Monday, February 13, 2012

कविता की ऐसी महिमा


जिसे मोह  सका न रूप - लावण्य,
जिसे मोह सकीं न कोई सुरबाला.
मोह सके जिसे न, ये ऊँचे महल,
मर  मिटा  वही  एक  कविता पर.

इस  कविता  में  क्या  है  ऐसा?
न रूप - लावण्य, नहीं कोई पैसा.
फिर मन है क्यों इतना दीवाना?
फिरे मस्ती में अब यह मस्ताना.

चिंता नहीं किसी बात की उसको,
जब चाहे कह ले जो सूझे उसको.
मिल गया उसे -  'संवेदना कोष',
निछावर जिसपर सब राज- कोष.

सालोक्य - सायुज्य की चाह नहीं,
न अभिलाषा सार्ष्टि - सायुज्य की.
ये चारों जिसकी नित करे परिक्रमा,
इस कविता की देखो ऐसी महिमा.

यह कविता कृति है मानव की,
यह मानव है किसकी कविता?
मानव है कविता इस सृष्टि की,
यह सृष्टि है फिर किसकी कविता?
------------------------------------------

हाँ, मित्रो! 
एक बात और, इस रचना में कुछ दार्शनिक शब्दों का प्रयोग हुआ है. उन पाठकों के लिए जो इससे परिचित नहीं है, थोड़ा संकेत उचित प्रतीत हो रहा है. भक्ति धरा में, मुक्ति की चार कोटियाँ मणि गयी है . यह क्रमित प्रगति है. 

सालोक्य मुक्ति - भक्त का अपने आराध्य के लोक में परवश. लोक के सभी सुखों का आस्वादन.
सार्ष्टि मुक्ति - आराध्य के यश, प्रभा मंडल से आप्लाविर आनंद की गंगा में गोटा लगाना.
सालोक्य मुक्ति - आराध्य के निजी क्षेत्र में प्रवेश, यहाँ अनुकम्पा अनिवार्य है.
सायुज्य मुक्ति - यह वैयक्तिक आत्मा का परमात्मा में अंतिम रूप से विलीनीकरण होना है. यहाँ भक्त और भगवान् में अभेद हो जाता है. कुछ भक्त इस सयुजा मुक्ति को भी ठुकरा कर भक्त रूप में अलग अस्त्तित्व बनाये रखना चाहते हैं जिससे भगवान् / आराध्य की सेवा का अवसर मिलता रहे. उनके अनुसार यह सायुज्य तो भक्ति की दासी है