एक गुनगुनाता हुआ शर्मिला सा सुकोमल नारीमन, यदि चुप हो जाय तो उसका मनुहार होना चाहिए. स्तुत्य है, इस व्यथा निवारण का यह पुरुष प्रयास. सम्प्रेषण, प्रेक्षण की यह कोपविद्या, नारी के लिए है, सुगम, सरल; साथ ही लाता है मनुहार का अवसर. परन्तु ....एक चुप हो चुके पुरुष मन को, मानाने और गुदगुदाने का, समझने और समझाने का नारी प्रयास क्या अर्थहीन है? औचित्यहीन है? और क्यों? सामंजस्य और भावसंतुलन के स्थान पर उसे पाषाण पुरुषकी संज्ञा; आखिर है क्या? क्रूरता या कायरता? कौन करेगा निर्णय? किसने देखा है - पाषाण पुरुष की बेजान चुप्पी में, उसके गहन गाम्भीर्य शान्ति में वल्लियों उठ रहे कलोल और कोलाहल को? शान्ति सागर में हिलोरें मार रहे ज्वार- भाटा को? क्या यह अवमूल्यन नहीं,चेतना का, बौद्धिकता का? चिंतन की वेदना का? संवेदना की स्वतन्त्रता का?
नारीमुक्ति विमर्श की धारा, उसके सशक्तिकरण की विचारधारा, समय और प्रस्थितिनुसार संवेग और स्वरुप धारण करे, यह तो समझ में आता है, किंचित भी मतभेद नहीं उससे; यथोचित उत्साहभरा समर्थन है उसे, वे तो दूसरे हैं जो इसका विरोघ अपनी क्षुद्र लिप्सा के लिए करते रहें है, आज भी कर रहे हैं, छोडिये उनकी बात... प्रश्न यह है कि स्वतन्त्रता के नाम पर अपने तन-बदन को,बाजारू चीज बना देना, आखिर है क्या? स्वतन्त्रता या स्वच्छंदता? साथ ही नारी स्वातंत्र्य के नाम पर, नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति की बात, कहीं से भी नहीं आती समझ में यह मानवजाति का विलोपन है या पशुता का उन्नयन? नारी को प्रकृति प्रदत्त अधिकार, सृजन है; विनाश नहीं. मानवजाति का विनाश तो नारीजगत का घोर-अपमान है प्रकृति और प्रवृत्ति से विद्रोह है, यदि नारी प्रकृति प्रदत्त और संस्कृति प्रदत्त अधिकारों की सुरक्षा नहीं कर पायी, तो संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा क्या रक्षा कर पाएगी?
नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति का प्रश्न, आज सर्वाधिक विचारणीय प्रश्न है, इससे मुख मोड़ना आत्मघाती होगा. आचार विचार में यह परिवर्तन, सैद्धांतिक शब्द विन्यास के कारण है अथवा अर्थदुर्बोध के कारण? बिना इस मर्म भेदन के,स्वतंत्रता का लक्ष्य, इसके उद्देश्य की पूर्ति संभव है क्या? अथवा आज आवश्यकता उन मूलभूत सिद्धांतो के पुनर्विश्लेषण - पुनर्व्याख्या की है. भ्रम और विभ्रम की,यह दुरावस्था सशक्तिकरण और नारी मुक्तिआन्दोलन के नाम पर, कहीं बन न जाये सामजिक कलह का कारण? टूटते दांपत्य, बढ़ते तलाक, विखरते संयुक्त-परिवार पर, क्या यह आन्दोलन ध्यान देगा? हस्तिनापुर के द्युतक्रीडा से उठा यह प्रश्न, अनेक मोड़ पार करता हुआ,आज इस अवस्था में भटक गया है. धन की चकाचौध में आज स्वतंत्रता का एक विकृत रूप;'नारी देह स्वतन्त्रता' के रूप में दीख रहा है. यह 'देह प्रदर्शन' और 'देह उपभोग' अब किसी दबाव या प्रभाव में आकर नहीं, यह पैसे के लोभ में नारी का स्वयं का निर्णय है. जो कार्य स्त्रियाँ, कभी दबाव या मजबूरी में करती थी, आज शौक में कर रहीं है. धन की महिमा ने 'नारी की महिमा' की क्या गति की है? कैसी क्षति की है? क्या यह आन्दोलन इसका मूल्यांकन करेग?
न जाने क्यों मन सशंकित है, कहीं बन न जाये भावी पीढ़ी ...बलि का बकरा? अथवा खड़ा न हो जाये ,प्रतिक्रियावाद का खतरा? क्योकि जिस अस्तित्ववादी विचारधारा के पीछे यह आन्दोलन है, भाग रहा, वह हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे विवाह संस्कार को नकार रहा. नहीं होंगे विवाह, भावी पीढ़ी कहाँ से आएगी? बिन विवाह, सामाजिक रिश्ते क्या टिक पायेंगे? और बिन रिश्ते हम कहाँ जायेंगे? हम या तो मानव से च्युत होकर पशु कहलायेंगे...... पशुवत जीवन बिताएंगे....अथवा इस धरा को मानवविहीन बनायेंगे. इस प्रश्न का जवाब नहीं है इस आन्दोलन के पुरोधा और प्रथम अंतर्राष्ट्रीय चेयर परसन 'सिमोन दी बाउवा के भी पास. कौन सा उपचार श्रेयष्कर होगा? श्रीमान! क्या आप भी कुछ सुझायेंगे? और यदि आज चुप रहे, तो निश्चित जानिये,इस समस्या को और जटिल ही बनायेंगे..
नारी स्वाधीनता की परिकल्पना कोई पश्चिम की बपौती नहीं. अनादि काल से बही है यहाँ - यह नारीस्वाधीनता की एक धारा. जो प्रतीक - प्रतिमानों में गुम्फित है यह, उधार की कठौती नहीं. सती का हठ, उनका यज्ञाग्नि प्रवेश नारी स्वातंत्र्य और अधिकार का प्रथम उदाहरण है. सावित्री का सत्यावान-वरण, सीता का बन गमन, मीरा, राधा का अनुरक्त अनुराग. नारी स्वाधीनता का ही है परिचायक. परन्तु इसमें कहीं भी दांपत्य से दूरी नहीं. दुराव टकराव तलाक नहीं मनुष्यता, मानवता, सामाजिकता का ह्रास नहीं. मानव समाज मानव सृष्टि को कोई खतरा नहीं, सृष्टि संरचना को पुष्ट ही करता है यह अधिकार. आज उसी अधिकार हेतु आन्दोलन क्यों? चाहिए यदि वास्तविक अधिकार, आंशिक नहीं सर्वांश तो वापस लौटना होगा. पाश्चात्य शैली नहीं, अपनी संस्कृति को अपनाना होगा, उलटना होगा इस धारा को. और धारा के उलटते ही होगा चमत्कार, न कोई शोर - शराबा !, न चीत्कार !!. धारा अब बन जाएगी - "राधा" . और "राधा" में रूपांतरण होते ही, कान्हा हो गया वश में, ....अब गोकुल..... तुम्हारी, ...मथुरा ......तुम्हारी......., द्वारिका तुम्हारी......अब सब कुछ.... तुम्हारा......., कान्हा तो है प्रेम से हारा. सर्वस्व छोड़ अब ;कुछ' के पीछे,भागना क्या? मणि को छोड़ अब तुच्छ के पीछे नाचना क्या?
संतोषप्रद और गर्व की बात यह है कि,महिला राष्ट्रपति और महिला स्पीकर, दोनों भारतीय संस्कृति की संवाहिका है, पोषिका हैं, लेकिन मूल रूप में इस प्रश्न पर नारी जगत को ही सोचना होगा. हित उनका किसमे है? कहाँ है? उन्हें चाहिए क्या? मिल क्या रहा? और नारी मुक्ति आन्दोलन धारा, सशक्तिकरण के नाम पर किधर जा रहा? हमें और भी गर्व होगा, यदि इन्हीं की भांति भारतीय संस्कृति की सम्वाहिकाएं ही संसद में बैठे; ३३% नहीं भाई, ५०% की संख्या में बैठे. परन्तु अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित और संरक्षित रखें. "अर्ध-नारीश्वर" की सत्ता में विश्वास रखने वाली भारतीय संस्कृति में, पुरुष और नारी का भेद कहाँ - "नारी पुरुष पुरुष सब नारी, सब एको पुरुष मुरारी".
Thursday, March 25, 2010
Sunday, March 21, 2010
राम कथा का 'दर्शन ', 'अध्यात्म ' और 'विज्ञानं '
विज्ञानं और दर्शन का उद्देश्य :
"सिद्धांतों की खोज" करना,
"अथातो ब्रह्म (सिद्धांत) जिज्ञासा" - वेदांत सूत्र (१.१)
राम कथा का केन्द्रीय विन्दु :
अयोध्या - (यही अयोध्या रामकथा का प्रारम्भ और समापन स्थल है)
अयोध्या का अर्थ और निहितार्थ :
अयोध्या (अ + युद्ध), जहाँ युद्ध और द्वन्द न हो, अर्थात शांति हो. अयोध्या का दूसरा नाम अवध है. (अ + वध) अर्थात जहाँ अपराध न हों, पाप न हों, जहाँ कठोर सजा की, वध जैसी सजा की आवश्यकता ही न हो. ऎसी उच्च कोटि की शांति - व्यवस्था कायम हो जहाँ, वह है - अवध. दार्शनिक दृष्टि से जहाँ चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः निरोध हो जाय, वह है - अयोध्या और वह है - अवध. यह एक साधक की अपनी मनः स्थिति है. साधना का उच्च सोपान है यह. यही योग की परिभाषा भी है - "योग: चिति वृत्ति निरोधः" - (योग सूत्र-१.१)
अयोध्या का रजा कौन? :
दशरथ.
दशरथ का अर्थ और निहितार्थ:
जो शारीर रूपी रथ में जुटे हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय + ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रखे.ध्यातव्य है कि कठोपनिषद में "आत्मानं रथिं विद्धि शरीरं रथमेव तु / बुद्धिं सारथि विद्धि मनः प्रग्रह मेवच //...." (कठ -३.३-५) से इसी आशय को स्पष्ट किया गया है. और गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को इन्ही इन्द्रियों को वश में करके 'दशरथ; बनने का उपदेश देते हैं - (गीता ३.४१)
दशरथ - योग मार्ग का पथिक :
योगी के लिए निर्देश है -"योग: कर्मः कौशलम". इसके लिए अनिवार्य शर्त है "समत्वं योग उच्यते", समत्व दृष्टि की, समत्व के आचार-विचार की समदर्शी और समत्व की स्थिति में ही शान्ति-व्यवस्था कायम है. आतंरिक और वाह्य सुख की, प्रसन्नता की अवस्था है यह.
दशरथ की ३ रानियाँ कौन? :
त्रिगुण (सत + रज + तम) यही सत कौशल्या, रज सुमित्रा, और तम कैकेयी हैं.
योगी दशरथ को पुरुषार्थ की प्राप्ति :
एक योगी ही अपने जीवन में चरों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति का सकता है. दशरथ रूपी साधक ने भी इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त किया था; ( धर्म - राम, अर्थ - लक्ष्मण, काम - भरत , मोक्ष - शत्रुघ्न)..
राम हैं - धर्म:
राम धर्म का प्रतीक हैं. धर्म को परिभाषित किया गया है - "धारयति असौ सह धर्मः". अर्थात हमारे अस्तित्व को धारण करे वह धर्म है. जिससे हमारा अस्तित्व है और जिसके अभाव में हम अपनी पहचान खो देते हैं, वह नियामक तत्व धर्म है. इस परिभाषा के अनुसार हम मानव हैं, इंसान हैं, अतः हमारा धर्म है - 'मानवता', 'इंसानियत'. यह मानवधर्म हमारी सोच, विचार, मन और आचरण से निःसृत होता है; इसलिए इसका नाम है - 'राम'. "रम्यते इति राम:" अर्थात जो हमारे शारीर में, अंग-प्रत्यंग में रम रहा है, वही है - 'राम'; और वही है - 'धर्म'. इस राम के कई रूप हैं, सबकी अपनी अपनी अनुभूतियाँ हैं - "एक राम दशरथ का बेटा, एक राम है घट - घट लेटा / एक राम का जगत पसारा, एक राम है सबसे न्यारा."
लक्ष्मण हैं - अर्थ :
जिसका लक्ष्य हो 'राम', जिसका एक मात्र ध्येय हो 'राम', वही है - 'लक्ष्मण' . अर्थ का धर्म के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ जाना ही अर्थ की सार्थकता, उसकी उपयोगिता और उसका गौरव है. अर्थ और धर्म का युग्म ही कल्याणकारी, लोकमंगलकारी है. अर्थ का साथ होने पर ही धर्म अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है. लेकिन यह अर्थ उपयोगी तब है जब वह भोग, लिप्सा और विलासिता से दूरी बनाये रहे. भोग तो रहेगा, लेकिन त्यागमय भोग, 'तेन त्यक्तेन भुन्जीथा' के रूप में. राम रूपी लक्ष्य को छोडकर जो अन्यत्र न भटके; वह है - 'लक्ष्मण'.
भरत है - काम :
भरत का अर्थ है - भा + रत (भा = ज्ञान, रत = लीन), अर्थात जो सतत ज्ञान में लीन हो; वह है भरत. जिसकी सोच, जिसके विचार, जिसके कार्य, जिसकी जीवनशैली 'काम' को भी महनीय, नमनीय और वन्दनीय बना दे; वह है - भरत'.कम को हेय दृष्टि से देखने वालों की जो धारणा बदल दे वह है -'भरत'. काम की सर्वोच्चता का जो दर्शन-दिग़दर्शन करा दे, वह है- 'भरत'.
शत्रुघ्न हैं - मोक्ष :
कामना तो सर्वव्यापी है. कामना की पूर्ति न हो तो अशांति और क्रोध की उत्पत्ति होती है. परन्तु जिसकी कोई कामना ही नहीं; वह है - शत्रुघ्न. लक्ष्मण की कामना हैं -;राम', भरत की कामना हैं -;राम'. परन्तु जिसे राम की भी कामना नहीं है, जो वीतरागी है, जिसका अपना नहीं, कोई पराया नहीं, कोई कोई शत्रु नहीं; वही तो है -'शत्रुघ्न'. जिसने अपनी समस्त मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लिया है, वही तो है -'शत्रुघ्न'. यही मोक्ष की स्थति है, जीवन मुक्त की स्थिति है, कैवल्य और निर्वाण की परिकल्पना इसी भाव से ओत-प्रोत है. यही गीता की शब्दावली में 'स्थितिप्रज्ञं है. बका और फना में इसी प्रकार के वीतरागी जीवन की परिकल्पना है. जीवनमुक्त जगत का कार्य तो करता है, क्योकि कार्य से मुक्ति किसी की नहीं हो सकती. लेकिन अब उसका कर्म निष्काम कर्म है, उसका कार्य कर्मयोग है. यह योग की पूर्णता है. यह कर्म - अकर्म - विकर्म......, इन सभी कोटियों से बहुत ऊपर की अवस्था है.
पुरुषार्थी की वृत्ति, दानवृत्ति:
पुरुषार्थी वृत्ति की परिणति दानवृत्ति में है. लोककल्याणार्थ धर्म और अर्थ (राम और लक्ष्मण) को सुपात्र, 'जगत के मित्र' विश्वामित्र के हाथों सौप देना ही पुरुषार्थ की उपादेयता और उपयोगिता है. पर्त्येक पुरुषार्थी का यह सामाजिक दायित्व बनता है कि राष्ट्र की प्रगतिशीलता, विकास और उत्थान में बाधक आसुरी - प्रतिगामी प्रवृत्तियों (ताड़का, सुबाहु, मारीच) से सृजनशील शोध संस्थानों, यज्ञशालाओं, प्रयोगशालाओं की रक्षा करे. आज भी समर्थवानों से, संवेदनशीलों से यही अपेक्षा है.
'धनुष यज्ञं' का अर्थ और निहितार्थ:
शिव महायोगी है. साधना के क्षेत्र में, प्रत्येक साधक को इस धनुष को तोडना पड़ता है. लेकिन एक योगी ही 'महायोगी शिव' के धनुष को तोड़ सकता है, कोई वंचक या ढोंगी नहीं. शिव के इस धनुष का नाम पिनाक है और निरुक्त में पिनाक का अर्थ बताया गया है -"रम्भ: पिनाकमिति दण्डस्य" अर्थात रम्भ और पिनाक दंड के नाम हैं. योग और अध्यात्म के क्षेत्र में यह पिनाक नाम ;मेरुदंड' का है. प्रतीक रूप में यही धनुष है. इसी धनुष की प्रत्यंचा को मूलाधार से खींच-तान कर सहस्रार तक ले जाकर चढाना पड़ता है. जो योगी होगा, जिसे षटचक्र भेदन का भलीभांति ज्ञान होगा, वही प्रत्यंचा चढ़ाकर धनुष को तोड़ सकता है. इस धनुष के निचले शिरे मूलाधार से आज्ञां चक्र की यात्रा के बाद ही साधक रुपी 'शिव' का मिलन 'शक्ति' से होता है. राम एक योगी हैं, कुण्डलनी विद्या द्वारा तडका - सुबाहु- मारीच रूपी काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि कषाय-कल्मषों को विजित कर सहस्रार तक की यात्रा पूरी की थी. सहस्रार में सहस्रदल कमल खिलने की बात योगशास्त्र में बताई गयी है. इसी सहस्रार रूपी 'पुष्प वाटिका' में शिव (राम) का अपनी शक्ति (सीता) से प्रथम साक्षात्कार होता है. यही 'शिव-शक्ति' का मिलन भी है. धनुष यज्ञं के माध्यम से 'राम-सीता विवाह' की कहानी, 'शिव-शक्ति' के मिलन की कहानी है. जो योगी नहीं होगा, वह धनुष को हिला भी नहीं पायेगा. योगबल के अभाव में, कुण्डलिनी विद्या के अभाव में शारीरिकबल, धनबल, संख्याबल का कोई महत्त्व नहीं. इसी को संकेतित करते हुए गोस्वामीजी ने लिखा - "भूप सहसदस एकहिं बारा लगे उठावाहीं टरयी न टारा"
राजा दशरथ. एक अस्थिर-योगी:
योग का पथ कठिन साधना-पथ है. थोड़ी सी असावधानी भी साधक को उसके स्थान से, उसके प्राप्य और प्राप्ति से, भटका सकता है. उसके जीवन में उथल-पुथल मचा सकता है. त्रिगुणरुपी रानियों कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी के प्रति भाव असंतुलन रजा दशरथ को 'शासक दशरथ' के स्थान से च्युतकर 'शासित दशरथ' बना देता है. फलतः अब वृत्तियों द्वारा 'शासित दशरथ' की अभिलाषाएं, आकांक्षाये अधूरी रहतीं है, परिस्थितियाँ विपरीत हो जातीं हैं; शोक - पश्चाताप - दु:ख - अतिशय दु:ख, और अन्त में कष्टदायी मृत्यु. योगपथ में शिथिलता और सहस्रार तक की यात्रा पूरी न कर पाने के कारण 'तत्त्व साक्षात्कार' से भी वंचित.
राम रुपीयोगी (धर्म साधक) के कार्य:
योगी का कार्य है - साधना, स्वयं को, समाज को और राष्ट्र को ....इस साधना के मुख्यतः चार सोपान हैं -बुद्धि, चित्त, मन और अहंकार. धर्म का कार्य आचार-व्यवस्था, विधि-व्यवस्था, मानवता की स्थापना है. जंगल वह स्थान है जहाँ, मानवता का क्षरण हो रहा है. राम वनगमन का यही निहितार्थ है. सत (कौशल्या) को विश्वास है - 'जो पितु मातु कहेउ बन जाना तो कानन षत अवध समाना', जहाँ धर्म है; वहीं- अयोध्या है, वहीँ अवध है और वहीँ सुशासन है.
(i) प्रथम सोपान - बुद्धि जगत:
जहाँ बुद्धि है वहां द्वंद्व है, अनेकता है, तर्क-वितर्क है. जहां द्वंद्व, द्वंद्वों से अतीत हो जाय, तर्क शांत हो जाय, मानसिक सामाजिक कलह न हो, वह है - अयोध्या. अतः अयोध्या नगरी में या अयोध्याकाण्ड में घटित समस्त 'राम लीलाएं' बुद्धि की लीला है.
(ii) द्वितीय सोपान - चित्त जगत:
चित्त स्मृतियों और यादों का भंदारागार है. रामकथा में यही 'चित्रकूट' है. चित्रकूट में घटित समस्त 'राम लीलाएं' चित्त की लीला है, हलचल है. भाव तरंगों का बनना, मिटना, फिर बनना और फिर उठना ....यहाँ इसी की प्रधानता है. चित्त की पांच अवस्थाएं हैं - "क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तं एकाग्रं निरुद्धमिती चित्त भूमयः" (योग १.१)
(iii) तृतीय सोपान - मानसिक जगत:
मन अत्यंत चंचल है. यहाँ कामनाएं हिलोरें मारती रहती हैं. उचित-अनुचित भी समझ में नहीं आता. बौद्धिक जगत के समाधान अस्थाई लगाने लगते हैं. कुछ समझ में नहीं आता. जो होता है, वह दीखता नहीं. जो दिखाई देता है, उसमे सच्चाई नहीं.पूरी तरह मृग मरीचिका की स्थिति है यहाँ. असंभव 'कंचनमृग भी' वास्तविक लगने लगता है. बुद्धि मोहित हो जाती है. पंचवटी ही मन है.पंचवटी में घटित समस्त 'राम लीलाएं' मानसिक जगत की लीला है. इसी मानसिक जगत में सचेत और संमित रहना है. मन को यदि नियंत्रित न किया गया तो विश्वामित्र की तरह अर्जित तपस्या गयी, सूर्पनखा की तरह नाक (मर्यादा) गयी, स्वयं राम की भी शक्ति (सीता) गयी.
(iV) चतुर्थ सोपान - अहंकार जगत:
अतिशय सम्पन्नता की प्राप्ति पर अहंकार आता है. इस अहंकार के विविध रूप हैं - शक्ति का अहंकार, धन का अहंकार, विद्या का अहंकार, बल का अहंकार, सत्ता का अहंकार,.....यहीं साधक के अपने अन्दर के रावण की पहचान कर उसे विजित करना है.
रावण कौन? :
जिसका अपनी इन्द्रियों पर अधिकार न हो. जिसकी दासों इन्द्रियां, उन्मुक्त हों; वह है - 'रावण'. अपनी खोई हुई शक्ति और रावण पर विजय प्राप्ति का मात्र एक उपाय है -'ईश्वराधन और पूजा.
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग-स्थापना, पूजन का अर्थ और निहितार्थ:
धर्मकार्य में पूजन का अर्थ है - 'तत्त्व साक्षात्कार'. सिद्धांतों की खोज करना, अशिक्षितों को, नए साधकों को सिद्धांतो से परिचित करना. उन्हें सबल, अभय और कर्तव्यपरायण बनाना. वेदांत कहता है -"जन्माद्यस्य यतः". अर्थात जिससे इस जगत की उत्पत्ति, जिसमे इसकी स्थिति और जिसमे प्रलय होता है; वह सिद्धांत जान्ने योग्य है? क्या यह प्रश्न मात्र दर्शन और अध्यात्म का ही है? क्या यह विज्ञानं का प्रश्न नहीं है? अब यहाँ इस विन्दु पर यह कार्य अध्यात्म और विज्ञानं दोनों के लिए सामान रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है.
ज्योतिर्लिंग-पूजा का विज्ञान:
राम ने गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र के साथ- साथ अन्य ऋषियों से वेद-वेदांग की शिक्षा ग्रहण की थी. वे जानते हैं कि इस ब्रह्माण्ड का मूल स्रोत (नाभिक) क्या है? वेद जहाँ "वेदाहमस्य भुवनस्य नाभिम" (यजु. २६.६०) कहकर इसे खांकित किया है. वहीँ गीता ने "सर्वभूतानाम बीजं" तथा "प्रभवः प्रलयः स्थान निधानं बीजं अव्ययम" कहकर बताया है. वहीँ विज्ञानं ने इसे 'बिग बैंग' थियरी द्वारा विश्लेषित किया है. राम भी यही कार्य एक योग्य शिक्षक कि तरह निरक्षरों को, वानर-भालू को, वन नारों को विज्ञानं-दर्शन पढ़ा रहे हैं.
राम ने वहां उपस्थित सभी सहयोगियों को समझाया - सृजन और प्रलय प्रकृति का शाश्वत नियम है. दृष्टिगत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अत्यंत घनीभूत होकर एक विन्दु रूप में विलीन हो जाती है. इसलिए अहंकारी रावण को परास्त करने के लिए इस ज्ञान सिद्धांत की, इस ब्रह्म सत्ता की आराधना-पूजा करना सर्वथा उचित है, श्रेयष्कर है.- "लयं गच्छति भूतानि संहारे भूतानि निखिलं यतः / सृष्टि काले पुनः सृष्टि: तस्माद लिंगामुदाह्रितम //" (लिंग पुराण- ९९.८). विन्दु की आराधना, विन्दु की पूजा, विन्दु में सिन्धु समाहित हो जाने का दर्शन वानरों की समझ में नहीं आया. तब राम ने मुट्ठी भर रेत हाथ में लेकर गोलाकार पिंड बनाया, मंत्रोच्चार सहित स्थापित किया. राम समझाते रहे, यही पिंड, शिवलिंग,है, शालीग्राम है...ब्रह्मा का प्रतीक है. -"मूले ब्रह्मा तथा मध्ये विष्णु त्रिभुवानेश्वार: रुद्रोपरी महादेव: प्राणवाख्य: सदाशिवः //" वानरों की समझ में अब भी कुछ नहीं आया. तब राम ने पिंड को अंडाकार बनाया, उसके नीचे अर्घा (जलहरी) बनाया, और अपनी व्याख्या को और सरल किया. यह अंडाकार पिंड 'ब्रह्माण्ड पुरुष सिद्धांत' है, तथा यह अर्घा (जलहरी) 'ब्रह्माण्ड नारी सिद्धांत' है. युग्म रूप में यही 'शिवशक्ति', सिद्धांत है,यही 'अर्द्ध-नारीश्वर' है, यही सृजनहार है. यह परम तत्त्व है, इसे न केवल अध्यात्म तक सिमित किया जा सकता है न केवल विज्ञानं तक. यह असीम है, कल्याणकारी 'शिवम्' है. इसलिए यह न पुलिंग है, न स्त्रीलिंग और न ही नपुंसक लिंग. यह मात्र 'ब्रह्माण्ड लिंग' है. यही राम को सर्व प्रिय है -"लिंग थापि विधिवत करि पूजा शिव समान प्रिय मोहि न दूजा" . विधिवत पूजा का अर्थ है, उसके सिद्धांत को जानना, उसके अनुप्रयोग को जानना. केवल गोल पिंड ;न्यूट्रान' रूप है, अर्घा सहित पिंड 'अर्ध-नारीश्वर' रूप है, हाइड्रोजन रूप है. इस तत्त्व दर्शन ने वानरों के अंतर के भय को समाप्त कर दिया, ज्ञानचक्षु खुल जाने से अहंकार रूपी लंका पर विजी संभव हो पाया. यही रामकथा का संक्षिप्त विज्ञानं-दर्शन है. लंका विजय के पश्चात राम, अयोध्या नरेश हैं, दशरथ रूप हैं क्योकि "रामराज्य बैठे त्रैलोका हर्षित भये गए सब शोका...........". इसी में योग की, अध्यात्म की, विज्ञान की पूर्णता भी है.
"सिद्धांतों की खोज" करना,
"अथातो ब्रह्म (सिद्धांत) जिज्ञासा" - वेदांत सूत्र (१.१)
राम कथा का केन्द्रीय विन्दु :
अयोध्या - (यही अयोध्या रामकथा का प्रारम्भ और समापन स्थल है)
अयोध्या का अर्थ और निहितार्थ :
अयोध्या (अ + युद्ध), जहाँ युद्ध और द्वन्द न हो, अर्थात शांति हो. अयोध्या का दूसरा नाम अवध है. (अ + वध) अर्थात जहाँ अपराध न हों, पाप न हों, जहाँ कठोर सजा की, वध जैसी सजा की आवश्यकता ही न हो. ऎसी उच्च कोटि की शांति - व्यवस्था कायम हो जहाँ, वह है - अवध. दार्शनिक दृष्टि से जहाँ चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः निरोध हो जाय, वह है - अयोध्या और वह है - अवध. यह एक साधक की अपनी मनः स्थिति है. साधना का उच्च सोपान है यह. यही योग की परिभाषा भी है - "योग: चिति वृत्ति निरोधः" - (योग सूत्र-१.१)
अयोध्या का रजा कौन? :
दशरथ.
दशरथ का अर्थ और निहितार्थ:
जो शारीर रूपी रथ में जुटे हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय + ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रखे.ध्यातव्य है कि कठोपनिषद में "आत्मानं रथिं विद्धि शरीरं रथमेव तु / बुद्धिं सारथि विद्धि मनः प्रग्रह मेवच //...." (कठ -३.३-५) से इसी आशय को स्पष्ट किया गया है. और गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को इन्ही इन्द्रियों को वश में करके 'दशरथ; बनने का उपदेश देते हैं - (गीता ३.४१)
दशरथ - योग मार्ग का पथिक :
योगी के लिए निर्देश है -"योग: कर्मः कौशलम". इसके लिए अनिवार्य शर्त है "समत्वं योग उच्यते", समत्व दृष्टि की, समत्व के आचार-विचार की समदर्शी और समत्व की स्थिति में ही शान्ति-व्यवस्था कायम है. आतंरिक और वाह्य सुख की, प्रसन्नता की अवस्था है यह.
दशरथ की ३ रानियाँ कौन? :
त्रिगुण (सत + रज + तम) यही सत कौशल्या, रज सुमित्रा, और तम कैकेयी हैं.
योगी दशरथ को पुरुषार्थ की प्राप्ति :
एक योगी ही अपने जीवन में चरों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति का सकता है. दशरथ रूपी साधक ने भी इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त किया था; ( धर्म - राम, अर्थ - लक्ष्मण, काम - भरत , मोक्ष - शत्रुघ्न)..
राम हैं - धर्म:
राम धर्म का प्रतीक हैं. धर्म को परिभाषित किया गया है - "धारयति असौ सह धर्मः". अर्थात हमारे अस्तित्व को धारण करे वह धर्म है. जिससे हमारा अस्तित्व है और जिसके अभाव में हम अपनी पहचान खो देते हैं, वह नियामक तत्व धर्म है. इस परिभाषा के अनुसार हम मानव हैं, इंसान हैं, अतः हमारा धर्म है - 'मानवता', 'इंसानियत'. यह मानवधर्म हमारी सोच, विचार, मन और आचरण से निःसृत होता है; इसलिए इसका नाम है - 'राम'. "रम्यते इति राम:" अर्थात जो हमारे शारीर में, अंग-प्रत्यंग में रम रहा है, वही है - 'राम'; और वही है - 'धर्म'. इस राम के कई रूप हैं, सबकी अपनी अपनी अनुभूतियाँ हैं - "एक राम दशरथ का बेटा, एक राम है घट - घट लेटा / एक राम का जगत पसारा, एक राम है सबसे न्यारा."
लक्ष्मण हैं - अर्थ :
जिसका लक्ष्य हो 'राम', जिसका एक मात्र ध्येय हो 'राम', वही है - 'लक्ष्मण' . अर्थ का धर्म के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ जाना ही अर्थ की सार्थकता, उसकी उपयोगिता और उसका गौरव है. अर्थ और धर्म का युग्म ही कल्याणकारी, लोकमंगलकारी है. अर्थ का साथ होने पर ही धर्म अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है. लेकिन यह अर्थ उपयोगी तब है जब वह भोग, लिप्सा और विलासिता से दूरी बनाये रहे. भोग तो रहेगा, लेकिन त्यागमय भोग, 'तेन त्यक्तेन भुन्जीथा' के रूप में. राम रूपी लक्ष्य को छोडकर जो अन्यत्र न भटके; वह है - 'लक्ष्मण'.
भरत है - काम :
भरत का अर्थ है - भा + रत (भा = ज्ञान, रत = लीन), अर्थात जो सतत ज्ञान में लीन हो; वह है भरत. जिसकी सोच, जिसके विचार, जिसके कार्य, जिसकी जीवनशैली 'काम' को भी महनीय, नमनीय और वन्दनीय बना दे; वह है - भरत'.कम को हेय दृष्टि से देखने वालों की जो धारणा बदल दे वह है -'भरत'. काम की सर्वोच्चता का जो दर्शन-दिग़दर्शन करा दे, वह है- 'भरत'.
शत्रुघ्न हैं - मोक्ष :
कामना तो सर्वव्यापी है. कामना की पूर्ति न हो तो अशांति और क्रोध की उत्पत्ति होती है. परन्तु जिसकी कोई कामना ही नहीं; वह है - शत्रुघ्न. लक्ष्मण की कामना हैं -;राम', भरत की कामना हैं -;राम'. परन्तु जिसे राम की भी कामना नहीं है, जो वीतरागी है, जिसका अपना नहीं, कोई पराया नहीं, कोई कोई शत्रु नहीं; वही तो है -'शत्रुघ्न'. जिसने अपनी समस्त मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लिया है, वही तो है -'शत्रुघ्न'. यही मोक्ष की स्थति है, जीवन मुक्त की स्थिति है, कैवल्य और निर्वाण की परिकल्पना इसी भाव से ओत-प्रोत है. यही गीता की शब्दावली में 'स्थितिप्रज्ञं है. बका और फना में इसी प्रकार के वीतरागी जीवन की परिकल्पना है. जीवनमुक्त जगत का कार्य तो करता है, क्योकि कार्य से मुक्ति किसी की नहीं हो सकती. लेकिन अब उसका कर्म निष्काम कर्म है, उसका कार्य कर्मयोग है. यह योग की पूर्णता है. यह कर्म - अकर्म - विकर्म......, इन सभी कोटियों से बहुत ऊपर की अवस्था है.
पुरुषार्थी की वृत्ति, दानवृत्ति:
पुरुषार्थी वृत्ति की परिणति दानवृत्ति में है. लोककल्याणार्थ धर्म और अर्थ (राम और लक्ष्मण) को सुपात्र, 'जगत के मित्र' विश्वामित्र के हाथों सौप देना ही पुरुषार्थ की उपादेयता और उपयोगिता है. पर्त्येक पुरुषार्थी का यह सामाजिक दायित्व बनता है कि राष्ट्र की प्रगतिशीलता, विकास और उत्थान में बाधक आसुरी - प्रतिगामी प्रवृत्तियों (ताड़का, सुबाहु, मारीच) से सृजनशील शोध संस्थानों, यज्ञशालाओं, प्रयोगशालाओं की रक्षा करे. आज भी समर्थवानों से, संवेदनशीलों से यही अपेक्षा है.
'धनुष यज्ञं' का अर्थ और निहितार्थ:
शिव महायोगी है. साधना के क्षेत्र में, प्रत्येक साधक को इस धनुष को तोडना पड़ता है. लेकिन एक योगी ही 'महायोगी शिव' के धनुष को तोड़ सकता है, कोई वंचक या ढोंगी नहीं. शिव के इस धनुष का नाम पिनाक है और निरुक्त में पिनाक का अर्थ बताया गया है -"रम्भ: पिनाकमिति दण्डस्य" अर्थात रम्भ और पिनाक दंड के नाम हैं. योग और अध्यात्म के क्षेत्र में यह पिनाक नाम ;मेरुदंड' का है. प्रतीक रूप में यही धनुष है. इसी धनुष की प्रत्यंचा को मूलाधार से खींच-तान कर सहस्रार तक ले जाकर चढाना पड़ता है. जो योगी होगा, जिसे षटचक्र भेदन का भलीभांति ज्ञान होगा, वही प्रत्यंचा चढ़ाकर धनुष को तोड़ सकता है. इस धनुष के निचले शिरे मूलाधार से आज्ञां चक्र की यात्रा के बाद ही साधक रुपी 'शिव' का मिलन 'शक्ति' से होता है. राम एक योगी हैं, कुण्डलनी विद्या द्वारा तडका - सुबाहु- मारीच रूपी काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि कषाय-कल्मषों को विजित कर सहस्रार तक की यात्रा पूरी की थी. सहस्रार में सहस्रदल कमल खिलने की बात योगशास्त्र में बताई गयी है. इसी सहस्रार रूपी 'पुष्प वाटिका' में शिव (राम) का अपनी शक्ति (सीता) से प्रथम साक्षात्कार होता है. यही 'शिव-शक्ति' का मिलन भी है. धनुष यज्ञं के माध्यम से 'राम-सीता विवाह' की कहानी, 'शिव-शक्ति' के मिलन की कहानी है. जो योगी नहीं होगा, वह धनुष को हिला भी नहीं पायेगा. योगबल के अभाव में, कुण्डलिनी विद्या के अभाव में शारीरिकबल, धनबल, संख्याबल का कोई महत्त्व नहीं. इसी को संकेतित करते हुए गोस्वामीजी ने लिखा - "भूप सहसदस एकहिं बारा लगे उठावाहीं टरयी न टारा"
राजा दशरथ. एक अस्थिर-योगी:
योग का पथ कठिन साधना-पथ है. थोड़ी सी असावधानी भी साधक को उसके स्थान से, उसके प्राप्य और प्राप्ति से, भटका सकता है. उसके जीवन में उथल-पुथल मचा सकता है. त्रिगुणरुपी रानियों कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी के प्रति भाव असंतुलन रजा दशरथ को 'शासक दशरथ' के स्थान से च्युतकर 'शासित दशरथ' बना देता है. फलतः अब वृत्तियों द्वारा 'शासित दशरथ' की अभिलाषाएं, आकांक्षाये अधूरी रहतीं है, परिस्थितियाँ विपरीत हो जातीं हैं; शोक - पश्चाताप - दु:ख - अतिशय दु:ख, और अन्त में कष्टदायी मृत्यु. योगपथ में शिथिलता और सहस्रार तक की यात्रा पूरी न कर पाने के कारण 'तत्त्व साक्षात्कार' से भी वंचित.
राम रुपीयोगी (धर्म साधक) के कार्य:
योगी का कार्य है - साधना, स्वयं को, समाज को और राष्ट्र को ....इस साधना के मुख्यतः चार सोपान हैं -बुद्धि, चित्त, मन और अहंकार. धर्म का कार्य आचार-व्यवस्था, विधि-व्यवस्था, मानवता की स्थापना है. जंगल वह स्थान है जहाँ, मानवता का क्षरण हो रहा है. राम वनगमन का यही निहितार्थ है. सत (कौशल्या) को विश्वास है - 'जो पितु मातु कहेउ बन जाना तो कानन षत अवध समाना', जहाँ धर्म है; वहीं- अयोध्या है, वहीँ अवध है और वहीँ सुशासन है.
(i) प्रथम सोपान - बुद्धि जगत:
जहाँ बुद्धि है वहां द्वंद्व है, अनेकता है, तर्क-वितर्क है. जहां द्वंद्व, द्वंद्वों से अतीत हो जाय, तर्क शांत हो जाय, मानसिक सामाजिक कलह न हो, वह है - अयोध्या. अतः अयोध्या नगरी में या अयोध्याकाण्ड में घटित समस्त 'राम लीलाएं' बुद्धि की लीला है.
(ii) द्वितीय सोपान - चित्त जगत:
चित्त स्मृतियों और यादों का भंदारागार है. रामकथा में यही 'चित्रकूट' है. चित्रकूट में घटित समस्त 'राम लीलाएं' चित्त की लीला है, हलचल है. भाव तरंगों का बनना, मिटना, फिर बनना और फिर उठना ....यहाँ इसी की प्रधानता है. चित्त की पांच अवस्थाएं हैं - "क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तं एकाग्रं निरुद्धमिती चित्त भूमयः" (योग १.१)
(iii) तृतीय सोपान - मानसिक जगत:
मन अत्यंत चंचल है. यहाँ कामनाएं हिलोरें मारती रहती हैं. उचित-अनुचित भी समझ में नहीं आता. बौद्धिक जगत के समाधान अस्थाई लगाने लगते हैं. कुछ समझ में नहीं आता. जो होता है, वह दीखता नहीं. जो दिखाई देता है, उसमे सच्चाई नहीं.पूरी तरह मृग मरीचिका की स्थिति है यहाँ. असंभव 'कंचनमृग भी' वास्तविक लगने लगता है. बुद्धि मोहित हो जाती है. पंचवटी ही मन है.पंचवटी में घटित समस्त 'राम लीलाएं' मानसिक जगत की लीला है. इसी मानसिक जगत में सचेत और संमित रहना है. मन को यदि नियंत्रित न किया गया तो विश्वामित्र की तरह अर्जित तपस्या गयी, सूर्पनखा की तरह नाक (मर्यादा) गयी, स्वयं राम की भी शक्ति (सीता) गयी.
(iV) चतुर्थ सोपान - अहंकार जगत:
अतिशय सम्पन्नता की प्राप्ति पर अहंकार आता है. इस अहंकार के विविध रूप हैं - शक्ति का अहंकार, धन का अहंकार, विद्या का अहंकार, बल का अहंकार, सत्ता का अहंकार,.....यहीं साधक के अपने अन्दर के रावण की पहचान कर उसे विजित करना है.
रावण कौन? :
जिसका अपनी इन्द्रियों पर अधिकार न हो. जिसकी दासों इन्द्रियां, उन्मुक्त हों; वह है - 'रावण'. अपनी खोई हुई शक्ति और रावण पर विजय प्राप्ति का मात्र एक उपाय है -'ईश्वराधन और पूजा.
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग-स्थापना, पूजन का अर्थ और निहितार्थ:
धर्मकार्य में पूजन का अर्थ है - 'तत्त्व साक्षात्कार'. सिद्धांतों की खोज करना, अशिक्षितों को, नए साधकों को सिद्धांतो से परिचित करना. उन्हें सबल, अभय और कर्तव्यपरायण बनाना. वेदांत कहता है -"जन्माद्यस्य यतः". अर्थात जिससे इस जगत की उत्पत्ति, जिसमे इसकी स्थिति और जिसमे प्रलय होता है; वह सिद्धांत जान्ने योग्य है? क्या यह प्रश्न मात्र दर्शन और अध्यात्म का ही है? क्या यह विज्ञानं का प्रश्न नहीं है? अब यहाँ इस विन्दु पर यह कार्य अध्यात्म और विज्ञानं दोनों के लिए सामान रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है.
ज्योतिर्लिंग-पूजा का विज्ञान:
राम ने गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र के साथ- साथ अन्य ऋषियों से वेद-वेदांग की शिक्षा ग्रहण की थी. वे जानते हैं कि इस ब्रह्माण्ड का मूल स्रोत (नाभिक) क्या है? वेद जहाँ "वेदाहमस्य भुवनस्य नाभिम" (यजु. २६.६०) कहकर इसे खांकित किया है. वहीँ गीता ने "सर्वभूतानाम बीजं" तथा "प्रभवः प्रलयः स्थान निधानं बीजं अव्ययम" कहकर बताया है. वहीँ विज्ञानं ने इसे 'बिग बैंग' थियरी द्वारा विश्लेषित किया है. राम भी यही कार्य एक योग्य शिक्षक कि तरह निरक्षरों को, वानर-भालू को, वन नारों को विज्ञानं-दर्शन पढ़ा रहे हैं.
राम ने वहां उपस्थित सभी सहयोगियों को समझाया - सृजन और प्रलय प्रकृति का शाश्वत नियम है. दृष्टिगत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अत्यंत घनीभूत होकर एक विन्दु रूप में विलीन हो जाती है. इसलिए अहंकारी रावण को परास्त करने के लिए इस ज्ञान सिद्धांत की, इस ब्रह्म सत्ता की आराधना-पूजा करना सर्वथा उचित है, श्रेयष्कर है.- "लयं गच्छति भूतानि संहारे भूतानि निखिलं यतः / सृष्टि काले पुनः सृष्टि: तस्माद लिंगामुदाह्रितम //" (लिंग पुराण- ९९.८). विन्दु की आराधना, विन्दु की पूजा, विन्दु में सिन्धु समाहित हो जाने का दर्शन वानरों की समझ में नहीं आया. तब राम ने मुट्ठी भर रेत हाथ में लेकर गोलाकार पिंड बनाया, मंत्रोच्चार सहित स्थापित किया. राम समझाते रहे, यही पिंड, शिवलिंग,है, शालीग्राम है...ब्रह्मा का प्रतीक है. -"मूले ब्रह्मा तथा मध्ये विष्णु त्रिभुवानेश्वार: रुद्रोपरी महादेव: प्राणवाख्य: सदाशिवः //" वानरों की समझ में अब भी कुछ नहीं आया. तब राम ने पिंड को अंडाकार बनाया, उसके नीचे अर्घा (जलहरी) बनाया, और अपनी व्याख्या को और सरल किया. यह अंडाकार पिंड 'ब्रह्माण्ड पुरुष सिद्धांत' है, तथा यह अर्घा (जलहरी) 'ब्रह्माण्ड नारी सिद्धांत' है. युग्म रूप में यही 'शिवशक्ति', सिद्धांत है,यही 'अर्द्ध-नारीश्वर' है, यही सृजनहार है. यह परम तत्त्व है, इसे न केवल अध्यात्म तक सिमित किया जा सकता है न केवल विज्ञानं तक. यह असीम है, कल्याणकारी 'शिवम्' है. इसलिए यह न पुलिंग है, न स्त्रीलिंग और न ही नपुंसक लिंग. यह मात्र 'ब्रह्माण्ड लिंग' है. यही राम को सर्व प्रिय है -"लिंग थापि विधिवत करि पूजा शिव समान प्रिय मोहि न दूजा" . विधिवत पूजा का अर्थ है, उसके सिद्धांत को जानना, उसके अनुप्रयोग को जानना. केवल गोल पिंड ;न्यूट्रान' रूप है, अर्घा सहित पिंड 'अर्ध-नारीश्वर' रूप है, हाइड्रोजन रूप है. इस तत्त्व दर्शन ने वानरों के अंतर के भय को समाप्त कर दिया, ज्ञानचक्षु खुल जाने से अहंकार रूपी लंका पर विजी संभव हो पाया. यही रामकथा का संक्षिप्त विज्ञानं-दर्शन है. लंका विजय के पश्चात राम, अयोध्या नरेश हैं, दशरथ रूप हैं क्योकि "रामराज्य बैठे त्रैलोका हर्षित भये गए सब शोका...........". इसी में योग की, अध्यात्म की, विज्ञान की पूर्णता भी है.
Tuesday, March 16, 2010
मृत्यु चिंतन-विन्दु है
मृत्यु क्या है?
जन्म से मृतु तक का
समय है - 'जीवन यात्रा'.
परन्तु मृत्यु तक सीमित
नहीं है - यह जीवन.
मृत्यु है -
जीवन का विश्राम स्थल;
कुछ क्षण रुक कर...,
भूत को टटोलने और,
भविष्यत् के गंतव्य को,
कृतकर्म के मंतव्य को,
पुनर्जन्म के माध्यम से,
निर्दिष्ट लक्ष्य संधान का,
पुनीत द्वार है - यह.
मृत्यु; विनाश नहीं, सृजन है.
मृत्यु; अवकाश नहीं, दायित्व है.
मृत्यु; नवजीवन का द्वार है.
मृत्यु; अमरत्व का अवसर है.
मृत्यु; विलाप का नहीं,
समीक्षा का विन्दु है.
जिसके आगे अमरत्व का
लहराता हुआ सिन्धु है.
लक्ष्य का स्वागत द्वार है और,
पारलौकिक जीवन का प्रारम्भ विन्दु है.
मृतु डरने की नहीं, चिंतन की विन्दु है.
जन्म से मृतु तक का
समय है - 'जीवन यात्रा'.
परन्तु मृत्यु तक सीमित
नहीं है - यह जीवन.
मृत्यु है -
जीवन का विश्राम स्थल;
कुछ क्षण रुक कर...,
भूत को टटोलने और,
भविष्यत् के गंतव्य को,
कृतकर्म के मंतव्य को,
पुनर्जन्म के माध्यम से,
निर्दिष्ट लक्ष्य संधान का,
पुनीत द्वार है - यह.
मृत्यु; विनाश नहीं, सृजन है.
मृत्यु; अवकाश नहीं, दायित्व है.
मृत्यु; नवजीवन का द्वार है.
मृत्यु; अमरत्व का अवसर है.
मृत्यु; विलाप का नहीं,
समीक्षा का विन्दु है.
जिसके आगे अमरत्व का
लहराता हुआ सिन्धु है.
लक्ष्य का स्वागत द्वार है और,
पारलौकिक जीवन का प्रारम्भ विन्दु है.
मृतु डरने की नहीं, चिंतन की विन्दु है.
सोचो! ...फिर सोचो !!..
पूछना चाहता हूँ उन महानुभाओं से,
समाज के ठेकेदारों से जिन्होंने अपनी
अंतरात्मा की आवाज़ को कुचल कर
जमा कर किया है, अकूत सम्पति.
बनाया है - अट्टालिकाएं और महल.
महल तो बना लिया परन्तु ,
सोचो! .....जिसे कहते है;
'घर एक मंदिर' ..वह कहाँ से लाओगे?
चाँदी के पलंग पर सेज तो बिछा ली,
बोलो प्यारे! - नींद कहाँ से लाओगे?
अलमारी को बना लिया दवाखाना,
बोलो - स्वास्थ्य कहाँ से लाओगे?
घर में पक रहे होंगे छप्पन भोग,
तुम बिस्तर में पड़े पड़े ललचाओगे.
भीड़ चाहे जितनी एकत्र कर लो.
बोलो!- एक मित्र कहाँ से लाओगे?
घड़ियाँ चाहे जितनी खरीद लो,
बोलो! समय को पकड़ पाओगे?
रिंग चाहे जितनी उँगलियों में पहनो,
अर्धांगिनी कहाँ कहाँ से लाओगे?
जब भाई को भाई नहीं मानोगे,
भार्या की बात को भी ठुकराओगे,
घिरे रहोगे चाटुकारों में, निश्चित ही
एक दिन वह भी आएगा जब ......,
कोई हनुमान तुम्हारी लंका को जलाएगा.
तू पड़ा-पड़ा पछतायेगा,रो भी नहीं पायेगा.
समाज के ठेकेदारों से जिन्होंने अपनी
अंतरात्मा की आवाज़ को कुचल कर
जमा कर किया है, अकूत सम्पति.
बनाया है - अट्टालिकाएं और महल.
महल तो बना लिया परन्तु ,
सोचो! .....जिसे कहते है;
'घर एक मंदिर' ..वह कहाँ से लाओगे?
चाँदी के पलंग पर सेज तो बिछा ली,
बोलो प्यारे! - नींद कहाँ से लाओगे?
अलमारी को बना लिया दवाखाना,
बोलो - स्वास्थ्य कहाँ से लाओगे?
घर में पक रहे होंगे छप्पन भोग,
तुम बिस्तर में पड़े पड़े ललचाओगे.
भीड़ चाहे जितनी एकत्र कर लो.
बोलो!- एक मित्र कहाँ से लाओगे?
घड़ियाँ चाहे जितनी खरीद लो,
बोलो! समय को पकड़ पाओगे?
रिंग चाहे जितनी उँगलियों में पहनो,
अर्धांगिनी कहाँ कहाँ से लाओगे?
जब भाई को भाई नहीं मानोगे,
भार्या की बात को भी ठुकराओगे,
घिरे रहोगे चाटुकारों में, निश्चित ही
एक दिन वह भी आएगा जब ......,
कोई हनुमान तुम्हारी लंका को जलाएगा.
तू पड़ा-पड़ा पछतायेगा,रो भी नहीं पायेगा.
Monday, March 15, 2010
भारतीय नववर्ष की शुभकामना
आने वाला वर्ष....,
जीवन में लाये नया उत्कर्ष.
यही शुभकामना है.
फैले विश्वबंधुत्व भावना,
हो ह्रदय में हर्ष.
यही शुभकामना है.
पूरित हो सब काम तुम्हारे,
मिले सदा सुखधाम,
मातु पिता गुरु की सेवा,
कर्तव्यों में नित ध्यान.
यही शुभकामना है.
करो न दूषित संसकृति अपनी,
करो! उसी पर गर्व ;
पूरी करो लालसा माँ की,
हो उसे कोख पर गर्व.
यही शुभकामना है.
संविधान की, मर्यादा की,
निज भाषा का भी धयान.
नहीं द्वेष आंगल भाषा से,
रहे हिंदी की भी शान.
यही शुभकामना है.
करते हैं वे राग - द्वेष
और तोड़-फोड़ का काम.
इस नए वर्ष में अब,
उनको भी सद्बुद्धि आये,
प्रथम यही अरमान.
यही शुभकामना है.
रामानुजम,टैगोर और गांधी,
शंकर, कपिल, कलाम...
बार-बार इस देश में आयें,
दूजा ये अरमान...
यही शुभकामना है.
मेरी शुभकामना है.
जीवन में लाये नया उत्कर्ष.
यही शुभकामना है.
फैले विश्वबंधुत्व भावना,
हो ह्रदय में हर्ष.
यही शुभकामना है.
पूरित हो सब काम तुम्हारे,
मिले सदा सुखधाम,
मातु पिता गुरु की सेवा,
कर्तव्यों में नित ध्यान.
यही शुभकामना है.
करो न दूषित संसकृति अपनी,
करो! उसी पर गर्व ;
पूरी करो लालसा माँ की,
हो उसे कोख पर गर्व.
यही शुभकामना है.
संविधान की, मर्यादा की,
निज भाषा का भी धयान.
नहीं द्वेष आंगल भाषा से,
रहे हिंदी की भी शान.
यही शुभकामना है.
करते हैं वे राग - द्वेष
और तोड़-फोड़ का काम.
इस नए वर्ष में अब,
उनको भी सद्बुद्धि आये,
प्रथम यही अरमान.
यही शुभकामना है.
रामानुजम,टैगोर और गांधी,
शंकर, कपिल, कलाम...
बार-बार इस देश में आयें,
दूजा ये अरमान...
यही शुभकामना है.
मेरी शुभकामना है.
Sunday, March 14, 2010
शिक्षा द्वारा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण : वैश्विक संदर्भ में
पुनर्निर्माण शब्द ही असंतुष्टि भाव का द्योतक है, इस शब्द का एक निहितार्थ यह भी है कि राष्ट्रीय अपेक्षाओं कि पूर्ति नहीं हुई है, परन्तु इस शब्द में ही सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इस निराशायुक्त शब्द में भी कहीं न कहीं आशा का एक रचनात्मक भाव भी प्रेरकतत्व के रूप में अंतर्निहित है;. इस आशा के साथ कि अब जो भी होगा सार्थक होगा, इससे भूत कि भूलों को सुधारा जा सकेगा, भविष्य के लिए लाभकारी होगा; यही इसकी सर्जनात्मक उर्जा शक्ति है, यही इसकी उपयोगिता है और उपादेयता भी. इसे राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर सोचना, योजनायें बनाना, वह भी शिक्षाविदों कि संगोष्ठी में, शिक्षा के माध्यम से. यह कंचनमणि संयोग ही कहा जायेगा.
यहाँ प्रश्न उठता है कि यह अपेक्षा किसे है और क्यों है? निश्चित रूप से यह अपेक्षा एक राष्ट्र की है और अपने संवदनशील, प्रबुद्ध नागरिकों से है, क्योंकि वही चिन्तनशील बौद्धिक नागरिक, एक निकाय के रूप में स्थानीय स्तर पर और सरकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर इसका संचालक है. वही इन लक्ष्यों का निर्धारक है, समीक्षक है और लक्ष्यपूर्ति के आभाव में, पुनर्निर्माण का प्रेरक भी.
राजनितिक दृष्टि से हमने स्वतंत्रता ६२ वर्ष पूर्व प्राप्त कर ली है, हमारी सरकार ने राष्ट्रीय प्रगति हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रमों को बनाया, धन की, संसाधनों की हरसंभव व्यवस्था की, परन्तु अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई. आखिर क्यों? जिस सरकार में अपने देश के नागरिक, शासन-प्रशासन में अपने देश के नागरिक, प्रबंधन - व्यवस्थापन - अधिकारी - कर्मचारीगण, सभी देश के नागरिक; फिर भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं, ऐसा क्यों? हमें इसपर विचार करना होगा, मिल बैठ कर चिन्तन करना होगा और समाधान ढूढना होगा. माना कि भूत की सीढ़ी को ढोना शायद उचित नहीं, परन्तु क्या भूतकाल के इसी चितन-समीक्षा में नहीं छिपे हुए है समाधान के सार्थक बीज? कारण चाहे जितने गिना दिए जाय, परन्तु इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण कारण है -"शिक्षा" .
आज की शिक्षा धनोपार्जन की और मुड चुकी है. धन की चकाचौघ ने, अकूत सम्पति की चाह, आर्थिक स्वतंत्रता की लालसा ने, 'स्वतंत्रता' शब्द के अर्थ - निहितार्थ को ही बदल डाला है. स्वतंत्रता का अर्थ कहीं न कहीं स्वछंदता ने ले लिया है. यह अलग बात है कि सीधे-सीधे इसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा. आर्थिक स्वतंत्रता की लालसा में कहीं न कहीं हम अपने दायित्व - जिम्मेदारी - कर्तव्यपरायणता से न केवल समझौता करने लगे हैं बल्कि यदि लीक से थोडा हट कर कार्य करने से, जिसमे जीविका जाने का खतरा न हो, तो उसे करने में हिचक नहीं, चाहे इसमें राष्ट्रीय क्षति क्यों न हो रही हो. ऐसे अनेकानेक मामले प्रकाश में आये हैं, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं. यह चिंता का विषय है और साथ ही चिंतन का भी.
"क्या थे, क्या हैं, होंगे क्या ? / अब यही बैठ के सोच रहाँ हूँ / शिक्षा में ह्रास भिक्षा की आस / हर बात में पश्चिम देख रहा हूँ / चिंतन की गिरावट धन कि लोलुपता / रिश्तों की बर्बरता देख रहा हूँ ..."
"समाज के तीन सजग प्रहरी / खादी, खाकी और टाई / समाज के तीन कर्णधार / अभियंता, डाक्टर और शिक्षक / परन्तु क्या कहूँ इनकी गति / कैसी हो गयी है इनकी मति / कभी - कभी तो ये / ऐसे कार्य करने में भी नहीं शर्माते / जिसे कहने में हमें शर्म आती है... "
"आज शिक्षक रूपी माली / कुम्भकार, शिल्पकार और कथाकार / हैरान है, परेशान है..../ सोचा था यह डाली / लाएगी - फल, फूल और हरियाली? / परन्तु हाय! इस डाली से / क्यों टपकी यह खून की लाली? / देखो! यह कैसा अनर्थ है? / क्या हमारी शिक्षा ही व्यर्थ है? / हमारे श्रम में तो कोई खोट नहीं थी मेरे मित्र! / फिर इस आकर्षक घट में, / मृदुल जल की बजाय छिद्र क्यों है? / इन नवीन कहे जाने वाले कृतियों में / संगीत के स्वरों में / ओज और माधुर्य के स्थान पर / नग्नता और विकृति क्यों है?
यदि उपरोक्त समस्याओं के मूलभूत कारणों को ढूढा जाय तो हमें शिक्षा पद्धति में संशोधन की आवश्यकता परिलक्षित हो रही है. शिक्षा में यह संशोधन किस प्रकार का होना चाहिए? अथवा किया जा सकता है, आइये देखें, समाधान ढूंढें -
कारण है सबका ही एक / नहीं किया तूने शिक्षा और विद्या में भेद / इसी विद्या के अभाव में, / शिक्षा का उत्पाद दम्भी अभियंता / विकास के नाम पर देश का धन चूसता है, / डॉक्टर चिकित्सा के नाम पर अभिवावकों का खून चूसता है, / काली कोट सफ़ेद टाई वाला / संविधान की मर्यादा चूसता है / ऐसे से में हैरानी क्यों है? / समझो टहनी में लाली क्यों है?
विद्या और शिक्षा में अंतर :
विद्या है - मानव को / महामानव में रूपांतरण की तकनीक / मानव के अंतर की / टिमटिमाती दीप को / प्रदीप्त और प्रखर करने की / अचूक रीति. विद्या लभ्यज्ञान है - स्वानुभूति है, भूमा है / यह नित्य है, सत्य है / और शिक्षा श्रब्यज्ञान है - पुस्तकीय है / व्याख्यान है, अख्यान है / सत्याभास है / यह स्वप्रधान / कामप्रधान, रागी-विषयी / और भोगप्रधान है / विद्या संपूर्ण ज्ञान / स्वानुभूति और आत्मोपलब्धि है / तत्व साक्षात्कार है; / यह सर्वगत, समष्टिगत / समदर्शी, तत्वदर्शी, वीतरागी / योग - प्रधान है / इसलिए शिक्षा के उत्पाद को / सुख - शांति की / सर्वदा तलाश है / जबकि 'सुख शांति संतोष' / तो विद्या का / स्वाभाविक दास है / मेरे मित्र! अब तो ग्रहण करो / विद्या को / इस तरह खड़ा / तू क्यों उदास है ?
सुझाव :
आज इस बात की महती आवश्यकता कि शिक्षा के साथ विद्या को भी अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाय क्योंकि शिक्षा ढेर सारी आय, धनोपार्जन का साधन तो हो सकती है, परन्तु; उसके उपयोग - सदुपयोग की कला तो विद्या के ही पास है. विद्या के अभाव में जाने -अनजाने हो रहा ज्ञान का दुपयोग ही वैश्विक कलह का कारण है, जिसका संधान इस विधि से संभव हो सकता है आज विश्व में दो रुझान, दो प्रकार की गतिविधियाँ कहीं भी बड़ी आसानी से दीख पड़ती हैं.
(i) वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप:
वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप समाज में क्षैतिज प्रगति को प्रदान करता है. रहन - सहन को, बाहरी परिवेश को, हमारी सभ्यता को प्रदर्शित करता है. यह जीवन प्रदाली को सरल, सुविधाभोगी ...और विलासिता पूर्ण बनता है. वहां आधुनिकता के नाम पर मानवीय मूल्यों में ह्रास और उपहास का भाव प्रायः वहां दिख पड़ता है. आज की सर्वाधिक जटिल समस्या ग्लोबल वार्मिंग की समस्या, जंगलों की कटाई, पालीथीन का प्रचलन, जैविक - आणविक हथियारों का सृजन, वैश्विक अशांति, प्राकृतिक संसाधनों, पेट्रोलियम इत्यादि पर अधिपत्य की लालसा इसी वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप की दें है.
(ii) आध्यात्मिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप:
आध्यात्मिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप समाज को लम्बवत प्रगति प्रदान करता है यह कठिन साधनामय जीवन है. यहाँ उर्द्वार्धर प्रगति की भावना कभी-कभी इतनी बलवती हो जाती है की व्यक्ति सामाजिक जीवन से पलायन कर अरण्यवासी हो जाता है. अथवा कुटिल और पाखंडी व्यक्ति इस कश्र्त्र को अंधविश्वास, सामाजिक कलह का कारण बना दिया करते है.
सुझाव :
क्या पुनर्निमाण के प्रसंग में आज सर्वाधिक आवश्यकता इस बात की नहीं है कि जिस प्रकार शिक्षा के साथ विद्या को जोड़ने कि आवश्यकता महसूस कि जा रही है, ठीक उसी प्रकार विज्ञानं और अध्यात्म के सर्जनात्मक पक्ष को जोड़ दिया जाय? इस सुधर से होगा यह कि विज्ञानं संवेदनशील बन जायेगा और अध्यात्म अंधविश्वास जैसी प्रत्गामी प्रवृत्तियों से उपर उठ कर सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन जायेगा. अब हमारी प्रगति न केवल क्षैतिज होगी, न केवल लम्बवत होगी अपितु संतुलित होगी. इसकी आवश्यकत न केवल सामाजिक स्तर पर है, न केवल राष्ट्रीय स्तर पर है; अपितु इसकी सर्वाधिक आवश्यकता तो वैश्विक स्तर पर है. यह प्रत्येक नागरिक का चाहे उसकी भाषा, बोली, राष्ट्रीयता चाहे जो हो, सभी का पुनीत कर्त्तव्य बन जाता है कि इस उद्देश्य कि प्राप्ति में सहयोग करे.
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि -
"क्या यह उचित नहीं होगा / कि प्रगति और उत्थान / संतुलित और सुनियोजित किया जाय / संतुलन और समग्रता कि स्थिति में / हर प्रगति बन जाएगी / एक त्रिज्या / और हम एक वृत्त / इस वृत्त के सुविचार रूपी त्रिज्या को / सद्भावना से अभिन्चित कर / श्रमशीलता के उर्वरक से / मनोवांछित वृत्त के संरचना में संदेह नहीं / और वृत्त क्या है? / सम्पूर्णता का बोधक जिसे स्वीकार किया है / विज्ञानं और अध्यात्म दोनों ने एक साथ....."इस प्रकार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जिस दायित्व बोध की कमी परिलक्षित हो रही है, उसे दूर कर संतिलित प्रगति की जा सकती है. इस प्रकार न केवल राष्ट्र स्तर पर अपितु वैश्विक स्तर पर सार्थक और सृजनात्मक परिवर्तन की सुखद की जा सकती है.
यहाँ प्रश्न उठता है कि यह अपेक्षा किसे है और क्यों है? निश्चित रूप से यह अपेक्षा एक राष्ट्र की है और अपने संवदनशील, प्रबुद्ध नागरिकों से है, क्योंकि वही चिन्तनशील बौद्धिक नागरिक, एक निकाय के रूप में स्थानीय स्तर पर और सरकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर इसका संचालक है. वही इन लक्ष्यों का निर्धारक है, समीक्षक है और लक्ष्यपूर्ति के आभाव में, पुनर्निर्माण का प्रेरक भी.
राजनितिक दृष्टि से हमने स्वतंत्रता ६२ वर्ष पूर्व प्राप्त कर ली है, हमारी सरकार ने राष्ट्रीय प्रगति हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रमों को बनाया, धन की, संसाधनों की हरसंभव व्यवस्था की, परन्तु अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई. आखिर क्यों? जिस सरकार में अपने देश के नागरिक, शासन-प्रशासन में अपने देश के नागरिक, प्रबंधन - व्यवस्थापन - अधिकारी - कर्मचारीगण, सभी देश के नागरिक; फिर भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं, ऐसा क्यों? हमें इसपर विचार करना होगा, मिल बैठ कर चिन्तन करना होगा और समाधान ढूढना होगा. माना कि भूत की सीढ़ी को ढोना शायद उचित नहीं, परन्तु क्या भूतकाल के इसी चितन-समीक्षा में नहीं छिपे हुए है समाधान के सार्थक बीज? कारण चाहे जितने गिना दिए जाय, परन्तु इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण कारण है -"शिक्षा" .
आज की शिक्षा धनोपार्जन की और मुड चुकी है. धन की चकाचौघ ने, अकूत सम्पति की चाह, आर्थिक स्वतंत्रता की लालसा ने, 'स्वतंत्रता' शब्द के अर्थ - निहितार्थ को ही बदल डाला है. स्वतंत्रता का अर्थ कहीं न कहीं स्वछंदता ने ले लिया है. यह अलग बात है कि सीधे-सीधे इसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा. आर्थिक स्वतंत्रता की लालसा में कहीं न कहीं हम अपने दायित्व - जिम्मेदारी - कर्तव्यपरायणता से न केवल समझौता करने लगे हैं बल्कि यदि लीक से थोडा हट कर कार्य करने से, जिसमे जीविका जाने का खतरा न हो, तो उसे करने में हिचक नहीं, चाहे इसमें राष्ट्रीय क्षति क्यों न हो रही हो. ऐसे अनेकानेक मामले प्रकाश में आये हैं, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं. यह चिंता का विषय है और साथ ही चिंतन का भी.
"क्या थे, क्या हैं, होंगे क्या ? / अब यही बैठ के सोच रहाँ हूँ / शिक्षा में ह्रास भिक्षा की आस / हर बात में पश्चिम देख रहा हूँ / चिंतन की गिरावट धन कि लोलुपता / रिश्तों की बर्बरता देख रहा हूँ ..."
"समाज के तीन सजग प्रहरी / खादी, खाकी और टाई / समाज के तीन कर्णधार / अभियंता, डाक्टर और शिक्षक / परन्तु क्या कहूँ इनकी गति / कैसी हो गयी है इनकी मति / कभी - कभी तो ये / ऐसे कार्य करने में भी नहीं शर्माते / जिसे कहने में हमें शर्म आती है... "
"आज शिक्षक रूपी माली / कुम्भकार, शिल्पकार और कथाकार / हैरान है, परेशान है..../ सोचा था यह डाली / लाएगी - फल, फूल और हरियाली? / परन्तु हाय! इस डाली से / क्यों टपकी यह खून की लाली? / देखो! यह कैसा अनर्थ है? / क्या हमारी शिक्षा ही व्यर्थ है? / हमारे श्रम में तो कोई खोट नहीं थी मेरे मित्र! / फिर इस आकर्षक घट में, / मृदुल जल की बजाय छिद्र क्यों है? / इन नवीन कहे जाने वाले कृतियों में / संगीत के स्वरों में / ओज और माधुर्य के स्थान पर / नग्नता और विकृति क्यों है?
यदि उपरोक्त समस्याओं के मूलभूत कारणों को ढूढा जाय तो हमें शिक्षा पद्धति में संशोधन की आवश्यकता परिलक्षित हो रही है. शिक्षा में यह संशोधन किस प्रकार का होना चाहिए? अथवा किया जा सकता है, आइये देखें, समाधान ढूंढें -
कारण है सबका ही एक / नहीं किया तूने शिक्षा और विद्या में भेद / इसी विद्या के अभाव में, / शिक्षा का उत्पाद दम्भी अभियंता / विकास के नाम पर देश का धन चूसता है, / डॉक्टर चिकित्सा के नाम पर अभिवावकों का खून चूसता है, / काली कोट सफ़ेद टाई वाला / संविधान की मर्यादा चूसता है / ऐसे से में हैरानी क्यों है? / समझो टहनी में लाली क्यों है?
विद्या और शिक्षा में अंतर :
विद्या है - मानव को / महामानव में रूपांतरण की तकनीक / मानव के अंतर की / टिमटिमाती दीप को / प्रदीप्त और प्रखर करने की / अचूक रीति. विद्या लभ्यज्ञान है - स्वानुभूति है, भूमा है / यह नित्य है, सत्य है / और शिक्षा श्रब्यज्ञान है - पुस्तकीय है / व्याख्यान है, अख्यान है / सत्याभास है / यह स्वप्रधान / कामप्रधान, रागी-विषयी / और भोगप्रधान है / विद्या संपूर्ण ज्ञान / स्वानुभूति और आत्मोपलब्धि है / तत्व साक्षात्कार है; / यह सर्वगत, समष्टिगत / समदर्शी, तत्वदर्शी, वीतरागी / योग - प्रधान है / इसलिए शिक्षा के उत्पाद को / सुख - शांति की / सर्वदा तलाश है / जबकि 'सुख शांति संतोष' / तो विद्या का / स्वाभाविक दास है / मेरे मित्र! अब तो ग्रहण करो / विद्या को / इस तरह खड़ा / तू क्यों उदास है ?
सुझाव :
आज इस बात की महती आवश्यकता कि शिक्षा के साथ विद्या को भी अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाय क्योंकि शिक्षा ढेर सारी आय, धनोपार्जन का साधन तो हो सकती है, परन्तु; उसके उपयोग - सदुपयोग की कला तो विद्या के ही पास है. विद्या के अभाव में जाने -अनजाने हो रहा ज्ञान का दुपयोग ही वैश्विक कलह का कारण है, जिसका संधान इस विधि से संभव हो सकता है आज विश्व में दो रुझान, दो प्रकार की गतिविधियाँ कहीं भी बड़ी आसानी से दीख पड़ती हैं.
(i) वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप:
वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप समाज में क्षैतिज प्रगति को प्रदान करता है. रहन - सहन को, बाहरी परिवेश को, हमारी सभ्यता को प्रदर्शित करता है. यह जीवन प्रदाली को सरल, सुविधाभोगी ...और विलासिता पूर्ण बनता है. वहां आधुनिकता के नाम पर मानवीय मूल्यों में ह्रास और उपहास का भाव प्रायः वहां दिख पड़ता है. आज की सर्वाधिक जटिल समस्या ग्लोबल वार्मिंग की समस्या, जंगलों की कटाई, पालीथीन का प्रचलन, जैविक - आणविक हथियारों का सृजन, वैश्विक अशांति, प्राकृतिक संसाधनों, पेट्रोलियम इत्यादि पर अधिपत्य की लालसा इसी वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप की दें है.
(ii) आध्यात्मिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप:
आध्यात्मिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप समाज को लम्बवत प्रगति प्रदान करता है यह कठिन साधनामय जीवन है. यहाँ उर्द्वार्धर प्रगति की भावना कभी-कभी इतनी बलवती हो जाती है की व्यक्ति सामाजिक जीवन से पलायन कर अरण्यवासी हो जाता है. अथवा कुटिल और पाखंडी व्यक्ति इस कश्र्त्र को अंधविश्वास, सामाजिक कलह का कारण बना दिया करते है.
सुझाव :
क्या पुनर्निमाण के प्रसंग में आज सर्वाधिक आवश्यकता इस बात की नहीं है कि जिस प्रकार शिक्षा के साथ विद्या को जोड़ने कि आवश्यकता महसूस कि जा रही है, ठीक उसी प्रकार विज्ञानं और अध्यात्म के सर्जनात्मक पक्ष को जोड़ दिया जाय? इस सुधर से होगा यह कि विज्ञानं संवेदनशील बन जायेगा और अध्यात्म अंधविश्वास जैसी प्रत्गामी प्रवृत्तियों से उपर उठ कर सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन जायेगा. अब हमारी प्रगति न केवल क्षैतिज होगी, न केवल लम्बवत होगी अपितु संतुलित होगी. इसकी आवश्यकत न केवल सामाजिक स्तर पर है, न केवल राष्ट्रीय स्तर पर है; अपितु इसकी सर्वाधिक आवश्यकता तो वैश्विक स्तर पर है. यह प्रत्येक नागरिक का चाहे उसकी भाषा, बोली, राष्ट्रीयता चाहे जो हो, सभी का पुनीत कर्त्तव्य बन जाता है कि इस उद्देश्य कि प्राप्ति में सहयोग करे.
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि -
"क्या यह उचित नहीं होगा / कि प्रगति और उत्थान / संतुलित और सुनियोजित किया जाय / संतुलन और समग्रता कि स्थिति में / हर प्रगति बन जाएगी / एक त्रिज्या / और हम एक वृत्त / इस वृत्त के सुविचार रूपी त्रिज्या को / सद्भावना से अभिन्चित कर / श्रमशीलता के उर्वरक से / मनोवांछित वृत्त के संरचना में संदेह नहीं / और वृत्त क्या है? / सम्पूर्णता का बोधक जिसे स्वीकार किया है / विज्ञानं और अध्यात्म दोनों ने एक साथ....."इस प्रकार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जिस दायित्व बोध की कमी परिलक्षित हो रही है, उसे दूर कर संतिलित प्रगति की जा सकती है. इस प्रकार न केवल राष्ट्र स्तर पर अपितु वैश्विक स्तर पर सार्थक और सृजनात्मक परिवर्तन की सुखद की जा सकती है.
Saturday, March 13, 2010
राम के निवेदन का निहितार्थ और उसकी प्रासंगिकता:
लोककल्याण हेतु अवतीर्ण श्रीराम चन्द्र जी ने लंका पर चढ़ाई के लिए तो सागर पर सेतु बाँधा ही था, अपने आचरण और कार्य से भी एक 'धर्मसेतु' बाँधा था. इस धर्मसेतु की रक्षा होती रहे, इसके लिए वे सतत प्रयासरत भी रहे. इसी क्रम में उन्होंने जनता से, प्रजाजनों से, समस्त राज्य कर्मचारियों से, और अपने मंत्रिपरिषद से; एक भावभरा मार्मिक निवेदन, सविनय एक याचना की थी. यह याचना बहुत गूढ़ है, यह जितना जिज्ञासा का विषय है,उससे कहीं अधिक अनुसंधान का विषय-वस्तु है; क्योंकि धर्म तत्व की प्रासंगिकता, अध्यात्म का अर्थ, उसकी सार्वभौमिकता, सबकुछ इस याचना में अंतर्भूत है.क्या थी वह याचना? महर्षि बाल्मीकि के शब्दों में वह याचना इस प्रकार है -
"भूयो भूयो भाविनो भूमिपाला नत्वा नत्वा याचते रामचंद्र: /
सामान्योयं धर्म सेतुर्नाराणं काले - काले पालनीयो भवदभि: //"
इसका सामान्य अर्थ है कि राम कहते हैं -'हे भूमिपालों, हे भावी भूमिपालों, कृषकों, जमींदारों, भूमि व्यवस्था में सहयोगी राज्य कर्मचारियों, प्रजाजनों !!!... यह रामचंद्र आप सभी लोगों को बार-बार प्रणाम कर विनम्रता पूर्वक यह आगाह करता है कि आप लोग मेरे द्वारा बांधे गए इस धर्मसेतु की रक्षा सदैव करते रहें." परन्तु,'धर्मसेतु' है क्या? राम के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
रामकथा और रामचरित्र पर बहुत गहन अध्ययन-चिंतन, मनन-मंथन हुआ है, अनेकानेक काव्य/गद्य साहित्य का सृजन अनेकानेक देशी-विदेशी भाषाओं में भी हुआ है और निष्कर्ष रूप में सामान्यतः इन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है; और राम का यही रूप जन सामान्य के बीच प्रसारित और स्वीकृत है. धर्म का हेतु तो मर्यादा है ही, अनिवार्यतः है और साध्य रूप है परन्तु इसका साधन रूप है यही 'धर्मसेतु'. इस साधन के दो प्रमुख पक्ष हैं (१) धर्म का सेतु - विवेक और (२) धर्म का सेतु - विज्ञानं; जो इसे धर्म से जोड़ते हैं. जोड़ने का कार्य सेतु का है; अतएव इसे राम ने 'धर्मसेतु' की संज्ञा दी है. समाज में जो संतवृत्ति के हैं, जो सृजनात्मक गतिविधियों के संवाहक हैं, प्रणेता हैं, उनका गोस्वामीजी ने अन्य लक्षणों के साथ-साथ प्रमुख लक्षण के रूप में विवेक और विज्ञानं को चिन्हित किया है -"विरति विवेक विनय बिग्याना / बोध जथारथ बेद पुराना //". अब यदि कोई प्रश्न करे कि यदि विवेक और विज्ञानं इतना महत्वा पूर्ण है तो इस याचना में यह प्रत्यक्षा क्यों नहीं है? इसके उत्तर में इतना ही कहूँगा -'परोक्ष प्रिया देवानां'; देवों को परोक्ष कथन ही प्रिय है. यह वेद वाणी है और इसी का पालन राम ने किया है.
धर्म का सेतु - विवेक:
राम ने अपने जीवन काल में, अपने आचरण और कृत्य से सदा 'विवेक धर्म' का पालन किया है और इसी की अपेक्षा उन्होंने अपने प्रजाजनों से, राजकर्मियों से और मंत्रिपरिषद से की है. यह याचना न केवल वर्तमान में उपस्थित जनसमूह से है,अपितु यह निवेदन उनसे भी है जो किसी कारण से वहां उपस्थित नहीं हैं. यह निवेदन इतना महत्वपूर्ण है कि उन्हें भी संबोधित है जिनका अस्तित्व अभी नहीं है परन्तु वे राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं. इस संबोधन और निवेदन में 'भूयो भूयो' और 'भाविनो' शब्द उन्हीं के लिए प्रयुक्त हुआ है.
धर्मक्षेत्र में भक्त और भगवान का बड़ा ही प्यारा और अलौकिक सम्बन्ध है. भक्त तो भगवान का दास होता ही है, स्वयं भगवान को भी अपने भक्त का दास बार-बार बनना पड़ता है. भक्त की एक आर्द्र पुकार पर वह दौड़ा-दौड़ा भागा चला आता है और उसकी अभिलाषा पूरी करता है,उसे मनोवांछित फल प्रदान करता है. लेकिन राम चाहे भगवान रूप में परिकल्पित हों, चाहे मर्यादापुरुषोत्तम रूप में अथवा रजाराम के रूप में; हर बार मनोवांछित अभिलाषा पूरी नहीं करते. इस अभिलाषा की परख करते हैं और अभिलाषा की पूर्ति में भक्त के मंगल,उसके हित का ध्यान सर्वप्रथम रखते हैं....और यही तो विवेक है. इसी का पालन उन्होंने विश्वमोहिनी पर मोहित नारद के साथ किया है. अपने भक्त नारद को उन्होंने वह नहीं दिया जो नारद ने चाहा था, अपितु नारद को उन्होंने वह दिया जिसमे उनका कल्याण निहित था. आश्वासन में उन्होंने स्पष्ट कहा - "जेहि विधि होई परम हित नारद सुनहु तुम्हार / सोई हम करब न आन कछु वचन न मृषा हमार //" कुछ छिपाया नहीं, और इसका कारण भी साथ ही बता दिया - "कुपथ मांगु रुज व्याकुल रोगी / वैद न देहि सुनहु मुनि जोगी // एहि विधि हित तुम्हार मै ठयऊँ / अस कहि अन्तरहित प्रभु भयऊ //"
यह संसार परस्पर विरोधी गुणों का युग्म है. यहाँ जड़-चेतन, गुण-दोष, उचित-अनुचित का अद्भुत सम्मिश्रण है, भ्रमजाल है और भटकाव है. विवेक से, औचित्य के प्रश्न से ही इसका समाधान हो सकता है. संत वृत्ति और हंस वृत्ति ही इसमें सहायक है -
"जड़ चेतन, गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार / संत हंस गुन गहहि पिय परिहरि वारि बिकारि //". इसी प्रकार जप और ताप तो आध्यात्मिक कार्य हैं लेकिन यदि इसका उद्देश्य लोक कल्याण नहीं है तो भेसक इसका विरोध करना चाहिए और यदि क्षमता हो तो उसे नष्ट कर देना चाहिए. समाज का नेतृत्व कर रहे लोकनायकों में यह क्षमता तो होनी ही चाहिए क्योकि समाज को दिशा देने का दायित्व उन्हीं के कन्धों पर है. मेघनाद और रावण द्वारा किये जा रहे तप और यज्ञं को विध्वंश कराकर राम ने इसी विवेक का परिचय दिया है. महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रतिपादित यज्ञं का संरक्षण और मेघनाद/रावण द्वारा प्रतिपादित यज्ञं विध्वंश में परस्पर कोई विरोधाभास नहीं है. यह विवेक और लोकमंगल के आधार पर लिया गया निर्णय है जो सर्वथा उचित है. राक्षसों का यज्ञं सृजन शीलता के विरुद्ध था - "मेघनाद मख कराइ अपावन / खल मायावी देव सतावन // अतएव राम को आदेश देना पड़ा -"लछिमन संग जाहू सब भाई / करहु विधंस जग्य कर जाई //" राम स्वयं यज्ञं विरोधी नहीं हैं, हो भी नहीं सकते;. राम का प्राकट्य ही यज्ञं प्रक्रिया द्वारा होता है. यज्ञं के रक्षार्थ ही अपनी जन्म भूमि छोडकर विश्वामित्र के साथ प्रस्थान करते हैं, धनुष-यज्ञं माध्यम से उनका विवाह संस्कार होता है. वन गमन के समय भी जंगल राज का समापन कर विधि - व्यवस्था स्थापित करते हुए नितांत तपस्वी वेश में यज्ञंमय जीवन व्यतीत करते हैं तथा राज्याभिषेक के पश्चात अश्वमेध यज्ञं करते हैं. इस प्रकार उनका सम्पूर्ण जीवन ही यज्ञंमय है.
राम विवेक के पालन का यदि निर्देश देते हैं, अथवा इसका आग्रह करते हैं, तो इसे स्वयं अपने पर लागू भी करते हैं. स्वर्ण-मृग के सन्दर्भ में स्वयं विवेक का प्रयोग न करने पर अपने आपको कोसते हैं, अपराधी मानते हैं, पश्चाताप करते है. प्रस्तुत है डॉ. पुष्परानी गर्ग के शब्दों में राम का कथन - "किन्तु क्या कहूं तुझसे ही / तुमने बस आग्रह किया / और मैं भी तो / चल पडा तुरत / क्यों नहीं तुम्हे बरजा मैंने / क्यों विवेक मेरा भी तब / हो गया सुप्त / सच ही तो है / जो पत्नी की अनुचित इच्छा / निर्विचार पूरी करते / अपने ही हाथों / जीवन में कांटे भरते / अपराध कहीं मेरा भी है /..." इसी प्रकार समाज का नेतृत्व कर रहे लोग यदि अपनी- अपनी भूलों को मान लें, मान कर सुधार लें तो अराजकता, अनैतिकता और भ्रष्टाचार क्या टिक पायेगा? परन्तु आगे कौन आयेगा? पहला कदम बढाने का औचित्य तो उसका है जो सबसे बड़ी कुर्सी पर विराजमान है. जो सत्तावान और क्षमतावान हैं उन्हें ही आगे आना होगा. हमारे देश में आध्यात्मिक मनीषियों ने समाज का नेतृत्व किया है, आज एक बार फिर आगे आकर उदहारण प्रस्तुत करना होगा. रामराज्य लाने के लिए राम के गुणों को अपनाकर, निर्देशों का अनुपालन करना और उनके चरित्र का अनुसरण करना पडेगा.
जंगलराज को समाप्त कर विधिराज लागू करने के लिए ही उन्होंने स्वयं ही अयोध्या के युवराज का पद ठुकरा दिया था. वन गमन तो स्वयं उनकी इच्छा, उनके विवेक का परिणाम है. इसमें कध्यम बनी कैकेयी और स्वयं को कलंकिता बनाकर, उपहास और भर्त्सना सहन कर भी राम की इच्छापूर्ति का साधन बनी. डॉ. पुष्पारानी गर्ग ने इस घटना का भावपूर्ण एक काव्य विम्ब खींचा है. राम कैकेयी के समक्ष विवेकपूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं - "सुनो मातु / बन के आदिम नर किन्नर / जो अब तक हैं / अनजान अवध के शासन से / उन सबको अपनाना है / शासक - शासित के मध्य / एक जो खाई है / उसपर सेतु बनाना है / सद्भावपूर्ण निज कर्मों से / उनमें विश्वास जगाना है /......वन प्रांतर में भी / हो स्थाई / सुख-शान्ति मातु / पहले लक्ष्य यही मेरा / केवल निज की / सुख-शान्ति नही है / काम्य मुझे / जननी मेरी / क्या कहूं तुम्हे / मै पुनः चाहता वन जाना / बस यही कामना है मेरी ..."
यह प्रस्तुतीकरण ऐतिहासिक रूप से कटना सत्य है और कितना गल्प, यह मै नहीं जानता. इस प्रस्तुतीकरण का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसका सामी राम चरित्र से है. इससे राम चरित्र पर कोई आघात नहीं पहुचता, उसमे न्यूनता नहीं आती लेकिन दूसरी और कैकेयी का कलंक धुल जाता है. और उससे भी बड़ी बात यह है कि लोकमंगल के कार्य में यदि कलंक और अपमान भी ढोना पड़े तो उसे ढोना चाहिए. इसकी प्रेरणा मिलती है और पर्याप्त ऊर्जा भी; केवल स्वीकारने की मनःस्थिति हो. यह एक बहुत बड़ा कल्याणकारी सन्देश छिपा हुआ है इसमें. साथ ही 'नारी सशक्तिकरण' के अभियान में यदि किसी कलंकिता नारी की छवि को निखारा जा सकता हो तो ऐसा क्यों न किया जाय? दूसरी बात यदि यह घटना सत्य है तो कैकेयी तो हलाहल पीकर नीलकंठ के समान स्नेह - सम्मान वंदनीया होनी चाहिए. इस प्रकार डॉ. गर्ग का यह प्रस्तुतीकरण निःसंदेह विवेकपूर्ण और औचित्यपूर्ण है. उन्हें साधुवाद.
जो मनुष्य उचित-अनुचित का विवेक रखते हुए भी औचित्यपूर्ण कार्य नहीं करते, उन्हें क्या कहा जाय? महाभारत का चर्चित पात्र दुर्योधन कहता है - "जानामि नो चरिष्यामि जानामि नो वर्जयामी". जानता हूँ क्या करना चाहिए परन्तु उसमे प्रवृत्ति नहीं होती, इसी प्रकार यह भी जानता हूँ क्या नहीं करना चाहिए; परन्तु उससे निवृत्ति नहीं होती. ऐसे लोग भ्रमित हैं, द्वंदों से घिरे हैं. इस द्वन्द से बाहर निकालने का काम विवेक का है. विवेक पर दृढ आस्था और विश्वास का है. श्रीरामचंद्र अपने नगर वासियों को, मंत्रिपरिषद को; इसी विवेक, इसी आस्था और इसी सृजनशीलता रुपी सेतु से धर्म को जोड़ना चाहते हैं. क्यों जोड़ना चाहते है? क्योंकि वे जानते हैं कि राम के आदर्श का कारण सुशासन है. यह धर्म पर आद्धृत है. धर्म रूपी वृषभ के चार चरण है - सत्य, शौच, दया और दान. इनकी सुरक्षा, इनका संवर्द्धन और प्रचलन तभी सुनिश्चित हो सकता है जब मानवीय विवेक को धर्म के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाय. धार्मिकता, आध्यात्मिकता, श्रेष्ठता ऊर्ध्वगामी है जबकि अंध-धार्मिकता, अंध-आध्यात्मिकता, अंध-विश्वास पतन है, अधोगामी है. विवेक-धर्म के साम्राज्य में अपराध और पाप के लिए कोई स्थान नहीं - "चारिउ चरण धर्म जगमाही / पूरि रहा सपनेहु अघ नहीं//" यही 'विवेक' धर्म सेतु है, यही राम कि याचना का मर्म है क्योकि अध्यात्म का क्षेत्र जिस नैतिकता, सचरित्रता, इमानदारी और जिस जिम्मेदारी की मांग करता है, यह विवेक इस समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति एक साथ कर देता है.
"भूयो भूयो भाविनो भूमिपाला नत्वा नत्वा याचते रामचंद्र: /
सामान्योयं धर्म सेतुर्नाराणं काले - काले पालनीयो भवदभि: //"
इसका सामान्य अर्थ है कि राम कहते हैं -'हे भूमिपालों, हे भावी भूमिपालों, कृषकों, जमींदारों, भूमि व्यवस्था में सहयोगी राज्य कर्मचारियों, प्रजाजनों !!!... यह रामचंद्र आप सभी लोगों को बार-बार प्रणाम कर विनम्रता पूर्वक यह आगाह करता है कि आप लोग मेरे द्वारा बांधे गए इस धर्मसेतु की रक्षा सदैव करते रहें." परन्तु,'धर्मसेतु' है क्या? राम के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
रामकथा और रामचरित्र पर बहुत गहन अध्ययन-चिंतन, मनन-मंथन हुआ है, अनेकानेक काव्य/गद्य साहित्य का सृजन अनेकानेक देशी-विदेशी भाषाओं में भी हुआ है और निष्कर्ष रूप में सामान्यतः इन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है; और राम का यही रूप जन सामान्य के बीच प्रसारित और स्वीकृत है. धर्म का हेतु तो मर्यादा है ही, अनिवार्यतः है और साध्य रूप है परन्तु इसका साधन रूप है यही 'धर्मसेतु'. इस साधन के दो प्रमुख पक्ष हैं (१) धर्म का सेतु - विवेक और (२) धर्म का सेतु - विज्ञानं; जो इसे धर्म से जोड़ते हैं. जोड़ने का कार्य सेतु का है; अतएव इसे राम ने 'धर्मसेतु' की संज्ञा दी है. समाज में जो संतवृत्ति के हैं, जो सृजनात्मक गतिविधियों के संवाहक हैं, प्रणेता हैं, उनका गोस्वामीजी ने अन्य लक्षणों के साथ-साथ प्रमुख लक्षण के रूप में विवेक और विज्ञानं को चिन्हित किया है -"विरति विवेक विनय बिग्याना / बोध जथारथ बेद पुराना //". अब यदि कोई प्रश्न करे कि यदि विवेक और विज्ञानं इतना महत्वा पूर्ण है तो इस याचना में यह प्रत्यक्षा क्यों नहीं है? इसके उत्तर में इतना ही कहूँगा -'परोक्ष प्रिया देवानां'; देवों को परोक्ष कथन ही प्रिय है. यह वेद वाणी है और इसी का पालन राम ने किया है.
धर्म का सेतु - विवेक:
राम ने अपने जीवन काल में, अपने आचरण और कृत्य से सदा 'विवेक धर्म' का पालन किया है और इसी की अपेक्षा उन्होंने अपने प्रजाजनों से, राजकर्मियों से और मंत्रिपरिषद से की है. यह याचना न केवल वर्तमान में उपस्थित जनसमूह से है,अपितु यह निवेदन उनसे भी है जो किसी कारण से वहां उपस्थित नहीं हैं. यह निवेदन इतना महत्वपूर्ण है कि उन्हें भी संबोधित है जिनका अस्तित्व अभी नहीं है परन्तु वे राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं. इस संबोधन और निवेदन में 'भूयो भूयो' और 'भाविनो' शब्द उन्हीं के लिए प्रयुक्त हुआ है.
धर्मक्षेत्र में भक्त और भगवान का बड़ा ही प्यारा और अलौकिक सम्बन्ध है. भक्त तो भगवान का दास होता ही है, स्वयं भगवान को भी अपने भक्त का दास बार-बार बनना पड़ता है. भक्त की एक आर्द्र पुकार पर वह दौड़ा-दौड़ा भागा चला आता है और उसकी अभिलाषा पूरी करता है,उसे मनोवांछित फल प्रदान करता है. लेकिन राम चाहे भगवान रूप में परिकल्पित हों, चाहे मर्यादापुरुषोत्तम रूप में अथवा रजाराम के रूप में; हर बार मनोवांछित अभिलाषा पूरी नहीं करते. इस अभिलाषा की परख करते हैं और अभिलाषा की पूर्ति में भक्त के मंगल,उसके हित का ध्यान सर्वप्रथम रखते हैं....और यही तो विवेक है. इसी का पालन उन्होंने विश्वमोहिनी पर मोहित नारद के साथ किया है. अपने भक्त नारद को उन्होंने वह नहीं दिया जो नारद ने चाहा था, अपितु नारद को उन्होंने वह दिया जिसमे उनका कल्याण निहित था. आश्वासन में उन्होंने स्पष्ट कहा - "जेहि विधि होई परम हित नारद सुनहु तुम्हार / सोई हम करब न आन कछु वचन न मृषा हमार //" कुछ छिपाया नहीं, और इसका कारण भी साथ ही बता दिया - "कुपथ मांगु रुज व्याकुल रोगी / वैद न देहि सुनहु मुनि जोगी // एहि विधि हित तुम्हार मै ठयऊँ / अस कहि अन्तरहित प्रभु भयऊ //"
यह संसार परस्पर विरोधी गुणों का युग्म है. यहाँ जड़-चेतन, गुण-दोष, उचित-अनुचित का अद्भुत सम्मिश्रण है, भ्रमजाल है और भटकाव है. विवेक से, औचित्य के प्रश्न से ही इसका समाधान हो सकता है. संत वृत्ति और हंस वृत्ति ही इसमें सहायक है -
"जड़ चेतन, गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार / संत हंस गुन गहहि पिय परिहरि वारि बिकारि //". इसी प्रकार जप और ताप तो आध्यात्मिक कार्य हैं लेकिन यदि इसका उद्देश्य लोक कल्याण नहीं है तो भेसक इसका विरोध करना चाहिए और यदि क्षमता हो तो उसे नष्ट कर देना चाहिए. समाज का नेतृत्व कर रहे लोकनायकों में यह क्षमता तो होनी ही चाहिए क्योकि समाज को दिशा देने का दायित्व उन्हीं के कन्धों पर है. मेघनाद और रावण द्वारा किये जा रहे तप और यज्ञं को विध्वंश कराकर राम ने इसी विवेक का परिचय दिया है. महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रतिपादित यज्ञं का संरक्षण और मेघनाद/रावण द्वारा प्रतिपादित यज्ञं विध्वंश में परस्पर कोई विरोधाभास नहीं है. यह विवेक और लोकमंगल के आधार पर लिया गया निर्णय है जो सर्वथा उचित है. राक्षसों का यज्ञं सृजन शीलता के विरुद्ध था - "मेघनाद मख कराइ अपावन / खल मायावी देव सतावन // अतएव राम को आदेश देना पड़ा -"लछिमन संग जाहू सब भाई / करहु विधंस जग्य कर जाई //" राम स्वयं यज्ञं विरोधी नहीं हैं, हो भी नहीं सकते;. राम का प्राकट्य ही यज्ञं प्रक्रिया द्वारा होता है. यज्ञं के रक्षार्थ ही अपनी जन्म भूमि छोडकर विश्वामित्र के साथ प्रस्थान करते हैं, धनुष-यज्ञं माध्यम से उनका विवाह संस्कार होता है. वन गमन के समय भी जंगल राज का समापन कर विधि - व्यवस्था स्थापित करते हुए नितांत तपस्वी वेश में यज्ञंमय जीवन व्यतीत करते हैं तथा राज्याभिषेक के पश्चात अश्वमेध यज्ञं करते हैं. इस प्रकार उनका सम्पूर्ण जीवन ही यज्ञंमय है.
राम विवेक के पालन का यदि निर्देश देते हैं, अथवा इसका आग्रह करते हैं, तो इसे स्वयं अपने पर लागू भी करते हैं. स्वर्ण-मृग के सन्दर्भ में स्वयं विवेक का प्रयोग न करने पर अपने आपको कोसते हैं, अपराधी मानते हैं, पश्चाताप करते है. प्रस्तुत है डॉ. पुष्परानी गर्ग के शब्दों में राम का कथन - "किन्तु क्या कहूं तुझसे ही / तुमने बस आग्रह किया / और मैं भी तो / चल पडा तुरत / क्यों नहीं तुम्हे बरजा मैंने / क्यों विवेक मेरा भी तब / हो गया सुप्त / सच ही तो है / जो पत्नी की अनुचित इच्छा / निर्विचार पूरी करते / अपने ही हाथों / जीवन में कांटे भरते / अपराध कहीं मेरा भी है /..." इसी प्रकार समाज का नेतृत्व कर रहे लोग यदि अपनी- अपनी भूलों को मान लें, मान कर सुधार लें तो अराजकता, अनैतिकता और भ्रष्टाचार क्या टिक पायेगा? परन्तु आगे कौन आयेगा? पहला कदम बढाने का औचित्य तो उसका है जो सबसे बड़ी कुर्सी पर विराजमान है. जो सत्तावान और क्षमतावान हैं उन्हें ही आगे आना होगा. हमारे देश में आध्यात्मिक मनीषियों ने समाज का नेतृत्व किया है, आज एक बार फिर आगे आकर उदहारण प्रस्तुत करना होगा. रामराज्य लाने के लिए राम के गुणों को अपनाकर, निर्देशों का अनुपालन करना और उनके चरित्र का अनुसरण करना पडेगा.
जंगलराज को समाप्त कर विधिराज लागू करने के लिए ही उन्होंने स्वयं ही अयोध्या के युवराज का पद ठुकरा दिया था. वन गमन तो स्वयं उनकी इच्छा, उनके विवेक का परिणाम है. इसमें कध्यम बनी कैकेयी और स्वयं को कलंकिता बनाकर, उपहास और भर्त्सना सहन कर भी राम की इच्छापूर्ति का साधन बनी. डॉ. पुष्पारानी गर्ग ने इस घटना का भावपूर्ण एक काव्य विम्ब खींचा है. राम कैकेयी के समक्ष विवेकपूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं - "सुनो मातु / बन के आदिम नर किन्नर / जो अब तक हैं / अनजान अवध के शासन से / उन सबको अपनाना है / शासक - शासित के मध्य / एक जो खाई है / उसपर सेतु बनाना है / सद्भावपूर्ण निज कर्मों से / उनमें विश्वास जगाना है /......वन प्रांतर में भी / हो स्थाई / सुख-शान्ति मातु / पहले लक्ष्य यही मेरा / केवल निज की / सुख-शान्ति नही है / काम्य मुझे / जननी मेरी / क्या कहूं तुम्हे / मै पुनः चाहता वन जाना / बस यही कामना है मेरी ..."
यह प्रस्तुतीकरण ऐतिहासिक रूप से कटना सत्य है और कितना गल्प, यह मै नहीं जानता. इस प्रस्तुतीकरण का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसका सामी राम चरित्र से है. इससे राम चरित्र पर कोई आघात नहीं पहुचता, उसमे न्यूनता नहीं आती लेकिन दूसरी और कैकेयी का कलंक धुल जाता है. और उससे भी बड़ी बात यह है कि लोकमंगल के कार्य में यदि कलंक और अपमान भी ढोना पड़े तो उसे ढोना चाहिए. इसकी प्रेरणा मिलती है और पर्याप्त ऊर्जा भी; केवल स्वीकारने की मनःस्थिति हो. यह एक बहुत बड़ा कल्याणकारी सन्देश छिपा हुआ है इसमें. साथ ही 'नारी सशक्तिकरण' के अभियान में यदि किसी कलंकिता नारी की छवि को निखारा जा सकता हो तो ऐसा क्यों न किया जाय? दूसरी बात यदि यह घटना सत्य है तो कैकेयी तो हलाहल पीकर नीलकंठ के समान स्नेह - सम्मान वंदनीया होनी चाहिए. इस प्रकार डॉ. गर्ग का यह प्रस्तुतीकरण निःसंदेह विवेकपूर्ण और औचित्यपूर्ण है. उन्हें साधुवाद.
जो मनुष्य उचित-अनुचित का विवेक रखते हुए भी औचित्यपूर्ण कार्य नहीं करते, उन्हें क्या कहा जाय? महाभारत का चर्चित पात्र दुर्योधन कहता है - "जानामि नो चरिष्यामि जानामि नो वर्जयामी". जानता हूँ क्या करना चाहिए परन्तु उसमे प्रवृत्ति नहीं होती, इसी प्रकार यह भी जानता हूँ क्या नहीं करना चाहिए; परन्तु उससे निवृत्ति नहीं होती. ऐसे लोग भ्रमित हैं, द्वंदों से घिरे हैं. इस द्वन्द से बाहर निकालने का काम विवेक का है. विवेक पर दृढ आस्था और विश्वास का है. श्रीरामचंद्र अपने नगर वासियों को, मंत्रिपरिषद को; इसी विवेक, इसी आस्था और इसी सृजनशीलता रुपी सेतु से धर्म को जोड़ना चाहते हैं. क्यों जोड़ना चाहते है? क्योंकि वे जानते हैं कि राम के आदर्श का कारण सुशासन है. यह धर्म पर आद्धृत है. धर्म रूपी वृषभ के चार चरण है - सत्य, शौच, दया और दान. इनकी सुरक्षा, इनका संवर्द्धन और प्रचलन तभी सुनिश्चित हो सकता है जब मानवीय विवेक को धर्म के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाय. धार्मिकता, आध्यात्मिकता, श्रेष्ठता ऊर्ध्वगामी है जबकि अंध-धार्मिकता, अंध-आध्यात्मिकता, अंध-विश्वास पतन है, अधोगामी है. विवेक-धर्म के साम्राज्य में अपराध और पाप के लिए कोई स्थान नहीं - "चारिउ चरण धर्म जगमाही / पूरि रहा सपनेहु अघ नहीं//" यही 'विवेक' धर्म सेतु है, यही राम कि याचना का मर्म है क्योकि अध्यात्म का क्षेत्र जिस नैतिकता, सचरित्रता, इमानदारी और जिस जिम्मेदारी की मांग करता है, यह विवेक इस समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति एक साथ कर देता है.
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