Saturday, May 18, 2019

हाँ बुद्ध अभी भी हैं बद्ध,

हाँ बुद्ध अभी भी हैं बद्ध,
हुए न अब तक मुक्त
नहीं हुआ पूरा संकल्प
इसीलिए हैं अभिशप्त.
दुःख निरोध नहीं आसान,
वैश्विकस्तर से बड़ा है काम
'मैत्रेय' रूप उन्हें आना होगा,
वादा अपना निभाना होगा.
आज की यशोधरा भी कहाँ
कर रही वचनों का निर्वाह?
लौकिक यश के मोह जाल में
फंस नित हो रही है हैरान.
गौतम ने त्यागा राजपाट,
वह संग्रह में राज्य के जुटी हुयी है,
बुद्ध तो चाहते हैं - 'निर्वाण',
वह भोग में आज भी डूबी हुयी है.
जब तक होगा द्वन्द जगत में
और र्विरहेगा विरोधाभास...,
अनुभूति के स्तर पर तब तक
दुःख का ही होगा आभास.
यदि दुःख को जड़ से मिटाना है,
समता आदर्शों में लाना होगा,
आर्यसत्य हैं नहीं असत्य,
उनके तथ्यों को अपनाना होगा.
पहला सत्य, जगत यह दुखमय,
दूजा, दुःख का भी कोई कारण है.
कारण का निदान 'अष्टांग योग',
चौथा सत्य दुःख निरोध संभव है.
और इसी का नाम 'निर्वाण' है.
इसे ही अब अपनाना होगा,
जगत से दुःख भगाना होगा.
निर्वाण ही है सत्य अंतिम.
अंततः सबकी है गति अंतिम.
बुद्ध गौरव हैं भारत भूमि के,
वे ऐतिहासिक पुरुष ही नहीं,
एक विशेष "प्राज्ञ पुरुष" हैं,
स्वयं मे ही एक इतिहास हैं,
यह सृष्टि उनकी ही करुणा
का विकास और विलास है.
नहीं हूँ विरोधी बुद्ध का मै,
उनका 'शील' उनकी 'संयम',
उनकी 'वेदना' उनकी ' प्रज्ञा',
उनका 'बोध' उनकी 'समाधि',
बहुत - बहुत प्रिय है मुझे.
उनके 'चार आर्य सत्य''
उनका 'अष्टांग योग' तत्व,
उपयोगी ही नहीं....
अनिवार्य तत्व हैं मूल सत्व है ..
मानवता की स्थापना के लिए.
सृष्टि मे सद्भावना के लिए ।
गंभीर अध्ययन किया है
उनके 'जीवन यान' का..,
'हीनयान' और 'महायान' का भी.
खूब पढ़ा है - 'बोधि सत्व' को,
और नागार्जुन के 'शून्यवाद' को भी.
फिर भी क्यों...? आखिर क्यों..?
सहमत नहीं हूँ मैं, उनके प्रयाण से ...
उनकी परिकल्पना के 'निर्वाण' से...
जीवन तो एक उल्लास है,
इसमें शांति की सहज प्यास है.
.'निर्वाण' तो एक आभास है,
और 'लौ' तो स्वयं प्रकाश है.
कितने वे लगते हैं अच्छे,
जब कहते - "आप्पो दीपो भव".
जब चर्चा करते "बुझ जाने की"
तब विल्कुल बच्चे लगते हैं.
पूछता हूँ स्वयं से एक प्रश्न,
बार - बार फिर बारम्बार,
प्रत्युत्तर में कहीं दूर अन्तः से,
आती है एक स्पष्ट आवाज:
नहीं चाहिए मुझे 'प्रयाण'
नहीं चाहिए मुझे निर्वाण ,
यदि अर्थ है इसका बुझ जाना.
मैंने केवल 'लौ' को जाना.
आंधी और तूफ़ान में देखो,
'लौ' को खूब लहराए दीपक,
बुझने से पहले भी देखो;
सौ - सौ दीप जलाये दीपक.
मुझको यह दीपक है प्यारा,
प्यारा इसका जलते रहना.
इस जलते दीपक की खातिर,
जन्म - मृत्यु सब कुछ है सहना.
डॉ जयप्रकाश तिवारी

Friday, July 27, 2018

अंतर पतंग और पतंगे मे

एक पतंग और पतंगे मे 
बस अंतरप केवल इतना है 
एक नियम बद्ध उड़ती है 
दूजा हो स्वछंद उड़ता है 
स्व को स्वतंत्र समझता है 
जा कर लौ मे झुलसता है,

इस बात का कोई अर्थ नहीं 
यह त्याग, समर्पण है उसका 
या कोई आक्रोश- प्रतिशोध 
लम्बे समय से चल रहा है 
इन बातों पर अनवरत शोध 
इसीलिए मैं फिर कहता हूँ
 
सुन री ओ मेरी कविता !
मार्ग कभी तू भटक न जाना 
दायित्व कभी तू भूल न जाना 
अपना कर्तव्य निभाना तू,
पथ दिखलाना तेरा काम 
दायित्व सदा निभाना तू 
सुन री मेरी कविता !
सुन री ओ मेरी कविता !!


जयप्रकाश तिवारी 

Thursday, July 26, 2018

कविता का सन्देश

कविता सन्देश
अन्तः का
पहुंचाती है
जन-जन तक
कविता होती है 
विधि सापेक्ष;
विधि निरपेक्ष ,
कुछ उसी तरह
जैसे विधि ही है
सापेक्ष,निरपेक्ष.

काव्य
विधि सम्मत होती
विरोधक भी होती,
यह निरपेक्ष, शाश्वत
शांत - प्रशांत होती,
दैहिक - दैविक-
भौतिक भी होती.
काव्य और
साहित्य प्रायः
आन्दोलन करते
नहीं, कराते है.
ये कभी जनता को
जनार्दन के लिए,
कभी विधि के लिए,
तो कभी जनार्दन को
जगत के लिए भी
प्रेरित किया करते.

काव्य कभी भी
राजनीति करती नहीं,
राजनीतिज्ञों की
कसती नकेल है,
काव्य जगत को
नकारने वाला
यहाँ पास नहीं
नितांत फेल है.
डॉ जयप्रकाश तिवारी

Tuesday, February 6, 2018

कौन, किसने डाला डेरा?

पाकर मुझे नितांत अकेला
यह कौन, किसने डाला डेरा?
छू-छूकर मेरे तन-बदन को
वासंती हवाएँ गुदगुदा रही हैं
उनको क्या मालूम कि मेरे 
दिल का दर्द वे बढ़ा रहीं हैं ।
अरे, मेरी बात न पूछो तुम
हर दर्द यहाँ मेरा सहचर है
बैठा हूँ चुपचाप, मौन धर
इसका यह मतलब तो नहीं
कि अकेला है, घर खाली है
यह प्रतीक्षा रत बनमाली है।
मुंह खोला तो छलक पड़ेंगे
तेरे नयनों से ही खारा- खारा
गमगीन, उतप्त, गरम आँसू
देखो तुम अल्हड़ हो मदमाती
तुम ठंडी पवन का झोंका हो
इस तरह पास क्यों आ रही?
क्या तेरा भी मन भर गया है
ठंडे, मीठे इस सरिता जल से?
क्यों पीने ये अश्रु यहाँ आई ?
नहीं छोड़ा करते घर को यूँ ही
जा, लौट जा वापस घर को तू
हाँ, लौट जा वापस घर को तू ।
यदि देर हुई जग यह टोकेगा
तुझे घर मे घुसने से रोकेगा
चाहे जितना दे लो सफाई
तेरी बात न कोई समझेगा
देनी होगी तुझे अग्नि-परीक्षा
पवित्रता अपनी बताने को
मेरे कहने से भी कुछ ना होगा
मानेगा यहाँ कोई भी नहीं।
निर्जन है, बदन छुया न होगा
रूप गंध किसी ने पिया न होगा
किससे क्या बतलाओगी तुम
जा, लौट जा वापस घर को तुम॥
जयप्रकाश तिवारी

Saturday, February 3, 2018

मैं और मेरा जीवन


जीवन सुख दुख का मिश्रण
खट्टा - मीठा एक घोल सा
सरल- शांत - घट - मोम सा॰
हमी बनाए गरल हैं, इसको
यह जल है, मेघ है, व्योम सा.
खोलना चाहोगे, खुल जाऊंगा
परत - परत भी मैं हो जाऊंगा
चाल चलोगे लेकिन कोई यदि
अभेद्य दुर्ग सा बन जाऊंगा।
सरल नहीं, गरल ही समझो
गूढ रहस्य एक बन जाऊंगा ।
माना तुम सबल, बुद्धिमान हो
फिर भी मैं हाथ नहीं आऊँगा
कभी भी साथ नहीं आउंग,
बन के पवन बहता ही रहूँगा
लेकिन सूनी होगी मुट्ठी तेरी,
न मिश्रण हूँ मैं, न यौगिक हूँ
विशुद्ध तत्व मैं बन जाऊंगा
भारहीन, रूप रंगहीन मैं
विस्तृत व्यापक हूँ ऊर्जा सा,
मेरी ही शक्ति दमकते हो तुम
मैं हूँ 'सांत', मैं ही 'अनंत सा'॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी

Sunday, January 28, 2018

तूने जिंदा कवि को मार दिया



हाँ, कविताओं को मैं पढ़ता हूँ
और कविता भी मैं लिखता हूँ
कवि की चाह, पढें सब कविता
डरता हूँ, कविता पढे न कविता,

ठन जाएगी, कविता-कविता में
मैं कहाँ संभाल पाऊँगा कविता
कविता - कविता के इस द्वन्द्व में
पिस जायेगी बेचारी मेरी कविता।
नहीं खोना चाहता कविता को
इसलिए संभालता हूँ कविता
चलो यह एक अच्छी बात हुई
भा गयी, कविता को कविता,

अरे अब पिसने की बारी, मेरी है
बच पायेगी नहीं अन्तः कविता
अरे कविता को कौन बचाएगा
लिखने लगी कविता, कविता।

पाला जिस कविता को मैंने
आँसू अपना पिला - पिलाकर
कविता ने उसे बाजार दे दिया
हँस - हँसकर, खिल खिलाकर,

कविता को कविता लिखने का
किसने यह अधिकार दे दिया?
कविता मेरी, दयाकर मुझपर
तूने जिंदा कवि को मार दिया।

पहुंचा संदेश जब छापाखाना
कुछ अर्थी को लेकर आ गए
कुछ लगे तलासने मेज मेरा
कुछ डायरी लेकर भाग गए ,

अभी मरा नहीं, मैं जिंदा हूँ
कविता-कविता रटता ही रहा
कविता ने मारा, कविता से
कविता-कविता कह रोता रहा

कविता छापने के बदले मे
प्रकाशक ने थोपी थी कविता
ला, अब ला, तू मेरी कविता
ले जा, अपनी प्यारी कविता,

नहीं जाऊंगा, प्रकाशक पास
क्या छोड़ दूँ , लिखना कविता?
नहीं, छोड़ नहीं सकता लिखना
लिखुंगा स्वांतः सुखाय कविता॥
- जयप्रकाश तिवारी

Tuesday, January 9, 2018

मैं और मेरा जीवन

जीवन सुख दुख का मिश्रण
खट्टा - मीठा एक घोल सा
सरल- शांत - घट - मोम सा॰
हमी बनाए गरल हैं, इसको
यह जल है, मेघ है, व्योम सा.
खोलना चाहोगे, खुल जाऊंगा
परत - परत भी मैं हो जाऊंगा
चाल चलोगे लेकिन कोई यदि
अभेद्य दुर्ग सा बन जाऊंगा।
सरल नहीं, गरल ही समझो
गूढ रहस्य एक बन जाऊंगा ।
माना तुम सबल, बुद्धिमान हो
फिर भी मैं हाथ नहीं आऊँगा
कभी भी साथ नहीं आउंग,
बन के पवन बहता ही रहूँगा
लेकिन सूनी होगी मुट्ठी तेरी,
न मिश्रण हूँ मैं, न यौगिक हूँ
विशुद्ध तत्व मैं बन जाऊंगा
भारहीन, रूप रंगहीन मैं
विस्तृत व्यापक हूँ ऊर्जा सा,
मेरी ही शक्ति दमकते हो तुम
मैं हूँ 'सांत', मैं ही 'अनंत सा'॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी