Wednesday, August 11, 2010

हे स्वप्न! तुम्हारा ऋणी हूँ मैं

हे मेरे स्वप्न!
तुम्ही तो मेरे मीत हो
जीवन के गीत हो
लक्ष्य के संगीत हो.
तुम्ही ने तो दिखाया है
मुझे उन्नति का मार्ग
प्रशस्त किया है -
जीवन की राह.


मै भी भटकता रहता
औरों की तरह...
परन्तु
तुमने बोध कराया है
मुझे मेरी शक्ति का,
मेरे अरमान का,
मेरे संकल्प का और
मेरे मानव होने का.


परिभाषा और सूत्र तो
तूने ही दिया था -
नहीं होता कोई विकल्प
किसी संकल्प का.
संकल्प में ही सन्निहित है,
असीम ऊर्जा गतिशील होने
गतिमान करने के लिए.
रुक जाना तो मानव की हार है,
इस हार को धारण करना
पहन लेना कायरता है.


तूने ही तो कहा था-
'हार' पहनने की अभिलाषा
कहीं से भी नहीं होती बुरी.
संल्कल्प और श्रम से जीती
बाजी ही गले का 'हार' है और
यही मानव का श्रृंगार है. (१)


हे स्वप्न!
तू बार - बार आना,
हर बार मुझसे कुछ
संकल्प करना जो
समर्पित हो
मानवता के लिए.
मातृभूमि के लिए,
प्यारी संस्कृति के लिए,
मधुमय प्रकृति के लिए.


मै तो था एक अणु,
एक कण- त्रिन - धूल,
तूने बना दिया उसे
सुरभित-सुगन्धित फूल.
तूने ही तो बताया था
बार - बार चेताया था -
आधारहीन विवेकहीन स्वप्न,
पतन है, पराभव है, खाई है, गर्त है;
लोकमंगल ही सच्चे स्वप्न की
प्रथम और अंतिम शर्त है. (२)


हे मेरे स्वप्न!
चिर ऋणी हूँ तुम्हारा
कैसे उतार पाऊंगा बोझ ये सारा?
सच है रुलाया भी है तूने बहुत,
लेकिन अंततः सत्य का
बोध कराया है पतन से
बचाया है, एक नहीं अनेक बार.


तूने बार-बार याद दिलाया है
स्वर्ग में सीढ़ी लगाने का
स्वप्न मत देखो.
स्वर्ग को धरा पर उतारने का
स्वप्न देखो.
मत करो ऐसे देवों की परिक्रमा
जो सुरलोक के हों या भूलोक के,
जिनमे लोकमंगल की अभीप्सा,
अभिलाषा नहीं, जिजीविषा नहीं.


प्यारे! प्रयास करो और
बना जाओ स्वयं को,
मानव से महामानव;
और महामानव से देवमानव.
देवत्व की जलाओ ऐसी चिंगारी
प्रज्ज्वलित हो जाय पूरी धरती,
पट जाय देवमानवों से दुनिया सारी.
हे स्वप्न! तेरा वंदन!
तेरा बार-बार अभिनन्दन!! (३)

हे स्वप्न! तुम्हारा ऋणी हूँ मैं

हे मेरे स्वप्न!
तुम्ही तो मेरे मीत हो
जीवन के गीत हो
लक्ष्य के संगीत हो.
तुम्ही ने तो दिखाया है
मुझे उन्नति का मार्ग
प्रशस्त किया है -
जीवन की राह.

मै भी भटकता रहता
औरों की तरह...
परन्तु
तुमने बोध कराया है
मुझे मेरी शक्ति का,
मेरे अरमान का,
मेरे संकल्प का और
मेरे मानव होने का.

परिभाषा और सूत्र तो
तूने ही दिया था -
नहीं होता कोई विकल्प
किसी संकल्प का.
संकल्प्प में ही सन्निहित है,
असीम ऊर्जा गतिशील होने
गतिमान करने के लिए.
रुक जाना तो मानव की हार है,
इस हार को धारण करना
पहन लेना कायरता है.

तूने ही तो कहा था-
'हार' पहनने की अभिलाषा
कहीं से भी नहीं होती बुरी.
संल्कल्प और श्रम से जीती
बाजी ही गले का हार है और
यही मानव का श्रृंगार है. (१)


हे स्वप्न!
तू बार - बार आना,
हर बार मुझसे कुछ
संकल्प करना जो
समर्पित हो मानवता के लिए.
मारिभूमि के लिए,
प्यारी संस्कृति के लिए,
मधुमय प्रकृति के लिए.

मै तो था एक अणु,
एक कण- त्रिन - धूल,
तूने बना दिया उसे
सुरभित-सुगन्धित फूल.
तूने ही तो बताया था
बार-बार चेताया था -
आधारहीन विवेकहीन स्वप्न,
पतन है, पराभव है, खाई है, गर्त है;
लोकमंगल ही सच्चे स्वप्न की
प्रथम और अंतिम शर्त है. (२)


हे मेरे स्वप्न!
चिर ऋणी हूँ तुम्हारा
कैसे उतार पाऊंगा बोझ ये सारा?
सच है रुलाया भी है तूने बहुत,
लेकिन अंततः सत्य का
बोध कराया है पतन से
बचाया है, एक नहीं अनेक बार.

तूने बार-बार याद दिलाया है
स्वर्ग में सीढ़ी लगाने का
स्वप्न मत देखो.
स्वर्ग को धरा पर उतारने का
स्वप्न देखो.
मत करो ऐसे देवों की परिक्रमा
जो सुरलोक के हों या भूलोक के,
जिनमे लोकमंगल की अभीप्सा,
अभिलाषा नहीं, जिजीविषा नहीं.

प्रयास करो और बना जाओ
स्वयं को, मानव से महामानव;
और महामानव से देवमानव.
देवत्व की जलाओ चिंगारी
प्रज्ज्वलित हो जाय धरती,
देवमानवों से दुनिया सारी.
हे स्वप्न! तेरा वंदन!
तेरा बार-बार अभिनन्दन!! (३)

Saturday, August 7, 2010

कुम्भ सा बने मेरा जीवन

यह कुम्भ तो
एक प्रतीक है
मृत्तिका में छिपे
अनुपम सौंदर्य का.

मृत्तिका के
औदार्य का,
मृत्तिका की
रचना धर्मिता का.

मृत्तिका में घुले
मानव कला का.
मृत्तिका रूप में
मानव जीवन का.

कुम्भ में भरा है - जल
कुम्भ में भरा है - अन्न
कुम्भ में भरा है - द्रव्य
कुम्भ जब है - खाली
तब भी भरा है - उसमे
प्राणदायी संजीवनी वायु.

परन्तु
किसके लिए ?
सब कुछ है -
परार्थ निःस्वार्थ
उसका कुछ भी
नही है - स्वार्थ.

कुम्भ बताता है
इस निखार का रहस्य
निर्माण के पूर्व कुचला जाना
मसला जाना, रौंदा जाना
आग में जलकर और भी
निखर जाना उपयोगी होना...

Thursday, August 5, 2010

परिभाषा आदमी की

कहीं पढ़ा था मैंने
कुछ वर्ष पहले किसी
कवि के इन शब्दों को -
"मुश्किल हो गया है अब
आदमी को परिभाषित करना
कविता के बाहर .....".


सोचता हूँ आज
ऐसा क्यों कहा
उस महानुभाव ने?
क्या एक संरचना, रूप-रंग
आकार -प्रकार के रूप में
कभी आदमी हो सकता है -
मुश्किल, अपरिभाषित..
और........अव्याख्येय?


निश्चय ही यहाँ आशय
आदमी का अर्थ रंग-रूप
से नहीं रहा होगा.
निश्चय ही यह आदमी के
अंतर में छिपी चिति
मन - चेतना - संवेदना
की ओर एक संकेतन है,
आगे बढ़ने का निवेदन है.


तन का चित्रण तो हो सकता है
किन्तु मन का चित्रण?
मन के चित्रण के लिए ही तो
रचे गए हैं - अलग शस्त्र,
एक स्वतंत्र 'मनोविज्ञान'.
जिसमे फ्रायड से लायड तक,
और सुकरात से देकार्त, ब्रैडले से
कांट और सार्त्र तक विचारको ने
लिखा तो खूब लिखा और
कहा तो क्या खूब बेबाक कहा.
ज्यां पाल सार्त्र ने जरूर दी है
एक चर्चित परिभाषा आदमी की -
"आदमी वह है जो वह नहीं है और
जो वह नहीं है वही वह है"


लेकिन बात बनी कहाँ?
अंततः सभी बड़े विचारक उतर आये हैं
काव्य की रहस्यमय भाषा में.
आंचलिक प्रतीकों और लोक कथाओं में.
.इसलिए गाया है मानव मन के गीत को
काव्य में, लक्षणा में, व्यंजन में, आदि कवि
वाल्मीकि से लेकर अद्यतन चिंतकों और
कवियों ने. लेकिन कहाँ पूरी हो पाई है,
मानव की परिभाषा आज भी?
मानव जो है - देव से भी सुंदर,
मानव जो है - दानव से बनी बदतर.


Tuesday, August 3, 2010

स्वतंत्रता की मशाल: गणितज्ञ बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक, भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष काल का ऐसा नाम जिसने स्वतंत्रता की चिंगारी को दहकता शोला बना दिया. एक ऐसा आध्यात्मिक व्यक्तित्व जिसने 'गीता' की एक नई व्याख्या की, शिथिल पड़े समाज को 'कर्मयोग' का पाठ पढाया. सोते हुओं को जगाया, उनकी निद्रा तोड़ी; तन्द्रा मरोड़ी और कर दिया गतिमान कर्त्तव्य पथ पर. ऐसे ऊर्जस्वी व्यक्तित्व के धनि थे - बाल गंगाधर तिलक; जिन्होंने अपने नाम में जुड़े प्रत्येक शब्द को, अक्षर विन्यास को सार्थक किया. उन शब्दों को एक नया अर्थ दिया, नई व्याख्या दी. वे शब्द अपनी व्याख्या सुनकर खिल उठे. लगता है शब्द और अर्थ मिलकर उनके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं कुछ इस प्रकार से - 'वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये' के रूप में. वह नाम जिसके उच्चारण मात्र से स्वतान्तान्त्र्ता का जोश सिद्धांत रूप से छलक पड़ता है _ "स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे".

डॉ. राधाकृष्णन लिखते हैं - "युवकों के लिए तिलक के नाम का अर्थ था- ज्वलंत वेग, भक्ति, अद्वितीय साहस, देश की अवातान्त्र्ता के लिए दृढ संकल्प और समर्पण". आज जब हम तिलक जी के बारे में सोचते हैं, डॉ. राधाकृष्णन के प्रत्येक शब्द को उनके नाम के अर्थ में समाहित पाते हैं.हम उनके नाम की व्याख्या इस प्रकार भी कर सकते हैं -

बाल = हनुमान जैसा बाल रूप जिसने अंग्रेजी राज्य के सूर्य को निगल लिया.

गंगाधर = गंगा को धारण करने वाले शिव का रूद्र रूप जिनके तीसरे नेत्र से स्वतंत्रता की ऐसी ज्वाला फूटी जिसमे अंग्रेजी सरकार भस्म हो गयी.

तिलक = उस स्वतंत्रता की भस्म को हम चन्दन/रोली मान कर हम गर्व से माथे पर धारण कर रहें हैं.

यह है उनके नाम में जुड़े शब्दों का प्रभाव जिन्होंने तिलक के व्यक्त्तित्व को अद्भुत-अलौकिक बना दिया. डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार - "तिलक ने बार-बार कहा था, 'स्वतंत्रता हमारी भावी समृद्धि की नीव है, छोटी नहीं. हमें एक नए राष्ट्र का निर्माण करना होगा".अपने उसी लेख में डॉ. राधाकृष्णन आगे लिखते हैं - "आम हालत में तिलक ने एक विद्वान का जीवन जिया होता तो पूर्व देशीय अध्ययन तथा गणित के क्षेत्र में उनका विशिष्ट योगदान होता. लेकिन एक पराधीन राष्ट्र के सदस्य होने के नाते उनके लिए राजनीति में भाग लेने के अलावा कोई चारा नहीं था. जब उनसे पूछा गया कि 'स्वराज्य मिलने पर आप कौन विभाग संभालना पसंद करेंगे? आप प्रधान मंत्री बनेंगे या विदेश मंत्री?' उन्होंने जो जवाब दिया था, उससे उनके मन का पता चलता है: 'स्वराज्य मिलने पर मैं राजनीति से छुट्टी लेकर गणित का प्रोफ़ेसर बन जाऊंगा. मुझे राजनीति से सख्त घृणा है. मैं अब भी सापेक्ष विगणन पर पुस्तक लिखना चाहता हूँ." आज सोचता हूँ, तिलक जी यदि जीवित होते और सचमुच गणित शास्त्र के प्रोफेसर हो गए होए होते तो गणित को कैसे पढाते? बच्चों को कैसे समझाते? शायद इस रूप में -

( कक्षा में प्रथम दिन ....परस्पर ..अभिवादन .., संक्षिप्त परिचय ...के बाद.....बच्चों सीट पर बैठ जाओ)


प्यारे बच्चों!
गणित के शिक्षार्थियों के लिए
अनिवार्य है कि वे गणित के
इतिहास को कदापि न भूलें.
हमने राजनीति में इसी इतिहास
को भुला दिया, फलतः देश का
भूगोल बदल गया है आज.
गणित डरने की नहीं डूबने की चीज है,
गणित को समझने का
सबसे सरल उपाय एक ही है -
'उसमे पूरी तरह डूब जाना.....' .
गणित और अध्यात्म दोनों की शर्त है -
"जिन ढूंढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ".
तो आओ प्रारंभ करते है जानने की प्रक्रिया,


गणित क्या है? संख्याओं का खेल? अंकों का मेल?
क्रमिक और क्रम बद्ध विन्यास? या और कुछ?
गणित, जिसे बाँधा नहीं जा सकता - संख्याओं में,
आकृतियों में, संबंधों में.यद्यपि इसी में बाँधने का,
संबंधों में साधने का प्रयास हुआ है अब तक.
और यदि स्वयं संख्या, अंक और सम्बन्ध का
मान स्थिर नहीं, तो क्या इसकी माप
विस्वसनीय होनी चाहिए? यदि हाँ तो कितनी?


हमने अक्षरों को छोड़ा, शब्दों को छोड़ा,
चित्रों को छोड़ा, यह आरोपित करके कि
इसके मूल्य अर्थ बद्ध हैं. निहितार्थक
संकेतार्थक हैं,
और भावार्थक हैं.
हम शब्दों को पहचानते हैं -
उसके अर्थ द्वारा. भावार्थ द्वारा,
अक्षर विन्यास द्वारा.और अर्थ क्या है?
एक भावात्मक मूल्य.........,
कुछ निश्चित सा, कुछ अनिश्चित सा;
जिसकी व्यापकता है - शून्य से अनंत तक.
फिर भी कोई संख्यात्मक मान नहीं.
गणितीय मूल्य नहीं. निर्धारण हो तो कैसे?


गणित तो स्वयं उलझा है - संबंधों को लेकर.
उदाहरण के लिए 'पाई' का मान क्या है?
क्या पाई संख्या है? या सम्बन्ध है,
त्रिज्या और परिधि का? परन्तु स्वयं
वृत्त क्या है? व्यास क्या है? जीवा क्या है?
वृत्त जो शून्य भी है और अनंत भी.
वृत्त जो अनंत भावों का, मूल्यों का शून्य है,
और वृत्त जो अभावों का अनंत है.
शून्य और अनंत , गणित के दो छोर;
दोनों ही अकथ्य, अनिर्वचनीय, अव्याख्येय.

वृत्त भाव और अभाव के बीच की वस्तु है शायद,
जो नाम - रूप में आकार ग्रहण करती है.
वह कभी त्रिभुज - चतुर्भुज - वर्ग - आयत,
परिभाषा के अनुरूप, तो कभी गणितीय
परिभाषा के विपरीत उसकी अवाधारनाओं को
चुनौती देते हुए, कुछ जिग-जैग सी.


गणित जो दुलारा है - साहित्य और दर्शन का.
प्यारा है - विज्ञानं का, जान है - व्यापार का.
मान है - इंसान का, मूल्य है - पदार्थ का.
भाव है - सम्बन्ध का, आश्रय है - सत्ता का.
वरदान है - शासन का, शान है -वाणिज्य का.
और लोकतंत्र में कुंजी है - आसन का.


गणित जिसमे उलझा है देश का प्रत्येक नागरिक,
रक्षक से भक्षक और सैनिक से आतंकवादी तक.
खाड़ी से खाकी तक और काले कोट से टाई तक.
और जिसने सबसे ज्यादा उलझा रखा है -
राजनेताओं को. निन्यानबे का चक्कर
तो फिर भी थोडा है, सत्ता कि गणित के लिए,
बड़े-बड़े सिद्धान्तवादियों ने पार्टी तोडा है.
फिर भी डर है- यह गणित का खेल है;
पाता नहीं यहाँ कौन कब पास और कब फ़ैल है?


इसका दूसरा रूप संसद - विधान भवन और
आस्था के मंदिर में है, जहाँ गणित के कारण ही
कोई बहार तो कोई अन्दर में है.
गणित की महिमा न्यारी है, हर विद्या इनसे हारी है
दर्शन- जो सभी विद्याओं की जननी है, उसे;
डेकार्ट, स्पिनोजा, लाय्ब्नित्ज़ के माध्यम से ,
नया रूप देने में गणित ने बाजी मारी है.
अनुसुइया की गणित ने ब्रह्माणी, रुद्राणी को भी
नाको चने चबवाय था, जब सतीत्व के बल से
त्रिदेवों को दूध पीता बालक बनाया था.


गणित वह रहस्यमय ताज है -
जो आर्कमेडिज़ को वैज्ञानिक, भरत को त्याग-मूर्ति
और दुर्योधन जैसों को सत्ता का लोभी बनाता है.
केशव के शयन कक्ष में- एक अकेला को पाकर,
अर्जुन बाजी जीत गया और दुर्योधन उसी कक्ष में,
कई अक्षौहिणी सेना पाकर भी बाजी हार गया.
तब भी गणित का खेल था, आज भी गणित का खेल है.
गणित अंतरात्मा की आवाज है जो स्वप्न में आता है,
संसद में हाथ उसी के पक्ष में उठता, जो ताज दिलाता है.
हे गणित! जो मान - सम्मान तुझे रामानुजम और
भाष्कराचार्य जैसे विद्वान भी न दिला पाए,
वह इन सत्ता के दलालों ने दिलाया है.


गणित तू क्या है? किस मिट्टी की बनी है?
सदियों बाद तू आज समझ में आई है -
वृत्त सत्ता है, व्यास प्रधानमंत्री / मुख्यमंत्री की कुर्सी है,
तथा जीवा मंत्रिमंडल है, उसका आकार - प्रकार है,
जनता केंद्र बिंदु है, जिसे चूसकर हर त्रिज्या
अपना गणितीय मान बढ़ा, व्यास बन जाना चाहती है.

नोबल प्राइज़ विजेता सार्त्र की परिभाषा आदमी की अपेक्षा
गणित पर सटीक बैठती है, - " गणित वह है जो वह नहीं है,
और जो वह नहीं है, वही वह है", यही गणित है,
गणित का खेल है, सचमुच यह गणित का ही खेल है.

Saturday, July 31, 2010

गंगा क्या है - नदी, आस्था या विज्ञान?

गंगा एक नदी है
जो निकलती है गोमुख
गंगोत्री से और
आकर नीचे हिमालय से
हरिद्वार - प्रयाग - काशी होते हुए
ऋषि - मुनियों के कुटीरों का
स्पर्श - संश्पर्शन करते हुए ..
जा मिलती है - सागर से.
और बन जाती है - "गंगा सागर".


गंगा हमारी संस्कृति है
जो विष्णु के नख से निःसृत हो
जा समाई ब्रह्मा के कमंडल में.
और जब निकली कमंडल से बन के,
वेगवती - रूपवती - प्रलयंकारी,
जा उलझी खुली जटाओं में शिव के.
इस प्रकार गंगा योजक है -
भारतीय संस्कृति के नियामक त्रिमूर्ति का.
हमारी आस्था - विश्वास और भावनाओं का.


गंगा है आस्था
और विश्वास का अटूट संगम,
केवल गंगाजल ही है समर्थ,
तारने मैं राजा सागर के भस्मीभूत
हो चुके सहस्रों लाडलो को.
इसलिए गंगावतर
बन गया था,
एक पवित्र मिशन भगीरथ के लिए.
भगीरथ की सफलता के बाद
गंगा बन गयी - 'भागीरथी'.
तारनहार और पालनहार!!
हो गयी सुलभ जनसामान्य के लिए,
और बन गयी है प्रबल केंद्र,
आस्था का, श्रद्धा का, विश्वास का ..


परन्तु, हाय रे नगरीय सभ्यता !
हाय रे भौतिकता की प्रगति !!
तूने तो सत्यानाश ही कर डाला,
सैकड़ों नाले - सीवर का मुह खोलकर,
कूड़ा - कचरा बहाकर इस पवित्र नदी में.
खून कर डाला है तूने, कोटिशः आस्थाओं का.
क्या हक है तुझे किसी की आस्था
और भावनाओं को कुचलने का?
किसने दिया तुझे यह अधिकार?
कुछ शर्म करो! तुझे धिक्कार!!
बार-बार और पुनः-पुनः धिक्कार!!


गंगावतरण विज्ञान है-
एक .सूत्र है भौतिकी का,
कहती है जिसे वह -"ओह्म्स ला".
उच्च वोल्टेज हिमालय (V) से
निम्न वोल्टेज गंगासागर के बीच
बहने वाली गंगा इस प्रवाह (I)
के परिपथ को जोडती है.
शिव की जटायें प्रतिरोध (R)
की भूमिका निभाते हुए
प्रदान करती है - 'वांछित धारा'.
उपयोगार्थ और प्रयोगार्थ.
साथ ही प्रदान करती है-
एक माडल - "ओह्म्स ला" के लिए.

;,

Friday, July 30, 2010

गोदान से श्रेष्ठ है रक्तदान और नेत्रदान

देखा था टपकते बोतल से
रक्त की लाल सी बूंदों को,
जो दे रही थी नवजीवन
बेजान पड़े किसी मानव को.

नहीं जानता हममे कोई
थी किसकी ये बूंदे?
किसी किशोर या प्रौढ़ की
हिन्दू मुस्लिम या बौद्ध की.
जड़ सींच रही थी वह तो
मस्ती में अपनी किसी
अजनवी के बेजान पौध की.

नहीं जानता हममे कोई
आखिर वह बूंदे थी किसकी?
किसी पुरुष या नारी की
योगी - भोगी किसी गृहस्थ
अथवा किसी ब्रह्मचारी की?
रक्त तो है यह - 'मात्र रक्त'
हो स्वेच्छा की या लाचारी की.

दे सकता है 'रक्त' हमारा
दम तोड़ते को पुनर्जीवन,
ले सकता है - 'दंभ' हमारा
हँसता हुआ किसी का जीवन.
अहम् में घुलकर यही ताकत
कुछ उबल-उबल सा जाता है,
यह उबला रक्त समाज को
यूँ ही फिर कहाजाता है.

रक्त - रक्त में भेद है भाई
इस अंतर को जानो तुम भाई,
एक रक्त है - 'जीवनदाता',
दूजा 'समाज का कोढ़' कहलाता.
हम भी करें काम कुछ ऐसा
उपयोगी हो रक्तदान है जैसा,
कौन जाने यह क्या कर जाए?
किसको नव जीवन दे जाए?

नेत्रदान भी महा दान है
परन्तु जनता अब भी अनजान है,
आओ हम ऐसा कर जाएँ,
नेत्रदान कर राह दिखाए.
'गोदान' के फल को देखा नहीं
रक्तदान को नेत्रदान को देखा है,
क्यों उलझें गोदान के पीछे?
गोदान में एक छिपा स्वार्थ है
रक्तदान - नेत्रदान महा पुरुषार्थ है.