Monday, September 20, 2010
Wednesday, September 15, 2010
अक्षर हैं हम सब - 'हिदी वर्णमाला' के
एकल रूप में हम सब भारतवासी
एक-एक अक्षर हैं - 'हिदी वर्णमाला' के,
जब जुड़ते हैं सब एक - एक कर
नियम से, स्नेह से, तब बन जाते हैं -
सुन्दर, प्रेरक, सार्थक - 'सदवाक्य'.
बन जाते हैं - 'गीत' और 'गान',
रच जाते हैं - कहानी और उपन्यास.
सृजते हैं - साहित्य और महाकाव्य.
जिसमे निभाते हैं साथ - 'विराम चिह्न',
और मात्राएँ धुन बन के, साज बन के;
ध्वनि, संगीत और ...आवाज बन के.
उनका पथ करते है - 'प्रशस्त',
संगीत के सप्तस्वर, पाणिनि के
नियम और माहेश्वर के प्रसिद्द सूत्र.
जब इन अक्षरों से बनते हैं -
शब्द विन्यास, गद्यांश और पद्यांश;
तब खिल उठती है- हमारी सभ्यता,
हमारी संस्कृति, हमारी प्रकृति,
हमारे ज्ञान-विज्ञानं, धर्म-सत्कर्म.
परन्तु यही अक्षर जब भटकते हैं,
आपस में एक दूजे की राह रोकते हैं;
लड़ते-भिड़ते हैं, शब्द विन्यास के
नियमों को तोड़ते हैं, मरोड़ते हैं -
तब साहित्य और समाज दोनों,
हो जाते हैं -' कुंठित' और 'विकृत'.
श्रेष्ठ उपन्यास और श्रेष्ठ काव्य का
सृजन - प्रणयन रुक जायेगा.
साहित्य के नाम पर विकृत साहित्य
परोसा जायेगा और भावी पीढ़ी को
भटकाने का सारा दोष;
हम पर-आप पर-ही मढ़ा जायेगा.
इसलिए आज आवश्यकता है -
अक्षर - अक्षर से भिड़े नहीं,
श्रेष्ठता-वरिष्ठता की होड़ में पड़े नहीं....
अन्यथा श्रेष्ठ कविता, श्रेष्ठ कहानी,
श्रेष्ठ उपन्यास और श्रेष्ठ काव्य का
सृजन - प्रणयन रुक जाएगा.
साहित्य के नाम पर विकृत साहित्य
परोसा जायेगा और भावी पीढ़ी को
भटकने - भटकाने का सारा दोष
हम पर आप पर ही मढ़ा जाएगा.
एक-एक अक्षर हैं - 'हिदी वर्णमाला' के,
जब जुड़ते हैं सब एक - एक कर
नियम से, स्नेह से, तब बन जाते हैं -
सुन्दर, प्रेरक, सार्थक - 'सदवाक्य'.
बन जाते हैं - 'गीत' और 'गान',
रच जाते हैं - कहानी और उपन्यास.
सृजते हैं - साहित्य और महाकाव्य.
जिसमे निभाते हैं साथ - 'विराम चिह्न',
और मात्राएँ धुन बन के, साज बन के;
ध्वनि, संगीत और ...आवाज बन के.
उनका पथ करते है - 'प्रशस्त',
संगीत के सप्तस्वर, पाणिनि के
नियम और माहेश्वर के प्रसिद्द सूत्र.
जब इन अक्षरों से बनते हैं -
शब्द विन्यास, गद्यांश और पद्यांश;
तब खिल उठती है- हमारी सभ्यता,
हमारी संस्कृति, हमारी प्रकृति,
हमारे ज्ञान-विज्ञानं, धर्म-सत्कर्म.
परन्तु यही अक्षर जब भटकते हैं,
आपस में एक दूजे की राह रोकते हैं;
लड़ते-भिड़ते हैं, शब्द विन्यास के
नियमों को तोड़ते हैं, मरोड़ते हैं -
तब साहित्य और समाज दोनों,
हो जाते हैं -' कुंठित' और 'विकृत'.
श्रेष्ठ उपन्यास और श्रेष्ठ काव्य का
सृजन - प्रणयन रुक जायेगा.
साहित्य के नाम पर विकृत साहित्य
परोसा जायेगा और भावी पीढ़ी को
भटकाने का सारा दोष;
हम पर-आप पर-ही मढ़ा जायेगा.
इसलिए आज आवश्यकता है -
अक्षर - अक्षर से भिड़े नहीं,
श्रेष्ठता-वरिष्ठता की होड़ में पड़े नहीं....
अन्यथा श्रेष्ठ कविता, श्रेष्ठ कहानी,
श्रेष्ठ उपन्यास और श्रेष्ठ काव्य का
सृजन - प्रणयन रुक जाएगा.
साहित्य के नाम पर विकृत साहित्य
परोसा जायेगा और भावी पीढ़ी को
भटकने - भटकाने का सारा दोष
हम पर आप पर ही मढ़ा जाएगा.
Wednesday, September 8, 2010
कब आएगा श्वेत सवेरा.
कहते - पूछते तकते नहीं थे
'देखो छाया तिमिर धनेरा
कब आएगा, कब आएगा?
प्रातः उजला - श्वेत सवेरा.
कहा जो उनसे चौक गए वे
चलते - चलते अटक गए वे.
'देख रहे अंधेर का पत जो'
वह मन का घोर कपट है.
मन के इस कपट को
धूर्तता को, छल को
यदि गगन से हमें हटाना है,
लो मिट्टी और करो संकल्प:
अब इसको हमें जलाना है.
छलिया है भागेगा नहीं यह
रूप बदलकर आएगा
बन्दर सा नाच दिखायेगा
फिर से हमें फँसाएगा.
करना है यदि इसे नियंत्रित
ले डमरू और छड़ी हाथ में
नट हमको बन जाना है
अनूठा खेल दिखाना है.
मन ने बहुत नचाया हमको
अब मन को हमी नचाएंगे.
देखो आता मजा है कितना,
जब बंदरिया इसे ही बनायेंगे.
'देखो छाया तिमिर धनेरा
कब आएगा, कब आएगा?
प्रातः उजला - श्वेत सवेरा.
कहा जो उनसे चौक गए वे
चलते - चलते अटक गए वे.
'देख रहे अंधेर का पत जो'
वह मन का घोर कपट है.
मन के इस कपट को
धूर्तता को, छल को
यदि गगन से हमें हटाना है,
लो मिट्टी और करो संकल्प:
अब इसको हमें जलाना है.
छलिया है भागेगा नहीं यह
रूप बदलकर आएगा
बन्दर सा नाच दिखायेगा
फिर से हमें फँसाएगा.
करना है यदि इसे नियंत्रित
ले डमरू और छड़ी हाथ में
नट हमको बन जाना है
अनूठा खेल दिखाना है.
मन ने बहुत नचाया हमको
अब मन को हमी नचाएंगे.
देखो आता मजा है कितना,
जब बंदरिया इसे ही बनायेंगे.
Sunday, September 5, 2010
शिक्षक दिवस: अपनो से अपनी बात

५ सितम्बर. आज विश्वप्रसिद्द भारतीय दार्शनिक, महान शिक्षक, गंभीर विचारक और हमारे देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुके डॉ. राधाकृष्णन की जयंती है, इस दिवस को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है. हमें डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा और चिंतन का एक आधार, एक दृष्टिकोण प्रदान किया है. आज आवश्यकता है उसे समझने की, वे लिखते हैं - "मनुष्य का विकास खुद-ब-खुद नहीं होता. ऐसी कोई चीज नहीं जोवंशानुक्रम और प्राकृतिक चुनाव के नियमों के अनुसार स्वतः घटित होती हो. मनुष्य का विकास तभी होता है जब वह इसके लिए चौकस होकर कोशिश करता है. जैसाकि वह है, मनुष्य एक अपूर्ण प्राणी है. उसे अपना पुनः-पुनः संस्कार करना है और पुनः-पुनः विकसित होना है; उसे सार्वभौम जीवन की चेतना-धारा को अपने भीतर से प्रवाहित होने देना है. जिन लोगों ने अपना विकास कर लिया है, जिन्होंने अप्नेभितर छिपी संभावनाओं को पहचान लिया है और जिन्किचेतना का पुनर्जन्म हो चुका है, ऐसे ही लोग दूसरों के लिए आदर्श तथा पथ-प्रदर्शक बनते हैं. " इस उद्देश्य की प्राप्ति, यह विकास शिक्षा द्वारा ही संभव है. आज उनकी जयंती पर सबसे अच्छी पुष्पांजलि यह होगी क़ि हम न केवल उनके दिखाए मार्ग का अनुसरण करें अपितु वर्तमान में शिक्षा और शिक्षण की समस्याओं को समझें, उसके निराकरण का प्रयास करें और इस शिक्षक दिवस को सार्थक बनाये. तो आइये प्रारंभ करते है एक विमर्श, अपनों के बीच, शिक्षकों और शिक्षार्थियों के बीच, जन मानस के बीच..
मित्रों! हमने प्रायः हमेशा ही सुना है -
शिक्षक, शिक्षा, विद्यार्थी और विद्या को
शब्दरूप में; परन्तु क्या गुना है -
इनके अर्थ को, भावार्थ को, शब्दार्थ को,
निहितार्थ को ?
शिक्षक क्या है, हाड - मांस का एक पुतला ?
या ऐसा कोई व्यक्तित्व जो कक्षा में खड़े-खड़े,
खींचता रहता है - कोई चित्र, कोई सूत्र,
काले -चिकने बोर्ड पर; रंग -विरंगे चाक से?
क्या शिक्षक
योग्यता रूपी प्रमाण-पत्रों के आधार पर,
स्वयं अपनी, अपने परिवार का पेट पालने की
सामाजिक स्वीकृति मात्र है?
जी नहीं, शिक्षक एक पद है, एक वृत्ति है ;
संपूर्ण सामाजिक दायित्व का बोध करनी वाला कृति है.
शिक्षक सांस्कृतिक बोधि और प्राकृतिक चेतना की सम्बोधि है.
शिक्षक एक माली है, कुम्भकार है, शिल्पकार और कथाकार है
जो गढ़ता है देश के भविष्य को, सभ्यता और संस्कृति को.
अरे! वह तो निर्माता है, सर्जक है, नियंता है,
प्रणेता है - सन्मार्ग का.
ऐसे शिक्षकवर्ग को, उनकी वृत्ति को,
उनकी कृति को, उनकी संस्कृति को नमन.
शिक्षा क्या है?
शिक्षा क्या है?
आजीविका प्राप्त करने का माध्यम?
या समुन्नत राष्ट्र निर्माण में भागीदारी?
रचनात्मक भूमिका, सृजनात्मक जिम्मेदारी?
परन्तु आज शिक्षक रूपी माली, कुम्भकार,
शिल्पकार और कथाकार, सभी हैरान है, परेशान है.
वे कहते हैं अपनी पीड़ा -
'सोचा था यह डाली लाएगी -
'फूल' और 'फल', फैलाएगी - 'हरियाली'.
परन्तु हाय! इस डाली से,
क्यों टपकी यह खून की लाली?
ये महानुभाव बड़े-बड़े उपाधि धारक हैं,
परन्तु क्या कहूँ इनकी गति?
कैसी हो गयी है इनकी मति?
कभी-कभी तो ये ऐसे कार्य
करने में भी नहीं शरमाते
जिसे कहने में हमें शर्म आती है.
देखो यह कैसा अनर्थ है?
क्या हमारी शिक्षा ही व्यर्थ है?
मेरे श्रम-परिश्रम में कोई खोट तो नहीं थी मेरे मित्र!
फिर इस आकर्षक घट में, मृदुल जल की बजाय छिद्र क्यों है?
और इस नवीन, प्रगतिशील कहे जाने वाले कला-कृतियों में;
संगीत के स्वरों में, ओज और माधुर्य के स्थान पर,
नग्नता और विकृति क्यों है?
कारण है सबका ही एक;
नहीं किया तूने 'शिक्षा' और 'विद्या' में भेद.
इसी विद्या के अभाव में, शिक्षा का उत्पाद
दम्भी अभियंता विकास के नाम पर देश का धन चूसता है,
डॉक्टर चिकित्सा के नाम पर अभिवावकों का खून चूसता है,
कुछ लोग संविधान की मर्यादा चूसते है.
ऐसे में हैरानी क्यों है?
समझो टहनी में लाली क्यों है?
तो मेरे भाई! 'विद्या' क्या है ?
करो विचार, अच्छी लगे तो करो स्वीकार.
विद्या है -
मानव को महामानव में रूपान्तारण की तकनीक;
मानव के अंतर की टिमटिमाती दीप को,
प्रदीप्त और प्रखर करने की अचूक रीति.
क्या आज इस बात की आवश्यकता नहीं कि शिक्षा के साथ
विद्या को भी अनिवार्य रूप में जोड़ दिया जाय?
शिक्षा ढेर सारी आय का, धनोपार्जन का साधन तो हो सकती है,
परन्तु; उसके उपयोग - सदुपयोग की कला तो 'विद्या' के ही पास है.
शिक्षा श्रब्यज्ञान है-
शिक्षा श्रब्यज्ञान है-
यह पुस्तकीय है, व्याख्यान है, अख्यान है,
सत्याभास है. यह स्व-प्रधान, काम-प्रधान,
रागी-विषयी, भोग-प्रधान है.
विद्या संपूर्ण ज्ञान,
स्वानुभूति और आत्मोपलब्धि है;
तत्व साक्षात्कार है; यह सर्वगत,
समष्टिगत,समदर्शी,
तत्वदर्शी, वीतरागी, योग-प्रधान है.
विद्या लभ्यज्ञान है - स्वानुभूति है, भूमा है,
नित्य है, सत्य है. इसलिए शिक्षा के उत्पाद को,
सुख-शांति की सर्वदा तलाश है,
जबकि 'सुख - शांति - संतोष' तो
विद्या का स्वाभाविक दास है.
मेरे मित्र! अब तो ग्रहण करो 'विद्या' को,
इस तरह खड़ा तू क्यों उदास है?
यह सतत ध्यान रहे -
"यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति",
(सर्व में ही, पूर्ण में ही सुख है, अल्प में नहीं.)
अतएव शरणागत हो सदगुरु के जो तेरे ही पास है.
अन्त में एक और प्रश्न, एक समस्या जो शिक्षार्थी और शिक्षक दोनों ही वर्ग उठाते हैं और उनका निहितार्थ भी प्रायः एक ही है - 'असंतुष्टि'. शिक्षक की शिक्षार्थी से और शिक्षार्थी की शिक्षकों से है - 'असंतुष्टि'. ऐसा ही प्रश्न प्रसिद्द विचारक एवं शिक्षाशास्त्री जे. कृष्णमूर्ति जी से भी पूछा गाया था, उन्होंने जो उत्तर दिया था वह न करवाल विचारणीय है बल्कि सामयिक भी. वे कहते हैं - "इसका स्पष्ट कारण यह है कि आपके शिक्षक अच्छी तरह पढाना नहीं जानते. इसका कोई गहरा कारण नहीं है, बस यही एक सीधा सा कारण है. आप यह जानते हैं कि जब कोई शिक्षक गणित, इतिहास अथवा अन्य कोई विषय, जिसे वह सचमुच प्रेम करता है, पढ़ाता है तब आप भी उस विषय से प्रेम करने लग जाते हैं; क्योकि प्रेम स्वयं अपनी बात कहता है. क्या आप यह नहीं जानते हैं? जब कोई गायक प्रेम से गाता है तो वह उस संगीत में अपनी समग्रता उड़ेल देता है, तब क्या आप में वही भावना नहीं पैदा होती है? तब क्या आप स्वयं ही संगीत सीखने को नहीं सोचते? परन्तु अधिकाँश शिक्षक अपने विषयों को प्यार ही नहीं करते. विषय उनके लिए बोझ बन जाते हैं; पढ़ना उनकी आदत बन जाती है, जिसके माध्यम से वह अपनी आजीविका कमाते हैं. यदि आपके शिक्षक प्यार से अपना विषय पढाते तो क्या आप जानते हैं कि क्या होता ? तब आप बड़े अद्भुत मानव बनते! तब आप न केवल अपने खेलों और पढ़ाई को ही प्रेम करते अपितु फूलों, सरिताओं, पक्षियों और वसुधा को भी प्रेम करते! तब आप के ह्रदय में सिर्फ प्रेम कि तरंगे होती और इससे सभी चीजें शीघ्रता से सीख पाते! तब आपका मन उदासीनता का माध्यम न होकर एकदम आनंदित होता." आज यह 'प्रश्न' और यह 'उत्तर' दोनों ही अपेक्षाकृत और भी चिंतन - मनन का विषय वस्तु बन गाया है. तो क्या आप तैयार है इसपर विचार-विमर्श के लिए? प्रतीक्षा करूंगा, आपके सुझाव और आलोचना का, समालोचना का.
- Dr. J. P. Tiwari
Thursday, September 2, 2010
पूछा है किसी ब्लोगर ने मुझसे
पूछा है किसी ब्लोगर ने मुझसे,
चित्र में आप दुकेले क्यों हैं?
मैंने कहा ध्यान दो भाई!
छिपा है प्रश्न में, प्रश्न का उत्तर.
हम 'दो' हैं और हमीं 'अकेले',
मिलकर दोनों बने - 'दुकेले'.
केवल 'जय' मै, वे 'प्रकाश' हैं
नाम तभी तो जय प्रकाश है.
'शिव' अधूरा 'सती' बिना जब
'शक्ति' बिना वह 'शव' है.
है 'प्रकाश' सब उनसे ही,
वरना केवल 'जय' है.
करते पुष्टि शास्त्र सब इसकी,
कहते हो जिसको तुम 'ईश्वर'
बात अधूरी क्यों करते हो?
वह तो है - 'अर्द्ध नारीश्वर'.
चित्र में आप दुकेले क्यों हैं?
मैंने कहा ध्यान दो भाई!
छिपा है प्रश्न में, प्रश्न का उत्तर.
हम 'दो' हैं और हमीं 'अकेले',
मिलकर दोनों बने - 'दुकेले'.
केवल 'जय' मै, वे 'प्रकाश' हैं
नाम तभी तो जय प्रकाश है.
'शिव' अधूरा 'सती' बिना जब
'शक्ति' बिना वह 'शव' है.
है 'प्रकाश' सब उनसे ही,
वरना केवल 'जय' है.
करते पुष्टि शास्त्र सब इसकी,
कहते हो जिसको तुम 'ईश्वर'
बात अधूरी क्यों करते हो?
वह तो है - 'अर्द्ध नारीश्वर'.
Wednesday, September 1, 2010
सुनो कहानी कलश की
यह सुंदर कलश
जो है प्रतीक उत्कृष्ट कला का
लक्ष्मी का, धन का, वैभव का,
सम्पूर्णता का, औदार्य का,
सहनशीलता का, श्रृष्टि का
ब्रह्माण्ड का. और है एक परिच -
इस कला के सृजनहार का भी.
इस कुम्भ के निर्माण में
अंतर्भूत है - एक अजब कहानी.
यह कुम्भ खेत का मिट्टी था
जिसके उपर फावड़ा चला था
जिसे विस्थापित होना पड़ा था
निज गृह से... खेत से.....
जिसे जल डाल सड़ाया गाया
जिसे पैरों तले रौंदा गाया
जिसे थापी और लबादे सेपीटा गया
जिसे चाक पर नचाया गया
जिसे तपती धूप में सुखाया गया
जिसे जलती आग में पकाया गया.
धुंआ भी न निकलने पाए बाहर
ऐसा कुछ व्यवस्था बनाया गया.
लेकिन वाह रे कलश! वाह!!
गजब का जीवट है तेरा
तुम्हारी सहनशीलता को
बार -बार सलाम है मेरा.
जब बाहर आया कुंदन सा
चमकता - दमकता आया.
फिर तो यह दुनिया की रीति है
चमकते को पुनः चमकाना
और गले लगाना....
टूटे फूटे को घर से दूर भगाना.
अब की गयी तेरी रंगाई - पुताई
गढ़े गए कल्पनाओं के कसीदे.
और तू बन गया एक नमूना
अनुपम सौन्दर्य का.एक प्रतीक
वैभव का, ठाट - बाट का.
और तू बन गया एक नमूना
अनुपम सौन्दर्य का.एक प्रतीक
वैभव का, ठाट - बाट का.
मिट्टी का यह कलश
आज पड़ गया है भारी
सोने-चांदी, हीरे-मोती पर भी.
देखने वाले देखते हैं -
तेरा वर्तमान, तेरा वैभव..
तेरी चमक - दमक...
सब चाहतें हैं तुझे पाना
अपने घरों में सजाना
कुछ धन से खरीदना चाहते हैं
कुछ मन से खरीदना चाहते हैं
कुछ छिन लेना चाहते हैं तुझे
गढ़ने वाले उस कुम्भकार से.
कुछ चुरा लेना चाहते हैं तुझे
बस एक मौक़ा मिले चाहे जहाँ से
घर से, दुकान से....,
मंदिर से, मस्जिद से.....
मंदिर से, मस्जिद से.....
सब चाहते हैं तुझे पाना,
हथियाना. परन्तु,
कितने हैं ऐसे जो चाहते हैं -
तुझ जैसा बन जाना?
हथियाना. परन्तु,
कितने हैं ऐसे जो चाहते हैं -
तुझ जैसा बन जाना?
तुझ जैसा रौंदा जाना.....,
समय के थपेड़े खाना...
धूप में सुखाया जाना,
आग में जलाया जाना.
आग में जलाया जाना.
सब की तमन्ना है
मुफ्त में छ जाना....
मुफ्त में छ जाना....
Monday, August 30, 2010
हे मानव!
क्या तू भी एक गिरगिट है?
जो क्षण क्षण रंग बदलता है.
गिरगिट
तो ठहरा क्षुद्र प्राणी
उसका यह कर्म भी है क्षम्य
क्योकि उसके लिए है यह
आत्म रक्षा का एक ढंग.
परन्तु तू
विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति,
तेरे अन्दर आयी कहाँ से यह विकृति?
अरे ओ निर्लज्ज!
तू इतना दुस्साहसी हो गया क़ि
सुधरने की बजाय तू चाहता है
इसकी सामजिक स्वीकृति.
क्या तू भी एक गिरगिट है?
जो क्षण क्षण रंग बदलता है.
गिरगिट
तो ठहरा क्षुद्र प्राणी
उसका यह कर्म भी है क्षम्य
क्योकि उसके लिए है यह
आत्म रक्षा का एक ढंग.
परन्तु तू
विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति,
तेरे अन्दर आयी कहाँ से यह विकृति?
अरे ओ निर्लज्ज!
तू इतना दुस्साहसी हो गया क़ि
सुधरने की बजाय तू चाहता है
इसकी सामजिक स्वीकृति.
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