही है? मुझे तो बड़ी शर्म आ रही है तुझे मित्र कहते हुये। धिक्कार है तुझे! और रही बात कानून की, वह तो सगे बाप को भी नहीं छोडता। सोच लो, न तू बचेगा न वो डाक्टर ही ...”।
अच्छा यह बताओ! क्या वह तुम्ही थे जो नवरात्रि मे ‘कन्या-भोज’ आयोजित कराते थे, बड़ी श्रद्धा से उनके पाँव पूजते थे? और आज अपनी कन्या जब आना चाहती है तो उससे इतनी वितृष्णा...? और तेरा नाम पीयूष किसने रख दिया? नाम पीयूष और मन-मस्तिष्क मे इतना गरल...? तू विष का प्याला नहीं, पूरा घड़ा है, घड़ा ...? तेरे पास तो बैठना भी पाप है। परंतु न जाने क्यों उठना चाहकर भी उठ नहीं पाया वहाँ से।
...न जाने क्यों मेरी घूरती आँखों से वह सहम गया था... मेरा एक पुलिस-कर्मी होने से डर गया था या मित्रता छूट जाने के डर से? अथवा उसे अपने ही अतीत का गिड़गिड़ाता हुआ वह चेहरा याद आ गया था..., मैं इसे जान न पाया।
थोड़ी देर बाद वह निःशब्द उठा, अपने अन्तःकक्ष मे गया ... । पति-पत्नी की खुसर-फुसर को दीवारें और पर्दे रोक नहीं पा रहे थे ... । मैं दुबारा उठना चाहते हुये भी वहाँ से उठ नहीं पाया और कहीं खो गया था..., अब मुझे ‘भ्रूण-हत्या’ का दारुण दृश्य दिखाई देने लगा था ... । लगा, गर्भस्थ कन्या चित्कार रही है..., वह मुझे ही कोस रही है...., ‘तुम्ही हो!’, ... ‘तुम्ही हो जिम्मेदार मेरे अतित्व और अनस्तित्व दोनों का...’। मैं अंदर तक दहल गया, लगा मैं एकदम निरुत्तर हूँ ...।
तभी लगा सामने कोई खड़ा है। देखा पतिदेव जी थे, दोनों हाथ जोड़कर कुछ हकला रहे थे... सर जी! क्षमा कर दीजिये! बहुत शर्मिंदा हूँ..., मैं ही भटक गया था...। सर जी! नफरत या द्वेष मुझे बेटी से नहीं है, ‘लड़के वालों को नाक रगड़ने पड़ेंगे’, इससे है। यही सोचकर डर गया था और बहक भी गया था। आपने मेरी आँखें खोल दी। जीवन मे पहले आप मित्र बनकर आए थे ..., आज शिक्षक बनकर आए हैं... ।
उसने पीछे मुड़कर देखा, फिर पत्नी को आवाज लगाई ... प्रत्युत्तर न पाकर वह स्वाइन ही अंदर चला गया ... और सपत्नी हाथ मे हलवा का प्लेट लेकर बड़े आग्रह से अनुरोध किया, सर जी ! आपने ही राह दिखाई है, कसाई से इंसान बनाया है॥ । यदि अनुमति दें तो हलवा अपने हाथ से खिलाऊंगा, बिटिया रानी को गले लगाऊँगा... । तबतक इतनी ही देर मे उसकी पत्नी कब अंदर गयी, कब आ भी गयी? मैं जान न पाया । उसके हाथ मे चाय-नमकीन की प्लेट से सजी तश्तरी थी। पत्नी की सीरत ने इस निर्जीव वस्तु की सूरत बढ़ा दी थी। ... न जाने कितने आभार के साथ बोली- भाई साहब! आज फिर आप मेरे घर देवता बनकर आए हैं। कैसे इन्हें आप मना पाएँ हैं? जिसे अर्द्धांगिनी बनकर मैं समझा नहीं पायी, मित्र बनकर आप ही समझाये हैं। बोलो भैया! कौन सी विधि अपनाएं हैं...?
नहीं सुजाता ! मुझे देवता न कहो, इंसान ही बन कर रह सकूँ, यही बहुत है। इस समाज को देवता से अधिक इंसान की आवश्यकता है आज।
“नहीं भाई साहब, भगवान की जो परिभाषा आपने बताई थी, वह अक्षरशः मुझे याद है। हमे याद है जब हम लोग मंदिरों मे माथा टेकते घूम रहे थे तो आपने ही समझाते हुये कहा था कि आस्था कि बात है तो ठीक है, आस्था मे भी बल होता है लेकिन यह प्रकृतिक कार्य है। प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाना पड़ता है। और, जिसे हम भगवान कहते हैं, देवता कहते हैं, वह भी तो प्रकृति ही है; वह प्रकृति इस भगवान शब्द मे ही अन्तर्भूत है। देखो - ‘भ’ से भूमि, ‘ग’ से गगन, ‘वा’ से वायु, ‘न’ से नीर और इन व्यंजनों मे समाहित स्वर ‘अ’ से अग्नि तत्व। और यही तो प्रकृति है, बोलो भगवान का अर्थ प्रकृति हुआ या नहीं? प्रकृति हमे बहुत कुछ देती है, इसलिए यह देवता है...। तभी से मैंने रट लिया है। आप नेक इंसान हैं, प्रकृतिक-देवता हैं। हमसे अपना ही पारिभाषिक अर्थ तो न छिनें। शास्त्र भी कल्याणकारी मित्र को देवता कहकर उसकी पूजा की अनुमति देता है। दत्तात्रेय जी ने अपनी माँ से मित्र के बारे मे यही कहा था। अब मैं जान गयी हूँ, यह प्रकृति ही देवालय है और मित्र ही देवता। मैं जननी होकर भी और चाहते हुये भी इस अजन्मे को गर्भ सुरक्षा नहीं दे प रही थी, बस शक्ति-भर जूझ रही थी। इस अजन्मे की सुरक्षा तो आपकी कल्याणकारी मित्रता ने दिलाई है। जो देता है वही तो देवता है।“ मैं सुजाता को देखते ही रह गया... वह तो आज दार्शनिक बन गयी थी... सचमुच हर्ष और विषाद ही तो मन मे दार्शनिक भाव जगाता है...। अब भला अपने ही परिभाषा को मैं कैसे नकारूँ, समझ मे नहीं आया। मैं उस समय कहता भी क्या..., हँसकर टाल गया। लेकिन सच कहता हूँ कि जितना स्वादिष्ट मुझे ‘आटे’ का वह हलवा लगा, उतना स्वादिष्ट न कभी रवे का हलवा लगा, न बेसन का, न मूंग का न गाजर का और न ही मेवे का...।
लौटते समय मुझे याद आ रही थी मानस की लाइने – ‘विनय न मानत जलधि जड़...’। लेकिन यह ‘जड़ता’ कहाँ थी? लेकिन थी, क्योकि सृष्टि की सर्वाधिक चेतन कृति का जड़ हो जाना ही तो ‘जड़ता’ है। यदि इसे जड़ता नहीं कहेंगे तो कहेंगे किसे? और ‘भय बिनु होय न प्रीति’, किंचित यह भय था भी, तो था सामाजिक भय, झुकने और दीनता का भय भी...। ओह! कितना भयभीत था वह, दहेज रूपी दानव से... ? क्या इस दानव को समाज से मिटाया नहीं जा सकता? आखिर हमने ही तो कभी प्रारंभ किया होगा उसे उपहार का नाम देकर... क्या इसमे संशोधन का समय अभी भी नहीं आया? आखिर हम कब जगेंगे? एक और प्रश्न गूँज रहा था मन मे, माताएँ इन कलियों को सर्वाधिक सुरक्षित स्थान अपनी कोख मे भी चाहते हुये भी आज सुरक्षा नहीं दे पा रहीं है, वे इतनी मजबूर क्यों हैं? अशिक्षा के कारण, दहेज के कारण या स्वावलंबनविहीनता के कारण ....? क्या सुजाता तब भी इस अन्याय के विरुद्ध सरलता से हथियार डाल देती, यदि स्वावलंबी होती? नहीं न! तो क्यों न एक ?नई परंपरा विकसित की जाय, अब बेटियों को ही स्वावलंबी बनाया जाय। उसे इतनी योग्य बना दिया जाय कि वर-पक्ष स्वयं लड़की का हाथ मांगने लड़की वालों के घर आयें। एक बाप फूल को शूल क्यों समझे ? बेटी के जन्म पर वह क्यों घबराये?... लगा उस नन्ही सी कली ने पुनः आवाज लगाई ... कुछ दिखा तो नहीं, लेकिन एक अंजाना गोल-मटोल सा चेहरा, एक मुसकुराती-सी कली अवश्य नजर आई।

डॉ जयप्रकाश तिवारी