Thursday, May 20, 2010

ब्लॉग मित्रों के नाम खुला पत्र

कुछ कहता हूँ तुमसे!, सुनो मेरे मित्र.!
कुछ सुनो, कुछ गुनो, कुछ करो मेरे मित्र.!!
स्नेह सद्भाव को हम बढ़ाते रहें....,
कर्त्तव्य अपना सदा हम निभाते रहें.

'कर्त्तव्य बड़ा है सदा', किसी भी अधिकार से,
इस नीति को हम निभाते रहें, हाँ निभाते रहें;
विवादों को हम यूँ मिटाते रहें, हाँ मिटाते रहें;
'हम सभी के लिए', 'सब हमारे लिए', मनाते रहें.

लड़ते हो तुम ...ब्लॉग पर... भैया,
क्या घर में तुम्हारे इतनी शान्ति है?
लगता है फिर, क्यों हमको ऐसा?
घर में तुम्हारे अधिक अशांति है.

हम लड़ते रहें हैं जीवन में, क्या कुछ अभी?
की 'ब्लॉग पर' भी भिड़ने की जरूरत आ पड़ी,
किस भाषा के तुम हो? और कौन हमारी बोली?
लेकिन मिलन से है देखो! ये कैसी कविता खिली?

हिन्दुस्तानी हैं हम, पहचान रखते कुछ अलग.
आन अपने वतन की भी है कुछ अलग,
अपनी मिटटी की खातिर क्या -क्या न किये?
पूछो! इतिहास से, हम हैं कैसे मरे, और कैसे जिए?

आई है परीक्षा घडी... जब कभी...,
शीश हँसते दिए, परतु सीsss न किये हैं.
साथ आबो हवा का निभाते रहें हैं,
अपनी मिटटी का ऋण हम चुकाते रहें है.

अपनी मिटटी सुगन्धित है, अपनी संस्कृति से,
सभ्यता - संस्कार, प्यारी प्रकृति से,
सुगंधी इसकी चतुर्दिक फैलाते रहें,
मान के आँचल की लाज हम बचाते रहें.

यह सही है,' स्वतंत्र हैं हम'; 'स्वच्छंद नहीं हैं मगर',
नित बंधें हुए हैं, नैतिकता - मर्यादा - संविधान से,
कार्य ऐसा करें, मुस्कुराएँ सभी, दिल लुटाएं सभी,
'मिटटी की सुगंध', लुटाते हुए, हँसते रहे और हँसाते रहें.

बात इतनी सी अगर मान लो मेरे मित्र!
समझो प्रगतिशीलता का पट खुल गया.
जीने का फिर नया, एक ढंग मिल गया,
आचरण की सभ्यता से सींचना है हमें.

इस उपवन की मन्जरी न मुरझाये कभी,
हरीतिमा, इसकी खुशबू न जाए कभी,
लोभ - दंभ - नफरत, नहीं पास आये कभी,
भेद भाषा का, शैली का, ना आये कभी.....

नेट पर जब भी बैठा, तुम्ही याद आये मेरे मित्र!
बात दिल की कहूँ, तो कहूँ किससे मित्र ..?
ओ मेरे मित्र!, ओ मेरे प्यारे- प्यारे, अपरिचित मित्र !!
बात दिल की कहूँ, तो कहूँ किससे मित्र ...?

ओ मेरे मित्र!,.... ..ओ मेरे मित्र!!,.... ...ओ मेरे मित्र!!!,
साथ कितना निभाओगे? ओ मेरे मित्र!,...ओ मेरे मित्र!, ..
ब्लॉग मित्रों के नाम खुला पत्र