Monday, June 26, 2017

कलम जब कफन को उठाती

कर दिया हमें
जिसने उद्वेलित
वह कहानी
किसने गढ़ी है?
बात इतनी नहीं कि 
द्रुपदसुता सभा मे
बेइज्जत हुयी है,
चलती सड़क पर,
ट्रेन, बस, टेम्पो मे भी
उसकी यही गति है।

बदलते समय मे
अब तक खतरे मे
बेचारी 'कन्या भ्रूण',
खतरा यह रूप एक
घिनौना लेने लगा है,
छोटी बच्चियाँ भी
नहीं है सुरक्षित,
इन मनोरोगियों से
करनी है उन्हे संरक्षित।

क्या- क्या कहानी
तुम्हें हम सुनाएँ
रो दोगे तुम,
क्यों तुमको रुलाएँ?
समस्या जो आई
मिटाएँगे उसको,
आएगी जो बाधा
अब हटाएँगे उसको।

यहाँ बिखरी पड़ी
सिसकती वेदनायेँ
उपेक्षित पड़ी हैं
हजारों ऋचायेँ,
भूगोल बनकर
दफन हो गयी हैं
कफन ओढ़कर
असमय सो गयी हैं।

कवि की कलम
जब कफन को उठाती
तब कविता, कहानी
नई जग मे आती,
समस्याओं का हल भी
वही तो सुझाती।
न रोके कोई
इस कलम की राह
शत बार पढ़ो
क्या कलाम की चाह?
डॉ जयप्रकाश तिवारी

Wednesday, March 8, 2017

बोलो समाज, क्यों हो तुम मौन?


जब हर मन में बसता पुरुष
हर पुरुष में बसती नारी है
तब 'नारी' 'पुरुष' क्यों कहता
क्यों देवी या कुलटा कहता?
क्यों बाँटते दो छोर में नारी को
इसके मध्य बहित कुछ घटता.
नारी को रहने दो केवल नारी
इन अतियों के बिच वह हारी है.
नारी क्या सामान्य मानव नहीं?
क्यों सामान्या की अधिकारी नहीं?
उसे नहीं चाहिए "देव' का पद"
पर कुलटा, कामिनी कहना छोडो.
संवेदना नारी मन की श्रेष्ठतर
संवेदना से ही नाता तुम जोड़ो..
संवेदी नारी सबकुछ कर सकती
बनती 'कुलटा', 'देवी' वह बनती
तो सोचे समाज इस बात को कि
'देवी' छवि उससे क्यों छिनती?
क्यों करता समाज इतना मजबूर
बन जाती संवेदनाये , गरल - क्रूर
जब विकृति उभर कर आती है
विभत्स स्वरूप ही दिखलाती है
लेकिन इन सबका कारण कौन?
बोलो समाज, क्यों हो तुम मौन?
डॉ. जय प्रकाश तिवारी

Wednesday, August 10, 2016

दर्द

दर्द -
झुंझला देता
झुलसा देता 
गला देता
जला देता
और कभी यही
अंतर्मन को
धीमे - धीमे
थपकी डे
सहला देता
बहला देता
सैर न जाने
कहाँ - कहाँ की
पल भर में ही
ये करा देता ..
डॉ जयप्रकाश तिवारी

Tuesday, July 26, 2016

दर्द की भाषा- परिभाषा (५)


दर्द -
एक रस है
कहीं सान्द्र
कहीं तरल है
सरल दर्द देखा
गरल दर्द देखा
सरस दर्द देखा
निष्ठुर दर्द देखा
निष्ठुर दर्द के
नेत्रों में हिय-रस
पूरा - पूरा घोल
दिया था
दर्द बना था
पाहन का
उस पर कुछ भी
न असर हुआ था
दर्द के कई पोल हैं
दर्द में कई होल है
ठोकर मार के देखा
दर्द यह
आत्मघाती गोल है ..
(क्रमशः जारी है )
डॉ. जयप्रकाश तिवारी

दर्द की भाषा-परिभाषा (4)


दर्द -
एक टीस है
उसकी अपनी 
ही एक रीति है
रोने नहीं देता
वह चैन से
सोने नहीं देता
दर्द की
दुहाई नहीं होती
दर्द सदा
बेवफाई नहीं होती
दर्द देते हैं-
अपने भी, पराये भी
दर्द धोते हैं -
अपने भी, पराये भी
दर्द बाँटते हैं -
अपने भी, पराये भी.
पर, होते हैनं
कुछ दर्द ऐसे
जिसे बंटाना तो दूर
कोई जान नहीं पाता
व्यक्ति अकेले ही
उसे आजीवन ढोता
यह दर्द ही उसका
प्यारा मीत होता
जीने का संबल होता
हार में भी जीत होता ..
(क्रमशः जारी)
डॉ जयप्रकाश तिवारी

Monday, July 25, 2016

दर्द की भाषा-परिभाषा (3)


कुछ पाकर दर्द
विखर जाते हैं
कुछ पाकर दर्द 
संवर जाते हैं
संभावना दर्द की
है असीम अपार .
हाँ, इस दर्द के
विभिन्न रंग है
बिना कोई दर्द
जीवन बदरंग है
दर्द चिमटा है
दर्द कुर्सी है
दर्द घुघरू है
दर्द पायल है
इसी के पीछे
दुनिया घायल है .
दर्द यह
बुनता है जाल
करता आक्रमण
अधिकार बनकर
कर्त्तव्य बनकर
प्यार बनकर
क्रोध बनकर
हंसी बनकर
ग्लानि बनकर
योगी बनकर
सन्यासी बनकर
कभी काबा और
कभी काशी बनकर ..
(क्रमशः जारी)
डॉ जयप्रकाशतिवारी

Wednesday, July 20, 2016

दर्द की भाषा-परिभाषा (२)


क्या दर्द वही
जो छलक पडे?
क्या दर्द वही 
जो लोचन बहे?
क्या दर्द वही
जिससे गुबार
यदि दर्द यही,
तो क्या है वह?
अंतर में जो
घुटता रहता है
आता ही नहीं
जो बाहर को
विदग्ध लहर
जो रहता है
पी नयनों का
जल खारा
शुष्क किये
जो रहता है.
(क्रमशः जारी)
डॉ जयप्रकाशतिवारी