Tuesday, December 7, 2010

शब्दों का माधुर्य खो गया


सद्भाव शब्द को भूलता मानव
विष को प्रेम में घोलता मानव,
प्रकृति से होता रूखा मानव
रस की धार से सूखा मानव.

जहर बोल में घोलता मानव,
कर्त्तव्यों से च्युत होता मानव,
नातों-रिश्तों को तोड़ता मानव
बिना लक्ष्य के दौड़ता मानव.

अब शब्दों का माधुर्य खो गया
अर्थों की धुल गयी मर्यादा,
कैसे - कैसे गीत बने हैं.....
नंग-धडंग, कहींकम- कहींज्यादा.

जाने कहाँ से आयी यह संस्कृति
जिसने फैलाई यह ....विकृति,
अब तक सहमी थी सीमित थी
मिलने लगी इसे सामाजिक स्वीकृति.

क्या हम ऐसे ही सहते जायेंगे?
अपनी परंपरा-विरासत मिटायेंगे,
अथवा कुछ सोच विचार करेंगे.
देखो कैसी हो गयी अपनी मनोवृत्ति

9 comments:

  1. जहर बोल में घोलता मानव,
    कर्त्तव्यों से च्युत होता मानव,
    नातों-रिश्तों को तोड़ता मानव
    बिना लक्ष्य के दौड़ता मानव..

    आज के समाज पर सचाई से पूर्ण सटीक टिप्पणी .आज का मानव बड़ी बेशर्मी से अपनी मानवता खोता जा रहा है..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..आभार

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  2. bilkul sahi....maanav ke aachaar-vichar vikrut ho rahe hain.....

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  3. एकदम सही काव्य है ,लेकिन लोग समझें और मानें तभी न ,कोरी वाह-वाही करने से किसी का भला नहीं होगा .
    लोगों को चाहिए कि,ऐसे सद्विचारों का प्रचार करें.

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  4. देखो कैसी हो गयी अपनी मनोवृत्ति ji hai, aaj hame apane ko sudharane ki behad jarurat hai anyatha abhi aaj ke pidhi ko isase bhi badatar samay se gujarana padega.aansu nikal gaye.kas hum sanskarik hote. bahut sarthak lekh.Thank you sir.

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  5. Thanks, many-many thanks to participants....

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  6. आज के मानव को आईना दिखती रचना ...बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  7. संगीता जी
    बहुत दिनों बाद आप पोस्ट पर आयी. टिप्पणी सुसंगत और अच्छी लगी. आभार............सभी समीक्षकों का एक बार पुनः आभार.......

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  8. लय, प्रवाह, छंद और संदेश सब में उत्तम रचना। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    हिन्दी साहित्य की विधाएं - संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत

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  9. Manoj ji!
    Thanks for visit and valuable comments.

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