Monday, January 12, 2015

इस ग़ज़ल ने कहा

इस ग़ज़ल ने कहा था जिंदगी गुनगुनाकर देखिये 
जिंदगी संवर जायेगी, प्यार के सुमन खिल जाएंगे 

तब से रोज गुनगुना रहा हूँ, उँगलियों को जल रहा हूँ 
पूछती है बीबी क्या कर रहे हो?बताते हुए शर्मा रहा हूँ 

लो आ गयी किचन में, बोली वाह! कितने अच्छे हो 
मेरे नहाने के लिए पानी अभी से ही गुनगुना रहे हो 

सचमुच इस ग़ज़ल ने तो प्यार करना ही सीखा दिया 
अब रोज गुनगुनाता हूँ, पानी के साथ चाय भी गर्माता हूँ 

थैंक्स तूने जिंदगी सवार दी, मीठी छुरी सीने में उतार दी 
ग़ज़ल मुस्कुराई हौले से मेरा हाथ दबाई, और पूछ ही बैठी 

न जाने लोग गज़लें क्यों ढूंढते हैं शायरी की किताबों में?
मैं तो उनके अंतर में बसती, देखते ही नहीं अंदरखाने मे.  

                                     डॉ जयप्रकाश तिवारी 

Sunday, January 11, 2015

शक की बीमारी

प्रिये!
तुझे शक की
बीमारी है
तो शक करो
खूब करो ...
बेशक करो
किन्तु इस तरह
इतनी बेदर्दी से
निचोड़ो तो नहीं
मैं तो वैसे भी
हूँ अकड़ू-सा
नहीं सुकोमल
हूँ मैं तुझ-सा
जान तुम्हारी ही
जायेगी इस तरह
देखना !
सच कहता हूँ
इस दिल में
तू ही तू बसती है
इसे भी देखना
ध्यान में रखना
यह न कहना
चेताया नहीं
साजिश के तहत
बतया नहीं
वैसे मर्जी तुम्हारी
मौका अच्छा है
चाहो तो मुक़दमा
चला सकती हो
हत्या न सही
आत्महत्या के
उकसावे का आरोप
तो लगा सकती हो
मेरा क्या
विरोध करना नहीं
लेकिन डरता हूँ
कल को
तुम ही पछताओगी
जीवन नर्क बनाओगी।


डॉ जयप्रकाश तिवारी

Friday, January 9, 2015

अनुभूति में परिवर्तन



डूबा रहा स्नेह में जब तक
लगा, जीवन यह मेरा है
पहुंचा जब प्रेम यह तक ...
लगा, जीवन तो यह तेरा है
डूबा जब तेरी आराधना में
लगा, जीवन तो यह सबका है
जो सबका है वह अपना है
जो मेरा है, वह सबका है।


डॉ जयप्रकाश तिवारी

Thursday, January 8, 2015

तू नटराज सा लगता है

 'मेरा' बदला अब 'तेरा' में
तू ह्रदय बसा सम्राट बना
मैं तुझे अकेला समझा था ...
तू तो यह सृष्टि विराट बना,
हर जीव में 'तू ही' बसता है
कण-कण में तू ही दिखता है
लगती यह सृष्टि संगीतमयी
और तू नटराज सा लगता है।
अब प्रेम भक्ति का रोना गाना
यह बचपन का खेल खिलौना
सब छूट गया, अब मौन हुआ
मैं वही क्या था,अब कौन हुआ?
तुम विंदु-सिंधु का खेल खेलते
हम विंदु-सिन्धु के बीच डोलते
कभी बून्द ही सिंधु बन जाता
कभी सिन्धु बूँद में डूब जाता। .


डॉ जयप्रकाश तिवारी

Sunday, January 4, 2015

पाकर स्पर्श, मैं बदल गया

पाकर स्पर्श, मैं बदल गया
था लौह, कंचन बन गया
कंचन, कंचन में ठन गया
समरसता अब भग हो गया,
सोचता हूँ, यह पारस क्यों ...
जब भी बनाता, कंचन बनाता
यह पारस क्यों नहीं बनाता?
बंधन में तो अब भी हूँ मैं
पहले लौह जंजीर से बंधा था
अब स्वर्ण -जंजीर से बंधा हूँ
मुक्त कहाँ हुआ अब भी मैं ?
बंधन में पड़ा हूँ, अब भी मैं।


डॉ जयप्रकाश तिवारी

Thursday, January 1, 2015

नव वर्ष में संकल्प


क्षण क्षण में जो रमा हुआ है
अंक्षर अक्षर जो जुड़ा हुआ है
कण कण में जो खुदा हुआ है ...
सुनो प्यारे ! वही तो 'खुदा' है
जो रमा हुआ है रोम - रोम में
वही तो हमारा आराध्य राम है,
क्यों करते हो सीमित उसको
तुम मंदिर और मस्जिद तक।
उसी की तो यह समस्त सृष्टि है
संकुचित वह नहीं, हमारी दृष्टि है
अंतर क्या इससे पड़ता कोई
संज्ञा यदि उसकी बदलता कोई
यह तो अपनी - अपनी पसंद है
जड़ चेतन सब उसकी पसंद है
यदि नहीं पसंद होता यह उसको
रचता क्यों वह सृष्टि में उसको ?
भेद नहीं है उसकी दृष्टि में
भेद है सारा, अपनी ही दृष्टि में।
इस भेद को ही हमें मिटाना है
जगत को सौन्दर्यमयी बनाना है
'शिवत्व' जगत में लाना है
शुभत्व का भाव जगाना है।
अरे इसी निमित्त आये हैं हम सब
नव वर्ष में संकल्प यही उठाना है
हमें अपना दायित्व निभाना है
बनाया गया है मानव हमको
हमें मानव धर्म निभाना है। .


डॉ जयप्रकाश तिवारी

Friday, November 28, 2014

सम्बन्ध कवि-कविता का

 
कविता  कवि  की  आत्मजा  है
उसे  रचता  पोषित  करता है 
कविता  कवि  की  जननी  है
कवि का व्यक्तित्व निखरती है 
दोनों  पूरक  हैं  एक  दूजे  का
एक  दूजे  को खूब  सवारते  हैं 
एक  दूजे  से  हैं अस्तित्वमान
एक दूजे से ही है उनकी पहचान 
विचित्र सम्बन्ध कविता कवि में
अद्भुत सा दोनों का यह रिश्ता है
दीखता नहीं लौकिक जगत में
ऐसा अलौकिक सा यह रिश्ता है 

डॉ जयप्रकाश तिवारी