Sunday, January 4, 2015

पाकर स्पर्श, मैं बदल गया

पाकर स्पर्श, मैं बदल गया
था लौह, कंचन बन गया
कंचन, कंचन में ठन गया
समरसता अब भग हो गया,
सोचता हूँ, यह पारस क्यों ...
जब भी बनाता, कंचन बनाता
यह पारस क्यों नहीं बनाता?
बंधन में तो अब भी हूँ मैं
पहले लौह जंजीर से बंधा था
अब स्वर्ण -जंजीर से बंधा हूँ
मुक्त कहाँ हुआ अब भी मैं ?
बंधन में पड़ा हूँ, अब भी मैं।


डॉ जयप्रकाश तिवारी

2 comments:

  1. बंधन से मुक्ति कहाँ संभव है इस नश्वर रूप में ...
    नव वर्ष मंगलमय हो ...

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  2. अगर गौर से देखें तो....बंधन में न तब थे न अब हैं...सारे बंधन मन की सीमा के भीतर हैं...उस पार तो नहीं..

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