कहाँ गए आज के नारी आन्दोलन के
तथाकथित राजनेता - राजनेत्री, सशक्तिकरण के
ध्वजवाहक नायक और नायिकाएं?
क्या टीवी के विभिन्न चैनलों पर दिखने वाली
'नग्न नारी देह' ही अंतर्राष्ट्रीय प्रगति और
नारी सशक्तिकरण है?
ये सही अर्थों में सम्पूर्ण नारी विकास' को
तो समझ पाए नहीं, ये दिशा क्या देंगे?
हाँ अपना उल्लू सीधा करके अपना
नाम कमाने वाले, अकूत संपत्ति बटोरने वाले,
ये नारी सशक्तिकरण के अग्रदूत;
इसकी शुरुआत निज गृह,
निज परिवार से क्यों नहीं करते?
आखिर सशक्तिकरण के नाम पर
कब तक महिलाओं को
सेल्स ब्रांड बनाया जायेगा?
और उत्पाद बेंचने के लिए
ग्राहकों को फसाया जायेगा?
ये नव व्यापारवाद, पुरुष और
महिला दोनों को बुद्धू बना रहा,
'नारी देह' को नंगा नाचा रहा.
ठंडा - गरम, पिला -पिला,
साबुन,-,शम्पू से नहला रहा,
लोभी पुरुष मानसिकता को लुभा रहा.
इनका इमान - धरम
न नारी सशक्तिकरण है, न
पुरुष वशीकरण,इनका मूल उद्देश्य है-
धन और बाजार की पूंजी पर अधिपत्य.
नारी अधिकारों की वकालत
करने वालों का रूप आज दोनों सदनों में
देखिये, कहाँ गया महिला आरक्षण बिल?
क्यों नहीं पारित हो पाया अबतक?
पारित होने की संभावना भी नहीं,
खोट है नीयत में.क्योंकि अब
स्वयं की कुर्सी खतरे में नजर आ रही.
जो पांच साल के लिए कुर्सी मोह
नहीं छोड़ सकता वह,
नारी सशक्तिकरण के नाम पर
छल / शोषण ही तो कर रहा?
हाँ इतना अवश्य हुआ कि
नारी मन में चौखट लांघने का
एक कौतुहल, उत्साह और उमंग आया है, जो
शिक्षा के माध्यम से, कार्यालय से आकाश तक,
खेल के मैदान से राजनीतिक द्वार तक छाया है.
अब नारी मन कि इसी उमंग, इसी तरंग,
इसी समझ ने इन नेताओं कि नीद को उड़ाया है.
इनमे भय आ समाया है, नारी है क्या?
क्या अब तक इनकी समझ में आया है?
इन्हें क्या पता; नारी मन, शोषण और व्यापार की नहीं;
श्रद्धा, मर्यादा, शक्ति और भक्ति रहस्यमयी पुंज है.
इन नेताओं में नारी के इन्हीं गुणों से तो भय है.
वे अब नारी को बहलाकर- फुसलाकर, समाज में
नारी का ऐसा कुत्सित कुरुपौर अमर्यादित रूप
प्रस्तुत करना चाहते हैं, जिससे नारी स्वयं अशक्त हो जाय.
स्वयं की नज़रों में गिर जाय. अक्षम को नाचाना सरल है,
सबल के समक्ष तो स्वयं ही नाचना पड़ेगा.
नारी सशक्तिकरण इनका केवल नारा है, छल है.
नारी स्वाधीनता की परिकल्पना
कोई पश्चिम की बपौती नहीं.
अनादि काल से बही है यहाँ -
नारी स्वाधीनता की एक धारा.
जो प्रतीक - प्रतिमानों में गुम्फित है
यह, उधार की कठौती नहीं.
सती का हठ, उनका यज्ञाग्नि प्रवेश,
नारी स्वातंत्र्य और
अधिकार का प्रथम उदाहरण है.
अनुसुइया का सामाजिक विद्रोह,
सतीत्व बल, सावित्री का सतवान वरन,
सीता का बन गमन,
मीरा, राधा का अनुराग.
स्वाधीनता का ही है परिचायक.
परन्तु इसमें कहीं भी दांपत्य से दूरी नहीं.
दुराव टकराव तलाक नहीं,
मनुष्यता, मानवता, सामाजिकता का ह्रास नहीं.
मानव समाज मानव सृष्टि को कोई
खतरा नहीं, सृष्टि संरचना को
पुष्ट ही करता है यह अधिकार.
आज उसी अधिकार हेतु आन्दोलन क्यों?
चाहिए यदि वास्तविक अधिकार,
आंशिक नहीं सर्वांश तो वापस लौटना होगा.
पाश्चात्य शैली नहीं, अपनी संस्कृति को
पनाना होगा, उलटना होगा इस धारा को.
और धारा के उलट ते ही होगा चमत्कार,
न कोई शोर - शराबा, न चीत्कार.
धारा अब बन जाएगी - "राधा" .
और "राधा" में रूपांतरण होते ही :
कान्हा हो गया वश में, अब गोकुल तुम्हारी,
मथुरा तुम्हारी, द्वारिका तुम्हारी......
अब सब कुछ तुम्हारा, कान्हा तो है प्रेम से हारा.
सर्वस्व छोड़ अब ;कुछ' के पीछे,भागना क्या?
मणि को छोड़ अब तुच्छ के पीछे नाचना क्या?
इस छलावे में भी अच्छी बात यह है कि,
महिला राष्ट्रपति और महिला स्पीकर,
दोनों भारतीय संस्कृति की संवाहिका है,
देखना यह होगा की उनकी चल कितनी रही?
वे प्रमाण हैं या मुखौटा?
नारी मर्यादा संरक्षण में कितना
सफल हो पातीं हैं, यह भविष्य की बात है,
लेकिन मूल रूप में इस प्रश्न पर
नारी जगत को ही सोचना होगा.
हित उनका किसमे है? कहाँ है?
उन्हें चाहिए क्या? मिल क्या रहा?
और नारी मुक्ति आन्दोलन धारा,
सशक्तिकरण के नाम पर किधर जा रहा?
Tuesday, March 9, 2010
अंतर्राष्ट्रीय महिलादिवस : कुछ प्रश्न, कुछ आशंकाएं
एक गुनगुनाता शर्मिला सा सुकोमल नारी मन
यदि चुप हो जाय तो उसका मनुहार होना चाहिए ;
स्तुत्य है, इस व्यथा निवारण का यह पुरुष प्रयास .
सम्प्रेषण और प्रेक्षण की यह कोपविद्या, नारी के लिए है,
सुगम और सरल; साथ ही लाता है मनुहार का एक अवसर.
प्रत्यक्षतः यह दृश्य भी है और श्रव्य भी.
सहयोगी रूप में, दया, ममता, करुना के भाव;
इस सम्प्रेषण को बनाते है, - और भी सबल, प्रबल.
परन्तु एक चुप हो चुके पुरुष मन को,
मानाने और गुदगुदाने का, समझने और समझाने का
नारी प्रयास अर्थहीन है? औचित्यहीन है? और क्यों?
सामंजस्य और भावसंतुलन के स्थान पर उसे पाषाण पुरुष
की संज्ञा देना; आखिर है क्या? क्रूरता या कायरता?
कौन करेगा निर्णय? किसने देखा है - पाषाण पुरुष की
बेजान चुप्पी में, उसके गहन गाम्भीर्य शान्ति में;
वल्लियों उठ रहे कलोल और कोलाहल को?
शान्ति सागर में हिलोरें मार रहे ज्वार - भाटा को?
क्या यह अवमूल्यन नहीं,चेतना का, बौद्धिकता का?
चिंतन की वेदना का? संवेदना की स्वतन्त्रता का?
नारीमुक्ति विमर्श की धारा, उसके सशक्तिकरण की विचारधारा
समय और प्रस्थितिनुसार संवेग और स्वरुप धारण करे,
यह तो समझ में आता है, किंचित भी मतभेद नहीं उससे;
यथोचित उत्साह भरा समर्थन है उसे, वे तो दूसरे हैं
जो इसका राजनितिक विरोघ अपनी क्षुद्र लिप्सा के लिए
करते रहें है, आज भी कर रहे हैं, छोडिये उनकी बात...
प्रश्न यह है कि स्वतन्त्रता के नाम पर अपने तन-बदन को,
बाजारू चीज बना देना, आखिर है क्या? स्वतन्त्रता या स्वच्छंदता?
साथ ही नारी स्वातंत्र्य के नाम पर, नारीत्व और स्त्रीत्व से
मुक्ति कि बात, कहीं से भी नहीं आती समझ में,
यह मानवजाति का विलोपन है या पशुता का उन्नयन?
नारी को प्रकृति प्रदत्त अधिकार, सृजन है; विनाश नहीं.
मानवजाति का विनाश तो नारीजगत का अपमान है.
प्रकृति और प्रवृति से विद्रोह है, यदि नारी प्रकृति प्रदत्त
और संसकृति प्रदत्त अधिकारों कि सुरक्षा नहीं कर पायी,
तो संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा क्या रक्षा कर पाएगी?
नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति का प्रश्न, आज सर्वाधिक
विचारणीय प्रश्न है, इससे मुख मोड़ना आत्मघाती होगा.
आचार विचार में यह परिवर्तन,
सैद्धांतिक शब्द विन्यास के कारण है
अथवा अर्थदुर्बोध के कारण? बिना इस मर्म भेदन के,
स्वतंत्रता का लक्ष्य, इसके उद्देश्य की पूर्ति संभव है क्या?
अथवा आज आवश्यकता उन मूलभूत सिद्धांतो के
पुनर्विश्लेषण - पुनर्व्याख्या की है. भ्रम और विभ्रम की,
यह दुरावस्था सशक्तिकरण और नारी मुक्ति आन्दोलन के
नाम पर, कहीं बन न जाये सामजिक कलह का कारण?
टूटते दांपत्य और बढ़ते तलाक पर, क्या आन्दोलन ध्यान देगा?
न जाने क्यों मन सशंकित है, कहीं बन न जाये भावी पीढ़ी ...
बलि का बकरा? अथवा खड़ा न हो जाये , प्रतिक्रियावाद का खतरा?
क्योकि जिस अस्तित्ववादी विचारधारा के पीछे यह आन्दोलन भाग रहा,
वह हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे विवाह संस्कार को नकार रहा.
नहीं होंगे विवाह भावी पीढ़ी कहाँ से आएगी?
बिन विवाह सामाजिक रिश्ते क्या टिक पायेंगे?
और बिन रिश्ते हम कहाँ जायेंगे?
हम या तो मानव से च्युत होकर पशु कहलायेंगे,
अथवा इस धरा को मानव विहीन बनायेंगे.
इस प्रश्न का जवाब नहीं है इस विचारधारा के पुरोधा
सिमोन, सार्त्र, हैडगर और किर्केगर्द के भी पास,
इस समस्या समाधान हेतु कौन सा उपचार श्रेयष्कर होगा?
श्रीमान! क्या आप भी कुछ सुझायेंगे? और यदि आज चुप रहे,
तो निश्चित जानिये, इस समस्या को और जटिल ही बनायेंगे..
यदि चुप हो जाय तो उसका मनुहार होना चाहिए ;
स्तुत्य है, इस व्यथा निवारण का यह पुरुष प्रयास .
सम्प्रेषण और प्रेक्षण की यह कोपविद्या, नारी के लिए है,
सुगम और सरल; साथ ही लाता है मनुहार का एक अवसर.
प्रत्यक्षतः यह दृश्य भी है और श्रव्य भी.
सहयोगी रूप में, दया, ममता, करुना के भाव;
इस सम्प्रेषण को बनाते है, - और भी सबल, प्रबल.
परन्तु एक चुप हो चुके पुरुष मन को,
मानाने और गुदगुदाने का, समझने और समझाने का
नारी प्रयास अर्थहीन है? औचित्यहीन है? और क्यों?
सामंजस्य और भावसंतुलन के स्थान पर उसे पाषाण पुरुष
की संज्ञा देना; आखिर है क्या? क्रूरता या कायरता?
कौन करेगा निर्णय? किसने देखा है - पाषाण पुरुष की
बेजान चुप्पी में, उसके गहन गाम्भीर्य शान्ति में;
वल्लियों उठ रहे कलोल और कोलाहल को?
शान्ति सागर में हिलोरें मार रहे ज्वार - भाटा को?
क्या यह अवमूल्यन नहीं,चेतना का, बौद्धिकता का?
चिंतन की वेदना का? संवेदना की स्वतन्त्रता का?
नारीमुक्ति विमर्श की धारा, उसके सशक्तिकरण की विचारधारा
समय और प्रस्थितिनुसार संवेग और स्वरुप धारण करे,
यह तो समझ में आता है, किंचित भी मतभेद नहीं उससे;
यथोचित उत्साह भरा समर्थन है उसे, वे तो दूसरे हैं
जो इसका राजनितिक विरोघ अपनी क्षुद्र लिप्सा के लिए
करते रहें है, आज भी कर रहे हैं, छोडिये उनकी बात...
प्रश्न यह है कि स्वतन्त्रता के नाम पर अपने तन-बदन को,
बाजारू चीज बना देना, आखिर है क्या? स्वतन्त्रता या स्वच्छंदता?
साथ ही नारी स्वातंत्र्य के नाम पर, नारीत्व और स्त्रीत्व से
मुक्ति कि बात, कहीं से भी नहीं आती समझ में,
यह मानवजाति का विलोपन है या पशुता का उन्नयन?
नारी को प्रकृति प्रदत्त अधिकार, सृजन है; विनाश नहीं.
मानवजाति का विनाश तो नारीजगत का अपमान है.
प्रकृति और प्रवृति से विद्रोह है, यदि नारी प्रकृति प्रदत्त
और संसकृति प्रदत्त अधिकारों कि सुरक्षा नहीं कर पायी,
तो संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा क्या रक्षा कर पाएगी?
नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति का प्रश्न, आज सर्वाधिक
विचारणीय प्रश्न है, इससे मुख मोड़ना आत्मघाती होगा.
आचार विचार में यह परिवर्तन,
सैद्धांतिक शब्द विन्यास के कारण है
अथवा अर्थदुर्बोध के कारण? बिना इस मर्म भेदन के,
स्वतंत्रता का लक्ष्य, इसके उद्देश्य की पूर्ति संभव है क्या?
अथवा आज आवश्यकता उन मूलभूत सिद्धांतो के
पुनर्विश्लेषण - पुनर्व्याख्या की है. भ्रम और विभ्रम की,
यह दुरावस्था सशक्तिकरण और नारी मुक्ति आन्दोलन के
नाम पर, कहीं बन न जाये सामजिक कलह का कारण?
टूटते दांपत्य और बढ़ते तलाक पर, क्या आन्दोलन ध्यान देगा?
न जाने क्यों मन सशंकित है, कहीं बन न जाये भावी पीढ़ी ...
बलि का बकरा? अथवा खड़ा न हो जाये , प्रतिक्रियावाद का खतरा?
क्योकि जिस अस्तित्ववादी विचारधारा के पीछे यह आन्दोलन भाग रहा,
वह हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे विवाह संस्कार को नकार रहा.
नहीं होंगे विवाह भावी पीढ़ी कहाँ से आएगी?
बिन विवाह सामाजिक रिश्ते क्या टिक पायेंगे?
और बिन रिश्ते हम कहाँ जायेंगे?
हम या तो मानव से च्युत होकर पशु कहलायेंगे,
अथवा इस धरा को मानव विहीन बनायेंगे.
इस प्रश्न का जवाब नहीं है इस विचारधारा के पुरोधा
सिमोन, सार्त्र, हैडगर और किर्केगर्द के भी पास,
इस समस्या समाधान हेतु कौन सा उपचार श्रेयष्कर होगा?
श्रीमान! क्या आप भी कुछ सुझायेंगे? और यदि आज चुप रहे,
तो निश्चित जानिये, इस समस्या को और जटिल ही बनायेंगे..
Saturday, March 6, 2010
मानव की नई सभ्यता ?
हरे पत्तों और मुलायम घास की खोज में ,
अपनी ही धुन में अलमस्त बकरी ;
निकल गयी थी, दूर तक जंगल में.
तभी कुछ आहट पाकर जब शिर उठाया,
तो सामने भेडिए को खडा पाया.
सकपकाई घबराई बकरी मौत को सन्निकट पाकर,
वात्सल्य के नाम पर सदा की भांति मिमियाई ..... ;
युवराज! मेमने भूखे होंगे, हमें तनिक समय चाहिए,
उन्हें भर पेट निहारने का, दुलार्ने का, मातृत्व लुटाने का.
फिर लौट आउंगी, आपकी छुधातृप्ति के लिए, सच कहती हूँ.
भेडिए ने विजेता की तरह आँखों को नचाया,
मूंछों को घुमाया, दो-चार बूंद लार टपकाया और
अभयदान दे दिया बकरी को, जाओ ऐश करो !
मेरे पुरखे बुद्धू थे जो बकरी को ग्रास बनाते थे,
मैंने बकरी खाना छोड़ दिया और तुझे अभयदान दिया.
जाओ दीर्घाय हो ! फूलो - फलो !! गांधारी की तरह
शत - शत बलशाली पुत्रों की माता बनो.
बकरी हैरान थी ......
इस अद्भुत परिवर्तन को देखकर परेशान थी,
भावातिरेक में बोल पड़ी - आप महान है !
आप तो संत हैं - युवराज ! संत हैं, महासंत हैं !!
जय हो ! जय हो !! जंगल ने आजादी के
बासठसाल बाद गांधी - दर्शन अपनाया है;
अब तो नाचने - गाने - मुस्कराने का
मंगल अवसर पहली बार जंगल में आया है.
अरे बुद्धू ! .............
गांधीवाद को तो उनके अनुयाइयों ने ही नहीं अपनाया,
और गांधीगिरी मुन्ना भाई को ही मुबारक हो ....
हम भी प्रगतिशील है - दिल्ली नोयडा घूमकर आये है,
इसलिए हमने गौतम, महाबीर और गांधी का नहीं;
निठारी के सिद्धांत को अपनाया है, और इसके लिए;
पंढेर और कोली को अपना आदर्श बनाया है.
अरे महामूर्ख !!
अब भी नहीं समझी, तू जिसे दूध पिलाना चाहती है;
जिसपर मातृत्व और ममत्व लुटाना चाहती है, वह तो
न जाने कब से.... मेरे गहरे उदर में समाया है.
माँ के गोश्त से स्वादिष्ट गोश्त बच्चे का होता है, यह बात
जंगली जानवर को मानव की नई सभ्यता ने सिखाया है.
कुछ क्षण रुक कर भेड़िया पुन: बोला .....
मत कहो मुझे युवराज और मत कहो मुझे संत.
ये विशेषण हैं इंसानों के लिए, नहीं है उसकी बुद्धि का अंत.
वे मानव हैं - मानवता छोड़ सकते हैं, वादे तोड़ सकते हैं.
स्वधर्म - राजधर्म भूल सकते हैं, दोस्ती तोड़ सकते हैं,
कभी देव, कभी दानव, तो कभी संत-महंथ बन सकते हैं.
हम तो जानवर हैं, पशु हैं, कैसे छोड़ दे - पाशविकता?
फिर भी उनसे अच्छे हैं, जंगली और हिंसक होते हुए भी,
वादे निभाते हैं, पेट भरने के बाद, नहीं करते दूसरा शिकार.
बचा खुचा शिकार औरों के लिए छोड़ जातें हैं. परन्तु देखो
यह इंसान कितना अजीब है, जूठन भी फ्रिज में रखता है,
वह केवल पेट नहीं, फ्रिज और गोदाम भरता है.
कहीं कोई भूखा मरता है तो कहीं अन्न सड़ता है.
सच कहूँ तो मैं भी पहले ऐसा नहीं था ......
मुझे मक्कार तो मानव की नई सभ्यता ने बनाया है.
अपनी ही धुन में अलमस्त बकरी ;
निकल गयी थी, दूर तक जंगल में.
तभी कुछ आहट पाकर जब शिर उठाया,
तो सामने भेडिए को खडा पाया.
सकपकाई घबराई बकरी मौत को सन्निकट पाकर,
वात्सल्य के नाम पर सदा की भांति मिमियाई ..... ;
युवराज! मेमने भूखे होंगे, हमें तनिक समय चाहिए,
उन्हें भर पेट निहारने का, दुलार्ने का, मातृत्व लुटाने का.
फिर लौट आउंगी, आपकी छुधातृप्ति के लिए, सच कहती हूँ.
भेडिए ने विजेता की तरह आँखों को नचाया,
मूंछों को घुमाया, दो-चार बूंद लार टपकाया और
अभयदान दे दिया बकरी को, जाओ ऐश करो !
मेरे पुरखे बुद्धू थे जो बकरी को ग्रास बनाते थे,
मैंने बकरी खाना छोड़ दिया और तुझे अभयदान दिया.
जाओ दीर्घाय हो ! फूलो - फलो !! गांधारी की तरह
शत - शत बलशाली पुत्रों की माता बनो.
बकरी हैरान थी ......
इस अद्भुत परिवर्तन को देखकर परेशान थी,
भावातिरेक में बोल पड़ी - आप महान है !
आप तो संत हैं - युवराज ! संत हैं, महासंत हैं !!
जय हो ! जय हो !! जंगल ने आजादी के
बासठसाल बाद गांधी - दर्शन अपनाया है;
अब तो नाचने - गाने - मुस्कराने का
मंगल अवसर पहली बार जंगल में आया है.
अरे बुद्धू ! .............
गांधीवाद को तो उनके अनुयाइयों ने ही नहीं अपनाया,
और गांधीगिरी मुन्ना भाई को ही मुबारक हो ....
हम भी प्रगतिशील है - दिल्ली नोयडा घूमकर आये है,
इसलिए हमने गौतम, महाबीर और गांधी का नहीं;
निठारी के सिद्धांत को अपनाया है, और इसके लिए;
पंढेर और कोली को अपना आदर्श बनाया है.
अरे महामूर्ख !!
अब भी नहीं समझी, तू जिसे दूध पिलाना चाहती है;
जिसपर मातृत्व और ममत्व लुटाना चाहती है, वह तो
न जाने कब से.... मेरे गहरे उदर में समाया है.
माँ के गोश्त से स्वादिष्ट गोश्त बच्चे का होता है, यह बात
जंगली जानवर को मानव की नई सभ्यता ने सिखाया है.
कुछ क्षण रुक कर भेड़िया पुन: बोला .....
मत कहो मुझे युवराज और मत कहो मुझे संत.
ये विशेषण हैं इंसानों के लिए, नहीं है उसकी बुद्धि का अंत.
वे मानव हैं - मानवता छोड़ सकते हैं, वादे तोड़ सकते हैं.
स्वधर्म - राजधर्म भूल सकते हैं, दोस्ती तोड़ सकते हैं,
कभी देव, कभी दानव, तो कभी संत-महंथ बन सकते हैं.
हम तो जानवर हैं, पशु हैं, कैसे छोड़ दे - पाशविकता?
फिर भी उनसे अच्छे हैं, जंगली और हिंसक होते हुए भी,
वादे निभाते हैं, पेट भरने के बाद, नहीं करते दूसरा शिकार.
बचा खुचा शिकार औरों के लिए छोड़ जातें हैं. परन्तु देखो
यह इंसान कितना अजीब है, जूठन भी फ्रिज में रखता है,
वह केवल पेट नहीं, फ्रिज और गोदाम भरता है.
कहीं कोई भूखा मरता है तो कहीं अन्न सड़ता है.
सच कहूँ तो मैं भी पहले ऐसा नहीं था ......
मुझे मक्कार तो मानव की नई सभ्यता ने बनाया है.
हमारी संस्कृति इतनी उपेक्षित क्यों हैं?
भारतीय संस्कृति के ध्वज वाहक मित्रो,
विश्वशांति के प्रेरक,प्रकृति के कुशल सहचर,
विश्ववन्धुत्व के संवाहक,मुझ जैसे विप्र के
दर्द को सुनो, कुछ प्रश्न हैं, उनपर गुनों.
हमें कष्ट है की चिंतन के क्षेत्र में इतने,
समृद्धिशाली होते हुए भी,पश्चिमोन्मुख क्यों है?
शून्य और दाशमिक प्रणाली को भारत की देन,
तो अब प्रायः सबने स्वीकार ली है, परन्तु;
क्या आप जानते हैं कि जिस इलेक्ट्रानिक्स और
क्म्पुत्रोनिक्स की आज धूम मची है, जिसका आधार,
पाश्चात्य जगत 'ओम्स ला' को समझता है, वह
हमारे ही भागीरथ सूत्र का पत्वार्तित रूप है?
इन्द्र - वृत्तासुर की लड़ाई को मात्र कथा - कहानी
समझनेवाले, इसके वैज्ञानिक पक्ष से अपरिचित क्यों हैं?
यह तो विशुद्ध रूप से ओजोन परत की समस्या
और उसका सम्यक निदान समाधान है.
आइन्स्टीन और हॉकिंस की देन समझी
जानेवाली 'ब्लैकहोल थियरी' का मूल,
ऋग्वेदीय 'हिरण्यगर्भ सिद्धांत' है.
प्रकाशमिति कहती है - ब्लैकहोल से,
असंभव है - परावर्तन. हाकिंस तो
चुप हो गए, इस सिद्धांत को उलटकर कि,
ब्लैकहोल से भी होता है - परावर्तन.
परन्तु किस रंग की ? इस प्रश्न पर,
वे आज भी मौन हैं,आगे जानने को बेचैन हैं.
उनकी तीक्ष्ण बुद्धि को इस बात का आभास
है कि, इसका उत्तर भारत के ही पास है.
अत्यंत रूग्नावास्था, बीमारी की पराकाष्ठा में भी
उनका भारत आगमन, इसी खोज का
एक प्रयास था शायद, परन्तु न जाने क्योँ ?
हम भारतवासी उससमय आगे बढ़ नहीं पाये, उनकी
क्यों जिज्ञासाओं का शमन कर नहीं पाये ?
यदि ऐसा हुआ होता; हमें वैज्ञानिक अभिव्यक्ति का
एक सशक्त माध्यम मिला होता,और भारतीय-दर्शन का,
परचम पाश्चात्य जगत में लहराया होता ?
यह सत्य है कि इसका उत्तर भारत वर्ष के ही पास है.
यह भारतीय विद्या ही है जो यह उदघोष करती है.
कि ब्लैकहोल का प्रारंभिक रंग काला, मध्य काल में
यह लाल, और अन्तकाल में सुवर्ण है. परन्तु
आज हम अपनी ही विद्या से अनजान क्यों हैं?
संस्कृति के तीन सर्वश्रेष्ठ उपमान जिन्हें हम
ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में जानते पहचानते हैं;
उनकी भी परीक्षा लेने वाला कौन है ?
हम सब महर्षि भृगु के वंशज, अनुसुइया के संतान,
इस तथ्य से अबतक अनजान क्यों हैं ?
हम भारतीय कापुरुष तो रहे नहीं कभी, अब
संस्कृति सागर में गोता लगाने से भयभीत क्यों हैं ?
और अमूल्य रत्नगर्भा हमारी संस्कृति
आज इतनी उपेक्षित क्यों हैं? क्यों हैं?
विश्वशांति के प्रेरक,प्रकृति के कुशल सहचर,
विश्ववन्धुत्व के संवाहक,मुझ जैसे विप्र के
दर्द को सुनो, कुछ प्रश्न हैं, उनपर गुनों.
हमें कष्ट है की चिंतन के क्षेत्र में इतने,
समृद्धिशाली होते हुए भी,पश्चिमोन्मुख क्यों है?
शून्य और दाशमिक प्रणाली को भारत की देन,
तो अब प्रायः सबने स्वीकार ली है, परन्तु;
क्या आप जानते हैं कि जिस इलेक्ट्रानिक्स और
क्म्पुत्रोनिक्स की आज धूम मची है, जिसका आधार,
पाश्चात्य जगत 'ओम्स ला' को समझता है, वह
हमारे ही भागीरथ सूत्र का पत्वार्तित रूप है?
इन्द्र - वृत्तासुर की लड़ाई को मात्र कथा - कहानी
समझनेवाले, इसके वैज्ञानिक पक्ष से अपरिचित क्यों हैं?
यह तो विशुद्ध रूप से ओजोन परत की समस्या
और उसका सम्यक निदान समाधान है.
आइन्स्टीन और हॉकिंस की देन समझी
जानेवाली 'ब्लैकहोल थियरी' का मूल,
ऋग्वेदीय 'हिरण्यगर्भ सिद्धांत' है.
प्रकाशमिति कहती है - ब्लैकहोल से,
असंभव है - परावर्तन. हाकिंस तो
चुप हो गए, इस सिद्धांत को उलटकर कि,
ब्लैकहोल से भी होता है - परावर्तन.
परन्तु किस रंग की ? इस प्रश्न पर,
वे आज भी मौन हैं,आगे जानने को बेचैन हैं.
उनकी तीक्ष्ण बुद्धि को इस बात का आभास
है कि, इसका उत्तर भारत के ही पास है.
अत्यंत रूग्नावास्था, बीमारी की पराकाष्ठा में भी
उनका भारत आगमन, इसी खोज का
एक प्रयास था शायद, परन्तु न जाने क्योँ ?
हम भारतवासी उससमय आगे बढ़ नहीं पाये, उनकी
क्यों जिज्ञासाओं का शमन कर नहीं पाये ?
यदि ऐसा हुआ होता; हमें वैज्ञानिक अभिव्यक्ति का
एक सशक्त माध्यम मिला होता,और भारतीय-दर्शन का,
परचम पाश्चात्य जगत में लहराया होता ?
यह सत्य है कि इसका उत्तर भारत वर्ष के ही पास है.
यह भारतीय विद्या ही है जो यह उदघोष करती है.
कि ब्लैकहोल का प्रारंभिक रंग काला, मध्य काल में
यह लाल, और अन्तकाल में सुवर्ण है. परन्तु
आज हम अपनी ही विद्या से अनजान क्यों हैं?
संस्कृति के तीन सर्वश्रेष्ठ उपमान जिन्हें हम
ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में जानते पहचानते हैं;
उनकी भी परीक्षा लेने वाला कौन है ?
हम सब महर्षि भृगु के वंशज, अनुसुइया के संतान,
इस तथ्य से अबतक अनजान क्यों हैं ?
हम भारतीय कापुरुष तो रहे नहीं कभी, अब
संस्कृति सागर में गोता लगाने से भयभीत क्यों हैं ?
और अमूल्य रत्नगर्भा हमारी संस्कृति
आज इतनी उपेक्षित क्यों हैं? क्यों हैं?
Tuesday, March 2, 2010
मेरा परिचय
परिचय क्या पूछते हो?
दो कदम साथ चलकर के देखो जरा,
मान जाओगे खुद,जान जाओगे खुद,
एक चिन्तक हूँ मै,काम चिंतन मेरा.
चिन्तक कभी सोता नहीं,
उसकी चिति स्वयं संवेदी होती है,
चिंतन प्रक्रिया स्वप्न में भी विमर्श करती है.
पथ चलते- चलते अपना उत्कर्ष करती है.
मौन में भी यह चिंतन धारा सतत प्रदीप्त है,
यह मौन चिन्तक का हो,या संस्कृति का;
अथवा यह हो ब्लैक होल और प्रकृति का.
यही मौन सृजन का पूर्वार्द्ध है;बाकी उत्तरार्द्ध है.
पूर्वार्ध का चिन्तक उत्तरार्द्ध का कवि है;
कवि की वाणी मौन रह नहीं सकती;
मजबूर है वह; चेतना उसकी मर नहीं सकती.
लेखनी इस पीडा को देर तक सह नहीं सकती.
संवेदना विचार श्रृंखला को; विचार शब्दविन्यास को,
और शब्द विन्यास - अर्थ, भावार्थ, निहितार्थ को
जन्म देते है.ये शब्दमय काव्य, रंगमय चित्र,
आकरमय घट, सतरंगी पट; सभी मौन का प्रस्फुटन है;
उसी मृत्तिका और तंतु का विवर्त है.
संवेदना के इस दर्द को; सृजन के इस मर्म को,
क्या कभी समझेगा यह जमाना ?
ये हृदयहीन लोग कवि की कराह पर,
दिल की करुण आह पर, वाह! वाह!! करते है.
फिर भी हौसला तो देखो; अंडे पड़े या टमाटर,
ये चिन्तक अपनी बात कहने से कब डरते है?
दो कदम साथ चलकर के देखो जरा,
मान जाओगे खुद,जान जाओगे खुद,
एक चिन्तक हूँ मै,काम चिंतन मेरा.
चिन्तक कभी सोता नहीं,
उसकी चिति स्वयं संवेदी होती है,
चिंतन प्रक्रिया स्वप्न में भी विमर्श करती है.
पथ चलते- चलते अपना उत्कर्ष करती है.
मौन में भी यह चिंतन धारा सतत प्रदीप्त है,
यह मौन चिन्तक का हो,या संस्कृति का;
अथवा यह हो ब्लैक होल और प्रकृति का.
यही मौन सृजन का पूर्वार्द्ध है;बाकी उत्तरार्द्ध है.
पूर्वार्ध का चिन्तक उत्तरार्द्ध का कवि है;
कवि की वाणी मौन रह नहीं सकती;
मजबूर है वह; चेतना उसकी मर नहीं सकती.
लेखनी इस पीडा को देर तक सह नहीं सकती.
संवेदना विचार श्रृंखला को; विचार शब्दविन्यास को,
और शब्द विन्यास - अर्थ, भावार्थ, निहितार्थ को
जन्म देते है.ये शब्दमय काव्य, रंगमय चित्र,
आकरमय घट, सतरंगी पट; सभी मौन का प्रस्फुटन है;
उसी मृत्तिका और तंतु का विवर्त है.
संवेदना के इस दर्द को; सृजन के इस मर्म को,
क्या कभी समझेगा यह जमाना ?
ये हृदयहीन लोग कवि की कराह पर,
दिल की करुण आह पर, वाह! वाह!! करते है.
फिर भी हौसला तो देखो; अंडे पड़े या टमाटर,
ये चिन्तक अपनी बात कहने से कब डरते है?
इस बात की हमें बड़ी टीस है
हम बातें तो बड़ी-बड़ी,धर्म और दर्शन की करते हैं;
"ईशावास्य इदं सर्वं" का उद्घोष और जगत में,
"खुदा की नूर" देखने की वकालत खूब करते हैं.
परन्तु जन्मे-अजन्मे बच्चे में,वृद्धों और मजबूरों में,
अपंग - अपाहिजों में, उसी ईश्वरत्व और
'खुदा के नूर' को देख क्यों नहीं पाते ?
हम इतनी सी बात समझ क्यों नहीं पाते कि
कृति के बिना आकर्षक शब्दों का मूल्य कुछ भी नहीं.
शब्दों का मूल्य,उसके अर्थ और आचरण में सन्निहित है.
आचरण की सभ्यता के ये तथाकथित पुजारी,
ईश्वरत्व के संवाहक होने का दावा तो बढ़-चढ़ कर
करते हैं; परन्तु वह दीखता क्यों नहीं आचरण में?
और पग-पग पर फरिश्तों का गुणवान करने वाले,
आज शैतान के तलवे चाटते नजर क्यों आरहें है?
ये महानुभाव पुष्प-दीप तो सरस्वती चित्र पर
चढाते हैं, परन्तु हंस के नीर-क्षीर विवेक की जगह,
'लक्ष्मी-वाहन' के, आदर्श को क्यों अपनाते हैं?
और मजा यह कि वक्त आने पर साफ़ मुकर जातें हैं.
इनकी नैतिकता धन में, आदर्श धन में, ईमान धन में,
और राष्ट्रीयता, मानवता, सब धन में, बह जाती है.
अरे ! ये तो धन-पशु हैं, और कुछ तो उनसे भी बीस हैं;
पूरे नर-पिशाच हैं - ये अपने भाई-बन्धु, राष्ट्रीयता तक,
नहीं पहचानते, इस बात की हमें बड़ी टीस है.
"ईशावास्य इदं सर्वं" का उद्घोष और जगत में,
"खुदा की नूर" देखने की वकालत खूब करते हैं.
परन्तु जन्मे-अजन्मे बच्चे में,वृद्धों और मजबूरों में,
अपंग - अपाहिजों में, उसी ईश्वरत्व और
'खुदा के नूर' को देख क्यों नहीं पाते ?
हम इतनी सी बात समझ क्यों नहीं पाते कि
कृति के बिना आकर्षक शब्दों का मूल्य कुछ भी नहीं.
शब्दों का मूल्य,उसके अर्थ और आचरण में सन्निहित है.
आचरण की सभ्यता के ये तथाकथित पुजारी,
ईश्वरत्व के संवाहक होने का दावा तो बढ़-चढ़ कर
करते हैं; परन्तु वह दीखता क्यों नहीं आचरण में?
और पग-पग पर फरिश्तों का गुणवान करने वाले,
आज शैतान के तलवे चाटते नजर क्यों आरहें है?
ये महानुभाव पुष्प-दीप तो सरस्वती चित्र पर
चढाते हैं, परन्तु हंस के नीर-क्षीर विवेक की जगह,
'लक्ष्मी-वाहन' के, आदर्श को क्यों अपनाते हैं?
और मजा यह कि वक्त आने पर साफ़ मुकर जातें हैं.
इनकी नैतिकता धन में, आदर्श धन में, ईमान धन में,
और राष्ट्रीयता, मानवता, सब धन में, बह जाती है.
अरे ! ये तो धन-पशु हैं, और कुछ तो उनसे भी बीस हैं;
पूरे नर-पिशाच हैं - ये अपने भाई-बन्धु, राष्ट्रीयता तक,
नहीं पहचानते, इस बात की हमें बड़ी टीस है.
Monday, March 1, 2010
होली का अर्थ और निहितार्थ
होली का अर्थ और निहितार्थ है - हो ..ली . अर्थात अच्छा बुरा अब तक जो भी हुआ वह हो चुका.. वह बीत गया. और जो बीत गयी वह बात गयी. नफरत की होली को जलाओ, स्नेह और अनुराग के विविध रंगों के गुलाल लगाओ. यही होली है. यही सूत्र है, परन्तु यह सूत्र देखने में जितना छोटा और सरल लगता है वास्तव में उतना सरल है नहीं. व्यावहारिक जीवन में यह बहुत ही कठिन है, टेढा है; लेकिन पुरुषार्थ भी तो यही है. सरल कार्य तो सभी करते हैं, कभी उपयोगी कार्य भी तो करना चाहिए. और क्या इस अर्थ को भी और व्याख्या की अवश्यकता है? यदि उपयोग, उपादेयता, महत्व और मानवीय मूल्य की दृष्टि से देखा जाय तो यही इस पर्व की सार्थकता है. आइये कोशिश तो करें, मै भी अभी यह प्रयास कर ही रहा हूँ....दो-चार पग साथ-साथ तो चलें .....धीरे-धीरे आदत बन जायेगी . होली इसी बहाने बहुत यादगार बनजाएगी. शुभ होली, सार्थक होली और भावनात्मक होली की ढेर सारी शुभ कामनाये.........
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