Saturday, May 24, 2014

समय और वृक्ष

तूफान से उखड़कर जमीं पर पड़े
अपनी अंतिम सांस-प्रश्वांस ले रहे
उस विशालकाय वृक्ष को देखकर
समय ने मुस्करा कर बात छेड़ी –
कहो दरख्त ! अकड़ कैसी रही?
मैंने कहा था न, समय को पहचानो
समय है अवसर, अवसर को जानो,
नमनीयता है दीर्घायु पाने का सूत्र,
परन्तु तूने मेरी बात नहीं मानी,
जो झुक गए, आज भी वहीं खड़े
और तुम कैसे असहाय से पड़े?

इस असह्य दर्दनाक क्षणों मे भी
वृक्ष ने अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ा
इस व्यंग्य-वाणी के प्रत्युत्तर मे उसने
संयमित आशावादी स्वर का रस घोला,
गिरा हुआ ठूंठ भी प्रकृति के साहचर्य मे
जब हरा - भरा होकर उठ सकता है तो
मैं तो फल-फूलों से भरपूर लदा हूँ
एक दिन मेरी संतति उग आएगी
तुम एक पेड़ की बात करते हो
वह बाग– उपवन– जंगल बसाएगी।

समय ! तूने मेरा भूत देखा है
आज वर्तमान देख रहे हो तो
कल भविष्यत भी अवश्य देखना,
मुझपर न हँसो, हँसना है तो हँसो
उनपर, जो तूफानों के तलवे चाटते हैं,
उनपर, जिन्हे अकड़ना तो आता है
परंतु उगना और उठना नहीं आता ।

सुनो समय !
जिसे तुम जीवित कहते हो, वे मृत हैं
क्या कोई जीवित रहा है, स्व खोकर?
स्वाभिमानी थू करता है ऐसे जीवन पर,
मृत्यु है ... उससे सहस्र गुना बेहतर ... ।

अवचेतन हूँ तो क्या हुआ
इतना नासमझ भी तो नहीं,
नियम से यदि बंधे हो तुम भी
तो नियति से बंधे हैं हम भी,
जानता हूँ, आता है जीवन मे
कभी-कभी ऐसा कोई क्षण जहाँ
मृत्यु, जीवन से बाजी मार ले जाती है
जहाँ जीवन, मृत्यु की दासी बन जाती है।  

कभी कहा था तुम्ही ने –
जीवित रहते हैं केवल दो ही
स्वाभिमानी और निराभिमानी,
वे ही भोगते राज-सुख या स्वर्ग-सुख
क्योकि स्व को तो, दो ही जानते  
स्वाभिमानी और निराभिमानी ।
स्व ही सत्व है, आत्म-तत्व है
और आत्म-तत्व यह अजर-अमर है ।
रहस्योद्घाटन किया था उस धर्मक्षेत्र मे,
उस कुरुक्षेत्र मे तुम्ही ने– मैं समय हूँ’,

समय ! तू सचमुच मनमोहन है
थोड़ा नटखट है और छलिया भी ...
कालिंदी तट पर मैं ही खड़ा था
जिसपर टांगे थे तुमने  गोपियों के पट
यह कहकर कि आत्म-परमात्म ऐक्य मे
बाधक है तन-मन का कोई भी आवरण,
हो सकता है तुम्हें पसंद न आया हो
ओढ़े रहना मेरा स्व का यह आवरण।

समय! यह प्रलाप मेरा नहीं, तुम्हारा गीत है
स्वाभिमानी जीवन उसी गीत का संगीत है,
याद है तुम्हें, बर्बरीक का सिर काटकर
तूने मेरी ही एक शाखा पर टांगा था,
मैं तब भी था मूर्तमान, अब भी हूँ मूर्तमान ।
समय ! यदि अतीत को मैं नहीं पा सकता
तो तुम भी भूतकाल को नहीं पा सकते,
समय ! मैं पुनः पुनः खड़ा हो सकता हूँ
परंतु तुम? तुम पीछे नहीं लौट सकते ॥ 
       
   डॉ॰ जयप्रकाश तिवारी      


2 comments:

  1. समय से गहरी अर्थपूर्ण गुफ्तगू ...
    लाजवाब रचना ...

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